Book Title: Jain Sahitya ke Vividh Ayam
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 82
________________ ( ८० ) अनुसार आयुर्नेद का मूल प्राणावाय पूर्ण यही है । इसी के अनुसार अथवा इसी के आधार पर परवर्ती आचार्यों ने वैद्यकशास्त्र का निर्माण अथवा आयुर्वेद विषय का प्रतिपादन किया है। जैनागम के अन्तर्गत प्रतिपादित प्राणावाय पूर्व का निम्न लक्षण बतलाया गया है-कायचिकित्साद्यष्टांग आयुर्वेदः भूतकर्मजांगुलिप्रक्रमः प्राणापानविभागोऽपि यत्र विस्तरेण वर्णितस्तत्प्राणावायम्'। । अर्थात् जिस शास्त्र में काय, तद्गत दोष तथा चिकित्सा आदि अष्टांग आयुर्वेद का वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया हो पृथ्वी आदि महाभतों की क्रिया, विषैले जानवर और उनके विष की चिकित्सा आदि तथा प्राणापान का विभाग जिसमें किया गया हो उसे 'प्राणावाय' पूर्व शास्त्र कहते हैं। द्वादशांग के अन्तर्गत निरूपित प्राणावाय पूर्व नामक अंग मूलतः अर्धमागधी भाषा में लिपिबद्ध है, इस प्राणावाय पूर्व के आधार पर ही अन्यान्य जैनाचार्यों ने विभिन्न वैद्यक ग्रन्थों का प्रणयन किया है। श्री उग्रादित्याचार्य ने भी प्राणावाय पूर्व के आधार पर कल्याणकारक नाम के वैद्यक ग्रन्थ की रचना की है। इस तथ्य का उल्लेख आचार्य श्री ने स्थानस्थान पर किया है, इसके अतिरिक्त ग्रन्थ के अन्त में उन्होंने स्पष्ट रूप से लिखा है सर्वार्धाधिकमागधी विलसभभाषापरिशेषोज्वल प्राणावायमहागमादवितथं संगृह्य संक्षेपतः । उग्रादित्यगुरुर्गुरुगुणैरुद्भासिसौख्यास्पदम् । शास्त्रं संस्कृतभाषया रचितवानित्येष भेदस्तयोः ।। कल्याणकारक, अ० २५ श्लो० अर्थात् सम्पूर्ण अर्थ को प्रतिपादित करनेवाली सर्वार्ध मागधी भाषा में जो अत्यन्त सुन्दर प्राणावाय नामक महागम महाशास्त्र है उसे यथावत् संक्षेप रूप से संग्रह कर उग्रादित्य गुरु ने उत्तमोत्तम गुणों से युक्त सुख के स्थानभूत इस शास्त्र की संस्कृत भाषा में रचना की। इन दोनों--प्राणावाय अंग और कल्याणकारक में यही अन्तर है। इस प्रकार जैनागम में आयुर्वेद या वैद्यकशास्त्र की प्रामाणिकता प्रतिपादित है, और आयुर्वेद जिसे जैनागम में प्राणावाय की संज्ञा दी गई है, द्वादशांग का ही एक अंग है । जैन वाङ्मय में द्वादशांग की. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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