Book Title: Jain Sahitya ke Vividh Ayam
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 62
________________ ( ६० ) । 1 - सूत्र का उल्लेख किया है इसके द्वारा दधी + अत्र = दधिअत्र, दध्यत्र: नदी + एषा = नदिएषा, नद्येषा आदि रूप सिद्ध होते हैं । पाणिनि में ह्रस्व विधान का नियम नहीं है । यह शाकटायन की अपनी उद्भावना है । शाकटायन ने प्रकृतिभाव सन्धि को निषेध सन्धि कहा है । उ इति, विति; तथा ऊं इति इन रूपों की साधनिका के लिए पाणिनि ने 'उन' (१|१|१७) तथा 'ॐ' (१|१|१८) ये दो सूत्र लिखे हैं, शाकटायन ने उक्त रूपों को सिद्धि 'ऊंचोत्र : ' (१|१|१०४) सूत्र द्वारा -कर दी है । उपैति उपेधते, प्रष्ठोहः, इन प्रयोगों की सिद्धि के लिए पाणिनि ने 'एत्येधत्यूट्स' (अ० ६ | १|८९ ) सूत्र लिखा है । शाकटायन ने इस स्थल पर 'एजूच्यैच् (१|१|८३) सूत्र बनाकर सर्वत्र वृद्धि प्राप्त स्थलों पर प्रत्या-हार के द्वारा ही कार्य सम्पन्न कर लिया है । यहाँ शाकटायन ने महत्लाघवपूर्ण दृष्टि का आश्रय लिया है । 'इ इन्द्रं पश्य', 'उ उत्तिष्ठ' आदि प्रयोगों में पाणिनि ने 'निपात एकाजनाङ् (अ० १|१|१४) सूत्र से प्रगृह्य संज्ञा का विधान कर प्लुत प्रगृह्या अचि नित्यम्' (अ० ६ | १|१२३) सूत्र से प्रकृति भाव किया । शाकटायन ने 'चादेरचोऽनाङ् ' (१|१|१०१) सूत्र द्वारा ही उक्त प्रयोगों की सानिका प्रदर्शित की है । निषेध सन्धि के अनन्तर ही शाकटायन ने द्वित्व सन्धि का विधान किया है । पाणिनीय तन्त्र में द्वित्व सन्धि पृथक प्रकरण नहीं है, प्रायः अच् सन्धि से लेकर विसर्ग पर्यन्त द्वित्वविधि उपलब्ध होती है । यथा --- पाणिनीय व्याकरण में 'प्रत्यङ्ङात्मा', 'कृङ्ङास्ते' आदि प्रयोग सिद्धि के लिये 'ङमो ह्रस्वाद चिङमुनित्यम्' (अ० ८ ३/३२) सूत्र द्वारा ङमुटागमकर उक्त रूप सिद्ध किये हैं किन्तु शाकटायन ने 'ह्रस्वान्ङमः पदान्ते' (१|१|१२३) सूत्र से द्वित्वविधि स्वीकार की है । शाकटायन और पाणिनि की हल् सन्धि प्रायः समान है किन्तु कहींकहीं प्रयोगों की सिद्धि में भिन्न-भिन्न साधनिका प्रदर्शित है । शाकटायन ने' सम्राट' शब्द की सिद्धि 'सम्राट' (१|१|११३) सूत्र द्वारा की है । यहाँ पर शाकटायन ने मकार निपातन से ही ग्रहण कर लिया है जब कि पाणिनि ने 'मो राजि समः क्वी' (अ० ८ |३|२५) सूत्र में इसकी प्रक्रिया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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