Book Title: Jain Siddhant Bhaskar
Author(s): Hiralal Professor and Others
Publisher: Jain Siddhant Bhavan

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Page 76
________________ प्रशस्ति-संग्रह लेखक की कृपा से ही 'दीपन' का 'द्वीप' लिखा गया है। क्योंकि वहाँ पर द्वीप का होना किसी तरह से सिद्ध नहीं होता । इस स्थान में जैनियों का प्रभाव अच्छा रहा है । ८२ जैन समाज के कुछ विद्वान इस ग्रन्थ को प्रामाणिक मानने के लिये सहमत नहीं हैं । क्योंकि उनका कहना है कि जैन सिद्धान्त के प्रतिकूल श्राद्ध, तर्पण, गो-दान आदि कई बातें इस में विधिरूप में पायी जाती हैं। उन विद्वानों का कहना है कि ब्रह्मसूरि जी के मूल पूर्वज हिन्दू धर्मावलम्बी थे - इससे इनके रचे ग्रन्थ पर हिन्दुत्व की छाप पड़ गयी है । कुछ विद्वान् इस आक्षेप का उत्तर यह देते हैं- प्रत्येक धर्म पर देश, काल आदि का विना प्रभाव पड़े नहीं रह सकता, इसलिये इस अनिवार्य नियमानुसार बहुत कुछ सम्भव है कि बहुसंख्यक हिन्दू समाज में अपनी सत्ता कायम रखने और हिन्दुओं से सहानुभूति प्राप्त करने के लिये तात्कालिक कुछ जैनग्रन्थ-कर्त्ताओं को कुछ आचार ग्रन्थों में आपद्धर्म के रूप में उनका उद्देश जैनधर्मके अनुकूल बता कर स्थान देना पड़ा होगा | (२५) ग्रन्थ नं० २ लम्बाई ८|इञ्च प्रारम्भिक भाग – ख रत्नमञ्जूषा कर्त्ता - X विषय - छन्द भाषा - संस्कृत चौडाई ६ ||| इञ्च पत्रसंख्या ६५ यो भूतभव्यभवदर्थयथार्थवेदी देवासुरेन्द्रमुकुटार्चितपादपद्मः | विद्यानदीप्रभवपर्वत एक एव तं क्षीणकल्मषगणं प्रणमामि वीरम् ॥ मायाका – मायाका serer सर्वगुरुविकस्य आकार: संज्ञा भवति ककारो वा स्वरोन्त्यस्तदन्तस्य व्यञ्जनं चेतिवचनात् । सूचिमुखिया इत्याकारस्य भद्रविराज्यिकिरे इति ककारस्य । अत्रैव माया इति गुरुद्वयस्य यकारः संज्ञा भवति व्यञ्जनञ्च तदन्तस्येति वचनादेवायिष्टनिति । पुनश्च अत्रैव मा इति गुर्वत्तरस्प प्रकार: संज्ञा भवति । व्यञ्जनं च Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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