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इतिवृत्तक,८९ श्रीमद्भागवत,१० श्रीमद्भगवद्गीता, मनुस्मृति,१२ आदि के साथ की जा सकती है। कहीं पर शब्दों में साम्य है तो कहीं पर अर्थ में साम्य है।
इसी तरह सूत्रकृतांग की तुलना दीघनिकाय के साथ, उपासक दशांग की तुलना दीघनिकाय के साथ, अन्तकृत् दशांग की तुलना थेर और थोरीगाथा के साथ राजप्रश्नीय की तुलना पायासीसुत्त के साथ, निशीथ की तुलना विनयपिटक के साथ और छेद सूत्रों की तुलना पातिमुख के साथ की जा सकती है ।
जैन और बौद्ध दोनों ही परम्पराओं में अनेकों शब्दों का प्रयोग समान रूप से हुआ है। उदाहरण के लिए हम कुछ शब्द-साम्य यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं।
निगंठ-निग्रन्थ, जो अन्तरंग और बहिरंग से मुक्त है। जैन परम्परा में तो श्रमणों के लिए 'निर्ग्रन्थ' शब्द हजारों बार व्यवहृत हुआ है। बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में भी जैन श्रमणों के लिए 'निर्ग्रन्थ' शब्द का प्रयोग हुआ है। श्रमण भगवान् महावीर के पुनीत प्रवचन को भी निर्ग्रन्थ प्रवचन कहा है। __ भन्ते-जैन और बौद्ध दोनों ही परम्पराओं में आदरणीय व्यक्तियों को आमंत्रित करने के लिए 'भन्ते' (भदन्त) शब्द व्यवहृत हुआ है ।१४
थेरे-दोनों ही परम्पराओं में ज्ञान, वय और दीक्षा पर्याय आदि को लेकर थेरे या स्थविर शब्द का व्यवहार हुआ है।९१ बौद्ध परम्परा में बारह वर्ष से अधिक वृद्ध भिक्षुओं के लिए थेर या थेरी शब्द का प्रयोग हुआ है। जैन परम्परा में भी एक मर्यादा निश्चित की गई है। जो स्वयं भी ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि में स्थिर रहता है और दूसरों को भी स्थिर करता है, वह स्थविर है । स्थविर को भगवान् की उपमा से अलंकृत किया गया है। गीता में 'स्थविर' के स्थान पर 'स्थितप्रज्ञ' का प्रयोग हुआ है। स्थितप्रज्ञ वह विशिष्ट व्यक्ति होता है जिसका आचार निर्मल और विचार पवित्र होते हैं ।
आउसो-जैन और बौद्ध दोनों परम्पराओं में समान या अपने से लघु व्यक्तियों के लिए 'आउस' ( आयुष्यमान् ) शब्द का प्रयोग हुआ है। तथागत बुद्ध को 'आउस गौतम' कहकर सम्बोधित किया गया है
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