Book Title: Jain Siddhant Bhaskar
Author(s): Hiralal Professor and Others
Publisher: Jain Siddhant Bhavan

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Page 24
________________ १५४ भास्कर [भाग ४ यह मानना पड़ेगा कि ये दोनों 'राधो' के एक भाग 'वज-भूमि' में स्थित ‘पनित-भूमि' में सात वर्ष तक सोथ-साथ रहे। 'राधो' में भ्रमण करते हुए 'महावीर' ने अनेक संन्यासियों को हाथ में बाँस की फराठी लिये हुए देखा था। 'पाणिनि'-द्वारा वणित 'मस्करिण' नामक ये सन्यासी जैन आजीविक थे। अतएव यह पता लगता है कि 'महावीर' के समय में छठवीं शताब्दी के पूर्व में भी भाजीविक लोग पश्चिम बंगाल में अपना धर्म प्रचार कर रहे थे। अशोक और दशरथ आदि मौर्य सम्राटों ने भी समय समय पर इन आजीविकों को इनके प्रचार-कार्य में सहायता दी थी और 'नागार्जनि' एवं 'बाराबर' की गुफाओं से पता चलता है कि ईसा के ३०० वर्ष पूर्व के उत्तरीय भारत में इन आजीविकों के धर्मानुगामियों की कमी न थी। _ 'भगवती' में 'पुण्ड' देशांतर्गत 'महापौम' (महापद्म) के एक राजा का उल्लेख है। इनको आजीविकों का संरक्षक बतलाया गया है। 'पुण्ड' विन्ध्य पर्वत की तराई में बतलाया गया है। साथ ही साथ 'महापौम' की राजधानी में एक सौ सिंहद्वारों का होना कहा गया है। 'पुण्ड' के नाम से ही पता चलता है कि संभवतः यह 'पंडा' ही था और इसकी भौगोलिक स्थिति, जो कि 'विन्थ्य' पर्वत के पास बतलायी गयी है, नगण्य मानी जा सकती है। पुंड्रवर्द्धन अथवा आधुनिक फिरोजाबाद में एक निग्रंथ के दोष के कारण अशोक-द्वारा १८००० आजीविकों की हत्या किये जाने के वृत्तांत की सत्यता मानी जाय चाहे नहीं परन्तु यह तो स्पष्ट ही है कि यहाँ भी आजीविकों का एक बहुत बड़ा केन्द्र था। इन सबों से अधिक महत्त्व रखनेवाली बात यह हुई कि तत्कालीन लोगों ने आजीविकों को पहचाना ही नहीं और उन्हें ही निर्पथ समझ बैठे। उन दोनों के आपार, व्यवहार, रहनसहन तथा धर्मकायों में इतनी समानता थी कि लोगों को एक दूसरे के पहचानने में कठिनाई होने लगी। इसी कारण हमलोग मी डाकर वेणीमाधव बरुआ की ही सम्मति से सहमत हैं कि 'दिव्यावदान' के संपादन के समय निग्रंथों तथा आजीविकों के प्राचारविचार तथा सिद्धांतों में इतनी कम असमानता थी कि उन दोनों को पृथक् पृथक् पहचान लेना एक प्रवासी बौद्ध मिक्षुक के लिये कठिन था। दक्षिण भारत के आजीविकों की गणना तो जैन-ग्रंथकारों ने बौद्ध मिक्षुकों की हो एक संप्रदाय में की है। ऐसी अवस्था मे यह समझ लेना कि 'ह्यु एनचाँग' ने अनेक आजीविकों को ही जैनी समझ लिया कुछ अत्युक्ति न होगी; वरन् स्वामाविक ही होगा। अधिक अध्ययन करने से पता चलता है कि * आजीविक संप्रदाय जैनमत से भिन्न था, वयपि उसका निकास जैनमत से दो हुनासउसका संस्थापक एक समव जैन मुनि था।-संपादक + बंगाल में जैनधर्म के हास का एक कारण भने ही वह हो। परन्त बहनहीं कहा जसा कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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