Book Title: Jain Siddhant Bhaskar
Author(s): Hiralal Professor and Others
Publisher: Jain Siddhant Bhavan

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Page 43
________________ किरण ३] भट्टाकलंक का समय १७३ - - के साथ-साथ अकलंक के सिद्धि-विनिश्चः, अन्य का भा उल्लख किया है और उसे दशन और ज्ञान के प्रभावक शास्त्रों में गिनाया है। इस उल्लेख से अकलंक को सातवीं शताब्दी के मध्यकाल का विद्वान मानने में कोई शंका अवशेष नहीं रह जाती। तथा अकलंक के ग्रन्थों पर से भी हमारे उक्त मत का समर्थन होता है। विद्वान् पोठकों से यह बात छिपी हुई नहीं है कि धर्मकीर्ति ने अपने पूर्वज दिङ्नाग के प्रत्यक्ष के लक्षण में 'अभ्रान्त' पद को स्थान दिया था। दिङ्नाग ने प्रत्यक्ष का लक्षण केवल 'कल्पनापोढ़' रक्खा था किंतु धर्मकीनि ने कल्पनापोढ़ और अभ्रांत रक्खा । अकलंक ने अपने राजवातिक में दिङ्नाग के लक्षण का खण्डन किया है और उस प्रकरण में जो दो कारिकाएँ उद्धृत की हैं, उनमें से एक दिङ्नाग के 'प्रमाण-समुच्चय' की है और दूसरी वसुबन्धु के अभिधर्मकोश की। इसके अतिरिक्त उसी प्रकरण में कल्पना का लक्षण करते हुए उसके पाँच भेद किये हैं। रशियन प्रो० चिरविस्टकी' (stcherbatsky) लिखते हैं कि दिङ्नाग ने कल्पना के पाँच भेद किये थे-जाति, द्रव्य, गुण, क्रिया और परिभाषा। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि अकलंकदेव ने राजवार्तिक को रचना अपने प्रारम्भिक जीवन में की थी, उस समय तक या तो धर्मकोति ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ प्रमाण-वातिक, प्रमाण-विनिश्चय आदि की रचना नहीं को थी या वे प्रकाश में नहीं आये थे। किन्तु उस समय भी अकलंक धर्मकीति से परिचित थे, क्योंकि उन्होंने राजवातिक पृष्ट १९ पर 'बुद्धिपूर्वा क्रियां दृष्ट्वा' आदि एक कारिका उद्धृत की है। कहा जाता है कि धर्मकीति के 'सन्तानान्तरसिद्धि' नामक प्रकरण की यह पहली कारिका है। इनिहासज्ञों ने धर्मकीनि का कार्यकाल ६३५ ई० से ६५० तक निर्णीत , दमणगाही - दसणणा गप्पभावगाणि सत्याणि सिद्धिवाणच्छयसंमदिमादि रोगहतो असंथरमाणे जं अकस्पियं पडिसेवति जमाते तस्थ सो सुद्धो अप्रायश्चित्ती भवतीत्यर्थः । २ प्रत्यक्ष कल्पनापोडं नाम नात्यादियोजना । असाधारणहेतुत्वादःस्तद् अपदिश्यते ॥:॥ ३ सवितर्कविचात हि पञ्च विज्ञानधातवः । निरूपणानुस्मरणविकल्पनविकल्पकाः ॥२॥ अभिधर्मकोश में 'विकल्पादविकल्पकाः' पाठ है। ४ बुद्धिस्ट लॉजिक, २य भाग, पृष्ठ २७२ पर फुटनोट नं० । __ न्यायवार्तिकतात्पर्यटोकाकार के उल्लेख से भी यह पता चलता है कि दिङ्नाग ने कल्पना के . पाँच भेद किये थे। यथा-"संप्रति दिग्नागस्य लक्षणमुपन्यस्वति । दूषयितुं कल्पनास्वरूपं पृच्छति अय केयमिति । लक्षणवादिन उत्तरं नामेति । यहच्छाशब्देषु हि नाम्ना विशिष्टोऽर्थ उच्यते वित्येति । जातिशब्देषु जात्या गौरयमिति । गुणशब्देषु गुणेन शुक्ल इति । क्रियाशब्देषु क्रियया पाचक इति अभ्यशब्देषु दन्येण वण्डो विषाणीति । सेयं कल्पना।" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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