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'देसलहरा ' वंश विशेष है । उसी वंश में शिवशंकर की पत्नी देवलदे ने सं० १५१६ चैत्र शुक्ला अष्टमी के दिन उपकेशगच्छीय वाचनाचार्य वित्तसारजी को सुवर्णाक्षरी कल्पसूत्र समर्पित किया था । उसमें प्राप्त प्रशस्ति के अनुसार 'देसल' वंश का उल्लेख इस प्रकार है
सहज
साहण
नायंद
1
आजड
1 सुलक्षण
समर
साजह
सत्य डुंगर सालिग स्वर्णपाल सज्जन
उपर्युक्त समर और सहज के पुत्र सारंग का निवासस्थान दिल्ली था । साहण और सज्जन ने वाणिज्य के हेतु खंभात में निवास किया था । शंखेश्वर की यात्रा के समय कोचर के व्यवहार से प्रभावित देपाल ने खंभात में साहण के सम्मुख कोचर की प्रशंसा की। ईर्ष्या- प्रेरित साहण ने कोचर को कैद करवाया । शत्रुंजय यात्रा से लौटते समय जब देपाल खंभात आये तब उक्त समाचार से व्यथित हुए । उन्होंने साहण की आँखें खोलने के लिए इस प्रकार कवित्त बनायाः
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वली लहुचरि केरा पूजारा हरषई मनह मझारि । जीव हणाइ घणा महिषादिक तेह तणउ नहीं पार | कोचर साहमीवच्छल कीधउं तंइ कुउवंत जि वारि । बारे गामे अवली मूठि राहवी पलइ अमारि ॥ अर्थात् कोचर का अमल नष्ट होने से मंदिर के पुजारी अत्यन्त हर्षित हैं । अब महिषादि का वध होने लगा है । तेरे प्रताप से बारह गाँवों में 'उलटी मूठ' से अहिंसा का पालन हो रहा है ।
लज्जित हो साहण ने पुनः कोचर को कैद से मुक्त करवाया और देपाल को दान दिया ।
प्रस्तुत रास में देपाल को याचक बताया गया है । किन्तु कोचर ने
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