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भास्कर
[भाग ४
कर उसके राज्यकाल (वि० सं० ८०१ से ८१६ तक ई० स० ७४४ से ७५९ ) में अकलङ्क को जीवित मानना ठोक बतलाया है तथा निष्कर्ष निकालते हुए अकलङ्कदेव का कार्य-काल संभवत: वि० सं० ८०१ से ८३९ तक ( ई०७४४ से ७८२ ) बतलाया है। ____ अपने मत के समर्थन में लेखक ने उक्त हेतु के अतिरिक्त अन्य ६ हेतु और भी सङ्कलित किये हैं, जो निम्न प्रकार हैं
२ स्वर्गीय भण्डारकर महोदय ने लिखा है कि जिनसेन ने अपने हरिवंश-पुराण (श० ७०५ = ई० ७८३ ) में सिद्धसेन, अकलङ्क आदि का उल्लेख किया है। अतः उससे पहले अकलङ्कदेव विद्यमान थे।
३ हरिवंशपुराण में आचार्य कुमारसेन का उल्लेख है और इन्हीं कुमारसेन का उल्लेख विद्यानन्द स्त्रामोने अपनो अष्टसहस्त्री-जो कि अकलङ्क को अष्टशती का ही भाष्य है के अन्तमें किया है। अतः इससे भी हमारे निष्कर्ष का समर्थन होता है ।
४ विद्वानों का कथन है कि अकलङ्कदेव ने बौद्धाचार्य धर्मकीर्ति के मत का खण्डन अपने ग्रन्थों में किया है। धर्मकीर्ति का समय ईस्वी सातवीं शताब्दी का प्रारम्भिक भाग माना जाता है। अतः इसके बाद आठवीं शताब्दी में अकलङ्कदेव का अस्तित्व मानना उचित है।
५ स्व० प्रो० पाठक ने प्रकट किया था कि कुमारिलभट्ट ने अपने 'इलोकवार्तिक' ग्रन्थ में अकलङ्क देव के 'अष्टशती' नामक ग्रन्थ पर कुछ कटाक्ष किये हैं, तथा कुमारिल अकलङ्क के कुछ समय बाद तक जीवित रहा था। कुमारिल का समय वि० सं० ७५७ से ८१७ तक ( ई. स. ७२० से ७६० ) निश्चित है। अत एव अकलङ्क का समय भी यही हो सकता है।
६ अकलंकचरित नामक ग्रन्थ में स्पष्ट कथन है कि शक सं० ७०० में अकलंकयति का बौद्धों के साथ महान् वाद हुआ था। इससे सिद्ध है कि शक सं० ७०० ( ई० ७७८) में अकलंक विद्यमान थे।
७ प्रो० पाठक, डा० विद्याभूषण, प्रो० राईस आदि विद्वानों ने अकलंक को ईस्वी आठवों शताब्दी का विद्वान् निश्चित किया है।
आलोचना सबसे पहले लेखक के प्रथम हेतु पर विचार न करके हम उसके सहायक हेतुओं पर विचार करेंगे, क्योंकि सहायक हेतुओं के बाधित होने पर प्रथम हेतु स्वयं ही निस्सार प्रतीत होने लगेगा।
२ अकलंक, जिनसेन के हरिवंशपुराण के पूर्ववर्ती हैं, इसमें तो किसी को विवाद नहों
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