Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha Part 2
Author(s): Vijaymurti M A Shastracharya
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
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जैन - शिलालेख संग्रह
मथुरा - प्राकृत |
[ विना कालनिर्देशका, मभवत. हुविष्कके २५ वे वर्षका ]
१ उचेनगरितो
तो अवस्य शिसिणि अब्रह्म
२. अवलत्रतस्य froयो असन्धिस्य परिग्रहे नवहस्तिस्य धिता ग्रहसेनस्य वधु
३. गिवसेनस्य देवसेनस्य शिवदेवस्य च भ्रात्रिन मातु जायये प्रतीमा प्र
४ [ मा ] नस्य सर्व्वसत्वान हितसुखय ॥
अनुवाद - अर्थ ब्रह्म (आर्य ब्रह्म ) [ और ] अर्थ बलव्रत ( आर्य बलत्रात ) के शिष्य अर्थ सन्धि ( आर्य सन्धि ) के ग्रहणके लिये उचेनगरि (उच्चनागरी) शाखाके अर्य चलत्रत ( आर्य वलन्नात ) की शिष्या, जयाने सब जीवोके कल्याण और सुखके लिये वर्धमानकी प्रतिमाकी प्रतिष्ठा की । यह जया नवहस्तीकी पुत्री, ग्रहसेनकी बहू तथा शिवसेन, देवसेन और शिवदेव इन तीन भाइयोकी माँ थी ।
[E], 11, n° XIV, n' 34]
३७
मथुरा - प्राकृत |
[हुविष्क वर्ष २९ ]
अ महाराज
ष्क्स स. २० ९ हे २ दि ३० अम क्षुणे भगवतो वर्धमानस प्रति [ मा] प्रतिष्ठापिता ग्रहह[थ ] स्य धितर सुखिताये वो धिनदि []
व. कुटुविनिये वारणे गणे पुश्यमित्रीये कुले गणिस अर्य [ दत्तस्य शिष्यस्य ] गह [] कि [व] स निर्वर्त [ना] अर[ह] तपुजाये ।