Book Title: Jain Siddhant Bhaskar
Author(s): Hiralal Professor and Others
Publisher: Jain Siddhant Bhavan

View full book text
Previous | Next

Page 18
________________ -१४९ भास्कर [ माग १ आप को देशाटन करने को इच्छा हुई और आप प्रयाग पहुंचे। वहां अच्छा सत्संग पाकर आप रम गये। उस समय प्रयाग में श्री विधिचन्द्र हीगामल जी नामक अग्रवाल जैनी बहुप्रसिद्ध थे। हीगामल जी के पुत्र श्रीलाल जी थे। हमारे कवि को इनसे मित्रता हो गई। मित्रता इसलिये हुई कि श्रीलालजी उनकी नजर में 'परम धर्म की खानि' थे। उन्हीं के आग्रह से कवि महोदय ने 'अढाई द्वीप के पाठ' की भाषा-रचना पद्य में रची थी। उनकी उपलब्ध रचनाओं में यही सर्वप्राचीन है। बहुत संभव है कि यही उनकी पहली रचना हो, क्योंकि जब लालजी ने इस रचना का प्रस्ताव उनके सामने रखा था तो उन्होंने इसे दुष्कर जानकर अस्वीकार किया। परन्तु लाल जी ने उन्हें जिनेन्द्र आज्ञा लेनेके लिये कहा। संभवतः उन्होंने इस आज्ञा के लिये जिनेन्द्र-पासाकेवली का उपयोग किया। जिनआज्ञा मिल गईकमलनयन जी का उत्साह बढ़ गया उन्होंने 'अढ़ाई द्वीप का पाठ' रच दिया। इसे उन्होंने संवत् १८३ में संपूर्ण किया था। इस समय वह युवावस्था की प्रारंभिक चंचलता को पार करके प्रौढ़ता को प्राप्त हुए प्रतीत होते हैं। इसके बाद उनकी उपलब्ध रचनाओं में संवत् १८७३ की रची हुई (१) श्रीजिनदत्त-चरित्र और (२) श्रीसहस्त्रनाम पाठ नामक रचनायें मिलती हैं। उपमेत संवत् १८७६ में उन्होंने 'पंचकल्याणक-पाठ' रचा और संवत् १८७७ में 'वारॉग चरित्र' लिख कर समान किया था। अनुमान होता है कि प्रयाग आदि नगरों का देशाटन करके वह ३ वर्ष में लौटे होंगे और लौटने पर संवत् १८६७ में साहु धनसिंह जी के साथ सम्मेद-शिखर की यात्रा को चले गये। वहां से संवत् १८६८ में वह मैनपुरी आये । मैंनपुरी आने पर उन्होंने 'यात्रा-विवरण' लिखा। मालूम होता है कि फिर साहु श्यामलाल की संगति में रह कर उन्होंने 'जिनदान चरित्र' का ठीक-ठीक अर्थ समझा और संवत् १८७३ में . उसे रच कर समाप्त कर दिया। यह उन का संक्षिन परिच य है। उपर्युक्त यात्रा-विवरण पुस्तिका को देखने से पता चलता है कि साहु धनसिंह जी के नेतृत्व में मिती कार्तिक कृष्ण पंचमी बुधवार संवत् १८६७ को मैनपुरी से अनेक जैनियों का संघ या श्रीसम्मेदशिखरादि तीर्थों कोयात्रा-वंदना के लिये रवाना हुआ था। उस रोज मैनपुरी में जलेव ( रथयात्रा ) हुई थी। भगवान आदिनाथ जी की विधिचन्द्र नामा भले हाधर्मी इक अनि । तिन सुन होगामल जी कीरतिवंत महान ॥ तिनो सुत हैं लाल जी परमधर्म की खान। अधिक प्रीति हमसौं करें पुरब योग प्रधान ॥ एक समय बैठे हुते लालजीत हम दाय। उन विचार मन में किया जा सुनि अचरज होय ॥ सार्द्ध द्वीप-पाठ की भाषा सुगम सुढार। जो कीजै तौ है भली यहो सीव उरधारि ॥ तव हमनें उनसौं कहो सुनौ मित हम बान । यह कारज दुदर महा होय सकै क्यों भ्रात ॥ फिर उन हमसौं यों कही जिन श्रुत आज्ञा लेहु । जो शुभ आवे वचनवर तो यह काज करेहु ॥" . -प्रशस्त अदाई द्वीप का पाठ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122