Book Title: Jain Siddhant Bhaskar
Author(s): Hiralal Professor and Others
Publisher: Jain Siddhant Bhavan

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Page 75
________________ प्रशस्ति-संग्रह -.---... -- . . -. मधुगिरि तालुक में अङ्गाडि नामक स्थान से प्रादुर्भूत हुआ था । इसीका प्राचीन नाम शशकपुर रहा। यहाँ पर सळ नाम के सामन्त ने व्याघ्र से एक जैन मुनि की रक्षा करने के कारण पोयिसळ (होयिसळ) नाम प्राप्त किया। विद्वानों का कहना है कि प्रारंभ में यह वंश पहाड़ी था, पीछे विनयादित्य के उत्तराधिकारी बल्लाळ ने अपनी राजधानी शशकपुर से वेलूर में हटाली। द्वारसमुद्र (हळेबीडु) में भी उनकी राजधानी थी। इस वंश के विष्णुवर्द्धन के समय में होयिसळ नशों का प्रभाव वहुत ही बढ़ गया था। इसी समय गंगवाडि का पुराना राज्य भी सब उनके अधीन हो गया था और उन्होंने कई प्रदेशों . को विजय-द्वारा हस्तगत कर लिया था। प्रारंभ में विष्णुवर्द्धन जेन रहा, किन्तु पीछे काव हो गया था। पर फिर भी इनकी तथा इनके परिवार-चग की जनधम से सदा मची सहानुभूति रही। होयिसळ राज्य पहले चालुक्य साम्रा य के अन्तगत था. बाद नरसिंह के पुत्र बीरबल्लाळ के समय में यह राञ स्वतन्त्र हो गया। यह वंश सदा से जैनियों का प्रधान पृष्ठ-पोपक रहा । उल्लिखित राज्य की राजधानी ग्रन्थकर्ता ब्रह्मसूरि जी ने 'लव-त्रयपुरी' लिखा है। परन्तु ऐतिहासिक प्रमाणों से इस वंश की राजधानी सिर्फ तीन स्थानों में ही सिद्ध होती है जिनके नाम क्रमशः (१) शशकपुर (२) बेलुरु (३) और द्वारसमुद्र या हळेबीडु हैं। पता नहीं कि सूरि जी द्वारा निर्दिष्ट नवयपुरी कहाँ थी और कब इस राज्य के अन्तभुक्त हुई । संभव है कि द्वारासमुद्र को ही इन्होंने छत्रबयपुरी लिखा हो। क्योंकि एक जमाने में यह द्वार-समुद्र जैनियों का केन्द्र सा बन गया था। बलि कहा जाता है कि उन दिनों वहाँ साढ़े सात सौ भव्य जिनमन्दिर थे और वैष्णव धर्म स्वीकार करने के बाद विष्णुवर्धन ने ही इन भव्य मन्दिरों को तहस-नहस कर दिया। वहाँ के जिनमन्दिरों के ध्वंसावशेष से भी यह पता चलता है कि उल्लिखित घटना वास्तविक है। अब हळेबीडु में केवल आदिनाथ, शान्तिनाथ एवं पार्श्वनाथ तीर्थङ्कर के तीन ही मनोज्ञ मन्दिर रह गये हैं, जो भारतीय शिल्पकला के आदर्शभूत बने हुए हैं। कविवर उस्तिमल जी के सुपुत्र निर्दिष्ट पार्श्वपण्डित के चन्द्रप, चन्द्रनाथ और वैजय्य नामक तीन पुत्र थे। इनमें चन्द्रनाथ और इनके परिवार पीछे हेमाचल (होन्नूरु) में जा बसे। अवशिष्ट दो भाई भी अन्यान्य स्थानों में जाकर बस गये। चन्द्रए के पुत्र विजयेन्द्र हुए और इन्हीं के सुपुत्र इस त्रैवर्णिकाचार अन्य के प्रणेता पण्डित ब्रह्मसूरि जी हैं। सूरि जी ने पूर्वोक्त प्रतिष्ठाग्रन्थात अपनी वंश-प्रशस्ति में अपने पूर्वजों का निवासस्थान गण्ड्य देशान्तर्गत गुडिपत्तन द्वीप' बतलाया है। वर्तमान तंजोर जिलान्तर्गत 'दीपनगुडि का ही यह प्राचीन गुडिपत्तन द्वीप होना बहुत कुछ सम्भव है। मालूम होता है कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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