Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha 01
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 590
________________ प्रासपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख ४०१ कावेरी तीरद हुन्छ यहोलेयलु शल्यदुरुवं तीर्थदल्लि तम्म बसदियुम श्रीपालविद्यदेवगर्गे कैधारे येरेदु श्रीवीर-विष्णुवर्द्धनं कोट्टियूर सीमा सम्बन्धमेन्तेन्दोडे ( यहाँ सीमा का वर्णन है) इन्तीचतुस्सीमयिन्दोलगुलदं सर्वबाधापरिहारमागि बिट्ट को श्री वीरविष्णुवर्द्धनदेवं कोट्ट श्रीपाल विद्यदेवरु तम्म माडिसिद होयसल जिनालयक्के बिट्ट तलवृत्ति बेल्दले चूर मुन्दण हादरवालालगागि मत्तरु नाल्कु अत्तिकेरेयुम हिरियकेरेय केलगे गहे सलगे एलु तोण्ट आन्दु दाइगट्टद केरे वोलगागि चतुस्सीमेयुम बस दिगे माडि बिटु कोट्ट भूमि यिदर सीमे मृडलु केसरकेरेगिलिद मणल हल्ल तेङ्क होनमरके होद बट्टे हडुव हिरियकरेयोलगेरे बडग होन्नेमरक्के होद होलेय बढ़े। [चनरायपट्टन १४६] [इस लेख में होय्सल वंश के विनयादित्य, एरेयङ्ग और विष्णुवर्द्धन के प्रताप-वर्णन के पश्चात् कहा गया है कि विष्णुवर्द्धन पोरसलदेव ने उक्त तिथि को वस्तिों के जीर्णोद्धार तथा ऋषियों को श्राहारदान के लिए श्रीपालविद्यदेव को शल्य नामक ग्राम का दान दिया। श्रीपाल विद्यदेव द्रमिण संघ व अरुङ्गलान्वय के प्राचार्य थे। इस अन्वय की परम्परा इस प्रकार दी हुई है। महावीर स्वामी के पश्चात् गौतम गणधर हुए। फिर कई श्रुतकेवलियों के पश्चात् समन्तभद्र व्रतीप हुए। उनके पश्चात् क्रम से एकसंधिसुमति भट्टारक, वादीभासंह अकलङ्कदेव, वक्रग्रीवाचार्य, श्रीनन्द्याचार्य, सिंहनन्द्याचार्य, श्रीपाल भट्टारक, कनकसेन, वादिराजदेव, श्रीविजय, शान्तिदेव, पुष्पसेनसिद्धान्तदेव, वादिराज, शान्तिसेनदेव, कुमारसेन सैद्धान्तिक, मल्लिपण मलधारि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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