Book Title: Jain Siddhant Bhaskar
Author(s): Hiralal Professor and Others
Publisher: Jain Siddhant Bhavan

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Page 58
________________ farer fore " नैषधीय चरित" में जैन धर्म का उल्लेख [ १ ] संस्कृत साहित्य में 'नैषधीयचरित' का भी अपना खास स्थान है । उसकी गणना कालिदास, मट्टि, भारवि और माघ के महाकाव्यों से भी उच्च कोटि में की जाती है । कहते हैं। कि यह श्रीहर्ष की रचना है और उसका समय ईस्वी बारहवीं शताब्दो का अन्तिम चरण है । इस महाकाव्य में नल-दमयन्ती की कथा सरस रीति से वर्णित है । कवि ने जैनधर्म-विषयक उल्लेख देकर यह स्पष्ट कर दिया है कि उनके समय में जैनधर्म का प्राबल्य अधिक था । " नैषधीयचरित" के प्रथम सर्ग में इन्होंने लिखा है : - "चमूचरास्तस्य नृपस्य सादिनो जिनोक्तिषु श्राद्धतयैव सैन्धवाः 1 विहारदेशं तमवाप्य मण्डलीमकारयन्भूरितुरंगमानपि ॥ ७१ ॥ ' अर्थात् — “जिनेन्द्र भगवान के वचनों में श्रद्धा न रखनेवाले सिन्धुदेश के रहनेवाले जैन लोग विहारस्थल में बहुत से जैनों को बलयाकार बिठाते हैं अर्थात् मध्य में मुनीश्वर बैठते हैं और उनके चारो ओर जैनी बैठते हैं । सो जिस तरह वे नल के सैन्यलोक मो अपने घोड़ों को बलायाकार घुमाते हैं ।" बलयाकार बिठाते हैं उसी तरह इस उल्लेख से दो बातें स्पष्ट हैं (१) जैनों के उपदेश की प्राचीन रीति तब भी प्रचलित थी ( २ ) और तब सिन्धुदेश में जैनधर्म का अच्छा प्रचार था । सिन्धुदेश के इतिहास 'चचनामा' में सातवीं शताब्दी ई० में श्रमणों को सिन्धुदेश का राज्याधिकारी लिखा है । उसमें यह भी लिखा है कि जब मुहम्मद कासिम ने सिन्धुदेश पर आक्रमण किया तो श्रमणों ने उससे सन्धि करनी चाही। उन्होंने कहा कि हमारा धर्म शांतिमय है- उसमें हिंसा करना, लड़ना और खून बहाना मना है । उन्होंने यह भी कहा कि हमारे शास्त्रों में यह पहले ही ज्योतिष के आधार पर कह दिया गया है कि अब हिंदुस्तान में ( म्लेच्छों ) मुसलमानों का राज्य होगा | सिंधु देश के इन श्रमणों के इस कथन से उनका जैनी होना संभव है, क्योंकि उपरांत जैनियों ने अहिंसा के स्वरूप को ऐसे ही विकृत रूप समझे बैठे मिल जाते हैं । जैन ग्रंथों में यह भी घोषित किया गया है कि पंचमकाल में भारत में म्लेच्छों का राज्य होगा । उधर ११वीं - १२वीं शताब्दियों में वहाँ जैनधर्म का प्राबल्य मिलता ही है। परंतु इतिहास - * Keith; “ Classical Sanskrit Literature" ( Heritage of India Series) p.p. 58-59. t. Elliot; History of India ( London 1867), p. 147, 4. Ibid, pp. 158-161. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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