Book Title: Jain Sahitya ke Vividh Ayam
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 20
________________ ( १८ ) दृष्टिविशुद्धि तभी तक है जब तक कि कांक्षावितरणविशुद्धि को प्राप्त नहीं होता। कांक्षावितरण विशुद्धि तब तक है जब तक मार्गामार्गज्ञान दर्शन विशुद्धि को प्राप्त नहीं होता। मार्गामार्गदर्शन विशुद्धि तब तक है जब तक कि प्रतिपद् ज्ञानदर्शन विशुद्धि की प्राप्ति नहीं होती। प्रतिपद्ज्ञानदर्शनविशुद्धि तब तक है जब तक कि ज्ञानदर्शनविशुद्धि को प्राप्त नहीं होता। ज्ञानदर्शनविशुद्धि तभी तक है जब तक कि उपादान रहित परिनिर्वाण को प्राप्त नहीं होता ।१३८ । ____ अजात-जन्मरहित, अनुत्तर-सर्वोत्तम योगक्षेम (मंगलमय) निर्वाण पर्येषणा करता है । २९ जैन और बौद्ध दोनों ही दर्शनों में निर्वाण की चर्चा है। दोनों ने निर्वाण के लिए सच्चा विश्वास, ज्ञान और आचार-विचार को प्रधानता दी है, पर दोनों में मुख्य अन्तर यह है कि बौद्ध दृष्टि से द्रव्य सत्ता का अभाव ही निर्वाण है जब कि जैन दृष्टि से आत्मा की शुद्ध अवस्था निर्वाण है। पुग्गल-पुद्गल शब्द का प्रयोग जैन और बौद्ध वाङ्मय के अतिरिक्त अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। भगवतीसूत्र में जीव तत्त्व के अर्थ में पुद्गल शब्द का प्रयोग हुआ है ।११० किन्तु जैन परम्परा में मुख्य रूप से पुद्गल वर्ण, गन्ध, रस, संस्थान और स्पर्श वाले रूपी जड़ पदार्थं को कहा है । बौद्ध परम्परा में पुद्गल का अर्थ आत्मा और जीव है ।। ३१ ___ विनय' शब्द का प्रयोग भी दोनों ही परम्पराओं में मिलता है। उत्तराध्ययन और दशवैकालिक सूत्र और ज्ञाताधर्मकथा में विनय की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए विनय को धर्म का व जिनशासन का मूल कहा है ।११२ बौद्ध साहित्य में सम्पूर्ण आचारधर्म के अर्थ में 'विनय' शब्द का प्रयोग हुआ है । विनय-पिटक में इसी बात का निरूपण किया गया है। - जैन परम्परा में 'अरिहन्त' 'सिद्ध' 'साधु' और केवली-प्रज्ञप्त धर्म को 'शरण' माना है ।।११ तो बौद्ध परम्परा में बुद्ध संघ और धर्म को 'शरण' कहा गया है । १३४ जैन परम्परा में चार शरण हैं और बौद्ध परम्परा में तीन शरण है। जन परम्परा में तीर्थकर, चक्रवर्ती, इन्द्र आदि पुरुष ही होते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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