Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha 01
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 630
________________ लक्खणदेव २२२. लक्खन्दि, देवकीर्ति पं० दे० के शिष्य व वक्रगच्छ ५५, भू० १३३, १४६. वक्रग्रीव ५४, ४९३ भू० १३७, १३८. वज्रनन्दि ५४ भू० १३८. वडदेव ५५ भू० १३३. वर्धमानदेव ५३ भू० १५५. वर्धमानाचार्य भू० ७५. १३ ३९, ४० भू० ९६, १५७. लक्ष्मीसेन, राजकीर्ति के शिष्य ११९, भू० १६१. लक्ष्मीसेनभट्टारक २४७. ललितकीर्ति, अनन्तकीर्तिके शिष्य भू० ३४, ५८. विनीत १०५ भू० १२८. लोह ( लोहार्य ) १, १०५, भू० ६२, विमलचन्द्र ५४ भू० १३९. १२५, १२६, १२७. वलि १०५. वसुदेव १०५ भू० १२८. वसुनन्दि १०५. वादिकोलाहल ३, ५४, ४९३. वादिगण १०५. वादिचतुर्मुख उ० ४०. वादिराज ४९३, ४९४, ४९५, भू० ८३, ९९, १३७, १५८. वादिराज, मतिसागर के शिष्य ५४, भू० १३९, १४३. वादिसिंह उ० भू० १४१. वादीभ कण्ठीरव उ० ५४. Jain Education International वादीभसिंह ४९३. वायुभूति १०५ भू० १२५. वासवचन्द्र, चतुर्मुख देवके शिष्य, ५५ भू० ८३, १३३, १४३. विजय १०५ भू० १२६. विजयधवल ( ग्रंथ ) ४१३. विद्याधनञ्जय उ० ५४ भू० १३९. विद्यानन्द १०५. विशाख १, १०५ भू० ५७, ५९, ६१, ६.२, १२६. विशोक भट्टारक २०३ भू० १५२. विष्णु १०५ भू० ६०, ६२, १२५.. विष्णुदेव १, १२५. वीर १०५ भू० १२८. वीरनन्दि, मेघचन्द्रके शिष्य, ४१, ५०. वीरनन्दि, महेन्द्रकीर्तिके शिष्य, ४७, ५०. वीरसेन ४७, ५०. वृषभगण ४७, ५०. वृषभनन्दि ३१,५५, १८९ भू० १४९, १५१. वृषभप्रवर ९८. वृषभसेन ४३८. वेट्टेडेगुरु १९. वैद्यशास्त्र ( पूज्यपादकृत ) भू० १४२. श शब्दचतुर्मुख ५४ भू० ८३. शब्दावतारन्यास ( पूज्यपादकृत ) भू० . १४२. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662