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प्रशस्ति-संग्रह
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मात्र है। जब तक इस सम्बन्ध में कोई सबल प्रमाण नहीं मिलता है तबतक इसे कोई मानने को तैयार क्योंकर हो सकता है ?
अब रहा इस छन्दोग्रन्थ का विषय । यह ग्रन्थ छोटे छोटे आठ अध्यायों में विभक्त है। इस प्रति की मैसुर राजकीय 'प्राच्यपुस्तकागार' से मैंने ही कन्नड लिपि से नागराक्षर में प्रतिलिपि कराई थी। इसके अष्टम अध्याय का कुछ अंश लुप्त सा ज्ञात होता है। इस लुप्तांश के बाद ही तीन पृष्ठों में मेरुसम्बन्धी प्रस्तार के पद्यबद्ध लक्षण सकोष्ठक दिये गये हैं। कवि ने इस ग्रन्थ में प्रायः प्रत्येक छन्द पर अच्छा प्रकाश डाला है। इसके छन्दोलक्षण पिंगलसूत्र के समान सूत्रमय है जो नितांत स्वतन्त्र है। छन्दों के दिये गये दृष्टांतों में यत्र-तत्र जैनत्व की छाप सुस्पष्ट प्रतिभासित होती है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस के कर्ता काव्यशास्त्र के एक उद्भट मर्मज्ञ थे। इसकी अन्यान्य प्रतियाँ जहाँ तहाँ से अन्वेषण एवं मिलान कर इस रत्नभूत 'रत्नमंजूषा' के प्रकाशन से दिगम्बर जैनसाहित्य के एक अङ्ग की पूर्ति हो जायगी। अन्यान्य पुस्तक प्रकाशन संस्थाओं और जैन परीक्षालयों को इस ओर अवश्य ध्यान देना चाहिये। क्योंकि आजतक सभी जैन परीक्षालयों के पाठ्य ग्रन्थों में जैनेतर छन्दोग्रन्थ ही समाविट होते आ रहे हैं।
(२६) ग्रन्थ नं० २३७
सरस्वतीकल्प कर्ता-मलयकीर्ति
विषय-मंत्रशास्त्र भाषा-संस्कृत चौड़ाई है इञ्च
लम्बाई ६॥ इन्च
पत्रसंख्या ७
प्रारम्भिक भाग
बारहगं गिजा सणनिलया चरितबहरा । चउदसपुब्बाहरणा ठावे दयाय सुददेवी ॥ आचारशिरसं सूत्रकृतवक्रां (सरस्वती ) सकण्ठिकाम् | स्थानेन समयोद्घ ( स्थानांगसमयांत्रिं तां) व्याख्याप्राप्तिदोलताम्॥
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