Book Title: Jain Siddhant Bhaskar
Author(s): Hiralal Professor and Others
Publisher: Jain Siddhant Bhavan

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Page 39
________________ किरण ३ । महाकलंक का समय 'अकलंक का समय' शीर्षक अपने लेख में एक स्थल पर डाकर पाठक ने लिखा है कि अकलंक का समय इतना सुनिश्चित है कि उसको वजह से अकलंक के छिद्रान्वेषक कुमारिल को सातवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध या उत्तरार्द्ध का विद्वान नहीं माना जा सकता। इन शब्दों को पढ़ कर डाकर पाठक की इस असिद्व में प्रसिद्ध को सिद्ध करने की प्रणाली पर हमें कु अचरज अवश्य हुआ। अकलंक को साहमतंग दन्तिदुर्ग का समकालीन ठहराना कितने सुदृढ़ स्तम्भों पर अवलम्बित है यह हम दिख ना ही चुके हैं तथा आगे भी बतलायेंगे। उसके आधार पर कुमारिल को भी आठवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में घसीट कर ले आना किसी तरह भी उचित नहीं कहा जा सकता। वास्तव में अकलंक की तरह कुमारिल का समय निर्धारण करने में भी एक शताब्दो की भूल की गई है और इस भूल की वजह से डाकर पाठक से अन्य भी कई भूलें हो गई हैं, जैसे नालंदा बौद्ध विद्यापीठ के आचार्य तत्वसंग्रहकार शान्तरक्षित को नवौं शताब्दी का विद्वान बतलाना। शान्तरक्षित ने अपने तत्वसंग्रह में कुमारिल को बहुत सी कारिकाएँ उद्धन की हैं, अतः जब कुमारिल को आठवीं शताब्दी के उत्तरार्ध का विद्वान कहा जाता है तो शांतरक्षित को नवौं शताब्दी का विद्वान् कहना ही पड़ेगा। किन्तु यह शृङ्खला इतिहास से बाधित है। मुनि जिनविजयजी ने अनेक प्रमाणों के आधार पर हरिभद्रसूरि का समय ई० सन् ७०० से ७७० तक स्थिर किया है, क्योंकि ई. सन् ७७८ में रचित 'कुवलयमाला' में उनको स्मरण किया गया है। हरिभद्रसूरि ने अपने शास्त्रवार्ता-समुच्चय की स्वोपन-टीका में 'सूक्ष्मबुद्धिना शान्तरक्षितेन' लिखकर स्पष्टरूप में शान्तरक्षिन का नाम निर्देश किया है और शांतरक्षित ने अपने तत्वसंग्रह ग्रन्थ में कुमारिल की अनेक कारिकाएँ उद्धृत की हैं, अतः कुमारिल को सातवीं शताब्दी का विद्वान् मानना ही पड़ेगा। और जब डाकर पाठक के मतानुसार अकलंक की अष्टशती पर कुमारिल ने आक्षेप किये हैं और कुमारिल उनसे कुछ समय बाद तक जोवित रहे हैं तो अकलंक को भी सातवीं शताब्दी के मध्य का विद्वान मानना ही होगा। यदि उक्त चारां विद्वानों की औसत आयु ६० वर्ष मानी जाय तो उनके पारस्परिक सम्बन्ध का ध्यान रखते हुए उनका समय-क्रम इस प्रकार मानना होगा-अकलंक ई० ६२० से ६८० तक, कुमारिल ई०६४० से ७०० तक, शान्तरक्षित (क्योंकि उसने कुमारिल और उसके साक्षात् शिष्य उव्येयक उपनाम भवभूति का उल्लेख किया है) ई० ७०० से ७६० तक और हरिभद्र ई. ७१० से ७७० तक । ६ अकलंकचरित के श्लोक का अथ करने में तो लेखक महोदय ने कमाल कर दिया १ जैन साहित्य-संशोधक, भाग ,, अंक 1, में 'हरिभद मूरि का समम-निर्णय' शीर्षक लेख । २ देखें, तत्व-संग्रह की अंग्रेजी प्रस्तावना । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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