Book Title: Jain Sahitya ke Vividh Ayam
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

View full book text
Previous | Next

Page 32
________________ ( ३० ) - तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ के अनेक जन्मजन्मान्तरों का समावेश नहीं हो सका है । कथावस्तु बहुत ही संक्षिप्त है। पोदनपुर के नृपति अरविन्द द्वारा - बहिष्कृत कमठ सिन्धुतट पर तपस्या कर रहा था । उसी समय भ्रातृप्रेम के कारण कमठ का अनुज मरुभूति उसके पास गया । किन्तु क्रोधावेश में • आकर कमठ ने उसे मार डाला । अनेक जन्मों में यहीं चक्र चलता रहता है । अन्तिम जन्म में कमठ शम्बर और मरुभूति पार्श्वनाथ बनता है । पाश्र्वनाथ को साधना से विचलित करने के लिए शम्बर अनेक उपसर्ग करता है, पर पार्श्वनाथ विचलित नहीं होते । धरणेन्द्र देव और 'पद्मावती देवी आकर पार्श्वनाथ के उपसर्ग दूर कर देते हैं । अन्त में पार्श्वनाथ केवलज्ञान को प्राप्त करते हैं और इस घटना को देखकर शम्बर भी पश्चाताप करता हुआ क्षमायाचना करता है । इस काव्य में शम्बर यक्ष के रूप में, राजा अरविन्द कुबेर के रूप में और पार्श्वनाथ मेघ के रूप में चित्रित जान पड़ते हैं । काव्य में धार्मिक प्रतिपादन कुछ भी नहीं किया गया है। इस काव्य में मेघदूत की शृङ्गार रस की पंक्तियों का शान्तरस में परिवर्तन जिनसेन जैसे परिनिष्ठित कवि द्वारा ही संभव हो सका है । पाश्वभ्युदय की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि जिनसेन सेनसंघ के आचार्य वीरसेन के शिष्य और राष्ट्रकूटनरेश अमोघवर्ष के समकालीन "थें । " पाश्वभ्युदय की सगन्तिपुष्पिका में जिनसेन को अमोघवर्ष का गुरु कहा गया है । " आचार्यं जिनसेनकृत महापुराण ( आदिपुराण) के पूरक उत्तरपुराण के रचयिता आचार्य गुणभद्र ने उत्तरपुराण की प्रशस्ति में अमोघवर्ष को जिनसेन का भक्त चित्रित किया है । अमोघ - वर्ष का राज्यकाल ८१५-८१७ ई० माना जाता है । अतः जिनसेन का - समय इससे कुछ पूर्वं होना चाहिए । शकाब्द ७०५ ( ७८३ ई० ) में रचित हरिवंशपुराण में जिनसेनाचार्य ने पाश्वभ्युदय के रचयिता जिनसेन का उल्लेख किया है ।' डाक्टर ज्योतिप्रसाद जैन का मत है कि राजा अमोघवर्ष का जिनसेन से लड़कपन से ही सम्पर्क था ।" इस प्रकार अन्तः एवं बाह्य साक्ष्यों के आधार पर पाश्वभ्युदय का रचनाकाल ईसा को आठवीं शताब्दी मानना आपत्तिजनक नहीं है । पाश्वभ्युदय काव्य पर योगिराज की संस्कृत टीका मिलती है । बोधिका नाम की इस टीका में पाश्वभ्युदय की अत्यन्त प्रशंसा की गई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90