Book Title: Jain Siddhant Bhaskar
Author(s): Hiralal Professor and Others
Publisher: Jain Siddhant Bhavan

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Page 11
________________ किरण ३ । (४) श्यामा - पीठ - यह पीठ यदि वस्तुतः सभी पीठों से दुर्गम एवं दुरूह कहा जाय तो इसमें कोई भो अतिशयोक्ति नहीं होगी । इस अन्तिम पीठ - परीक्षा में कोई विरले ही महापुरुष अपनी असाधारण जितेन्द्रियता से उत्तीर्ण होते आये हैं । एकान्त स्थान में पोडशी नवयौवना सुन्दरी को वस्त्र - रहित कर सामने बैठा मंत्र सिद्ध करने को एवं अपने मन को तिलमात्र भी चलायमान न होने देकर ब्रह्मचर्य में दृढ़ रहने का श्यामा- पीठ कहते हैं । जैन ग्रन्थों में लिखा है कि द्वैपायन-पुत्र मुनीश्वर शुकदेव आदि इस मंत्र को सिद्ध कर विजयी हैं। जनमन्व-शास्त्र १४१ यहाँ तक तो केवल मंत्र शास्त्र के बाह्य अंगों की समीक्षा हुई, अब देखना है कि मंत्र क्या चीज है और बड़े से बड़े लौकिक एवं पारलौकिक लाभ इससे किस प्रकार होते हैं । मंत्र का सम्बन्ध मानस शास्त्र से है। I मन की एकाग्रता पर ही इसकी नीव निर्भर करती है । मन को एकाग्र कर इन्द्रियों के विषय की ओर से लक्ष्य हटाकर मंत्र-साधन से वह सिद्ध हो जाता है । मन को चञ्चलता जितनी जल्दी हटेगी उतनी ही जल्दी मन्त्र सिद्ध होगा । महर्षियों ने मन्त्र शब्द की निरुक्ति-जिन विचारों से हमारा कार्य सिद्ध हो, वह मंत्र है यों बतलायी है । मैं पहले ही लिख चुका हूं कि मन्त्र - विद्या योग का एक अंग है । इस विषय के मर्मज्ञों का कहना है कि मन के साथ वर्णोच्चारण का घर्षण प्रकटित होती है और उन्हीं वर्णों के समुदाय का नाम मन्त्र है । अर्थ 'विचार' कहा है । राजनीति शास्त्र में भी लिखा है कि जिन राज्यतन्त्र चलाया जाता है-वह मन्त्र है । यही कारण है कि राज्यतन्त्र के प्रधान सञ्चालक महामन्त्री एवं उनके सहायकों को 'मंत्रिमण्डल' कहते हैं । मन्त्र का सिद्ध होना साधक की योग्यता पर निर्भर है। क्योंकि मन्त्रशास्त्र में लिखा है कि साधक को चतुर, जितेन्द्रिय, मेधावी, देवगुरु-भक्त, सत्यवादी, वाकपटु, निर्भय, दयालु, प्रशांत, निर्लोभ, निष्कपट, निरहंकार, निरभिमान, परस्त्रीत्यागा और बीजाक्षरों का धारण करने में समर्थ होना चाहिये । होने से एक दिव्यज्योति इसीलिये मन्त्रशास्त्र का विचारों को गुप्त रख कर यन्त्र - अष्टगन्ध, लौह लेखनी आदि से भोजपत्र, रजत एवं ताम्रपत्रादि पर षड्दल, अष्टदलं. शतदल, सहस्रदल तथा त्रिकोण, चतुष्काण या वर्तुल रेखाओं के भीतर बीजाक्षरों को लिखना उनका यथाविधि अभिषेक, पूजन, प्राण-प्रतिष्ठा, मंत्रपुष्पादि द्वारा साधन करना यंत्रसाधन है । सिद्धचक, ऋषिमण्डल, गणधरवलय मृत्युञ्जय, कलिकुण्ड, वज्रपञ्जर एवं घण्टाकर्ण आदि यंत्रों के अतिरिक्त प्रत्येक काम्य कार्य के लिये भिन्न भिन्न हजारों यंत्र और मी बतलाये गये हैं । कहीं कहीं केवल मंत्र और कहीं कहीं यंत्र मंत्र दोनों काम में लाये जाते है। यंत्र - विद्या भी मंत्रशास्त्र का ही एक अंग है और वरण या बीजाक्षरों को एकाग्रतापूर्वक लिखना ही इस साधन की मुख्य क्रिया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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