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भास्कर
[ भाग ४
है। आप के द्वारा उद्धृत श्लोक में 'शक' शब्द का कहीं नाम भी नहीं है, प्रत्युत 'विक्रमार्क' स्पष्ट लिखा है, फिर भी आपने उसका अर्थ शक सं० कर दिया है और इस तरह अकलंक के बौद्धों से शास्त्रार्थ करने के समय वि० सं० ७०० (ई० ६४३) के स्थान में शक सं० ७०० (ई० ७७८) लिख गये हैं, जो उनकी अकलंक को दन्तिदुर्ग का समकालीन सिद्ध करने की धुन में जानबूझ कर की गई भूल का परिणाम जान पड़ता है। अतः लेखक-द्वारा प्रदत्त इस प्रमाण से भी हमारे ही मत की पुष्टि होती है न कि लेखक के मत की।
'अकलंक का समय' शीर्षक डाकर पाठक के लेख का निर्देश हम ऊपर कर आये हैं और यह भी लिख आये हैं कि डाकर पाठक को अपने निर्धारित समय की सुनिश्चितता पर इतना दृढ़ विश्वास था कि उन्होंने उसके आधार पर कुमारिल को आठवीं और शान्तरक्षित को नवीं शताब्दी का विद्वान् मान लिया। उनके इस विश्वास का आधार था, प्रमाचन्द्र का प्रसिद्ध श्लोक "बोधःकोऽप्यसमः समस्तविषयः प्राप्याकलंक पदम्” आदि, जिसका अर्थ यह किया गया कि प्रभाचन्द्र ने अकलंक के चरणों के समीप बैठ कर ज्ञान प्राप्त किया था, और
* विक्रमार्कशताब्दीयशतसप्तप्रमाजुषि । कालेऽकलङ्कयतिनो बोद्धैर्वादो महानभूत् ॥
पं० जुगलकिशोर जी ने भी अपने 'समंतभद्र' (पृष्ठ १२५) में यह श्लोक उद्धृत कियाहै। किन्तु उसमें 'विकमार्कशकाब्दीय' पाठ है जो शुद्ध प्रतीत होता है। बाबु कामताप्रसाद जी ने भो अपने लेख के फुटनोट में इस बात का निर्देश किया है और पं० जुगल किशोर जी के अर्थ वि० सं० ७०. पर आपत्ति करते हुए लिखा है कि दक्षिण भारत के कई लेखों में शकाब्द का उल्लेख 'विक्रमार्क' शब्द से हुआ है। हुआ होगा, किन्तु यहाँ पर तो ऐतिहासिक घटना-क्रम से विक्रम सम्वत् की ही पुष्टि होती है। तथा इसका समर्थन लेखक की उस आशंका से भी होता है जो उन्होंने शक सं० ७०० के बारे में प्रकट की है। वे लिखते हैं "किन्तु इस अवस्था में कुमारिल का अकलंक के बाद तक जोवित रहना बाधित होता है। हमारे ख्याल से या तो कुमारिल के काल-निर्णय में कुछ गड़बड़ी है, अथवा अकलंक देव को कुमारिल के आक्षेप को देख कर उसके निरसन करने का अवसर नहीं मिला था।" हेतु नं०५ में डाक्टर पाठक के मत का उल्लेख और कुमारिल का सुनिश्चित समय वि० सं० २१७ तक लिखने के बाद भी निष्कर्ष निकालते हुए अकलंक के समय की अन्तिम अवधि ८३९ वि० सं० निर्णीत की गई और उस समय लेखक महोदय को अपनी उस भूल का ध्यान न आवा जिसे हम हेतु नं०५ को हेत्वाभास सिद्ध करते समय दरसा आये हैं। हर्ष है कि अकलंकचरित के 'विक्रमार्कशक' का अर्थ शकसम्वत् करते हुए उन्हें अपनी भूल ज्ञात हो गई और उससे उन्हें कुमारित के काल-निर्णय में कुछ गड़बड़ी मालूम दी। किन्तु हम ऊपर बता चुके हैं कि कुमारिल का काल-निर्णय कुछ नहीं बलिक सर्वथा गड़बड़ है और इस गड़बड़ी का मूल कारण अकलंक के काल-निणंव की गड़बड़ी है।
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