Book Title: Jain Sahitya ke Vividh Ayam
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 83
________________ प्रामाणिकता सर्वोपरि है। अतः तदन्तर्गत प्रतिपादित प्राणावाय की प्रामाणिकता भी स्वतः सिद्ध है, इस प्रकार जिस अष्टांग परिपूर्ण वैद्यकशास्त्र को इतर आचार्यो', महर्षिों ने आयुर्वेद की संज्ञा दी है उसे जैनाचार्यों ने प्राणावाय की संज्ञा दी है। __ संस्कृत साहित्य की श्रीवृद्धि में जैनाचार्यों ने अपना जो महत्त्वपूर्ण योगदान किया है वह सुविदित है । संस्कृत साहित्य का ऐसा कोई विषय या क्षेत्र नहीं बचा है जिस पर जैनाचार्यो ने अपनी लेखनी न चलाई हो। इसका मुख्य कारण यह है कि जैनाचार्य केवल एक विषय के ही अधि. कारी नहीं थे, अपितु वे प्रत्येक विषय में निष्णात थे, अतः उनके विषय में यह कहना सम्भव नहीं था कि वे किस विषय के अधिकृत विद्वान् हैं अथवा उनका अधिकृत विषय कौन-सा है ? जैनाचार्यों ने जिस प्रकार काव्य, अलंकार, कोष, छंद, न्याय, दर्शन व धर्मशास्त्रों का निर्माण किया उसी प्रकार ज्योतिष और वैद्यक विषय भी उनकी लेखनी से अछते नहीं रहे । उपलब्ध अनेक प्रमाणों से अब यह स्पष्ट हो चुका है कि जैनाचार्यों ने प्रचुर मात्रा में स्वतन्त्र रूप से वैद्यक ग्रन्थों का निर्माण कर आयुर्वेद साहित्य की श्रीवृद्धि में अपना अभूतपूर्व योगदान किया है । इस सम्बन्ध में विभिन्न स्रोतों से एक लम्बी सूची तैयार की गई है जिससे जैनाचार्यों द्वारा लिखित वैद्यक सम्बन्धी अनेक कृतियों का संकेत मिलता है । इनमें से कुछ कृतियां मूल रूप से प्राकृत भाषा में लिपिबद्ध हैं और कुछ हिन्दी में पद्यमय रूप में । कन्नड़ भाषा में भी अनेक जैन विद्वानों ने आयुर्वेद के ग्रन्थों का प्रणयन कर जैनवाङ्मय को परिपूर्ण किया है। जिन जैनचार्यों ने धर्म-दर्शन-न्याय-काव्य-अलंकार आदि विषय को अधिकृत कर विभिन्न ग्रन्थों का प्रणयन किया है उन्हीं आचार्यों ने वैद्यक शास्त्र का निर्माण कर अपनी अलौकिक प्रतिभा का परिचय दिया है। प्रातःस्मरणीय पूज्यपाद स्वामी, परमपूज्य स्वामी समन्तभद्र, आचार्य जिनसेन गुरु वोरसेन, गुणसागर श्री गुणभद्र, महर्षि सोमदेव, सिद्धवर्णी रत्नाकर तथा महापंडित आशाधर आदि जैनाचार्यों की विभिन्न कृतियों पर जब हम दृष्टिपात करते हैं तो देखकर महान् आश्चर्य होता है कि किस प्रकार उन्होंने अनेक विषयों पर अपनी अधिकारपूर्ण लेखनी चलाकर अपनी अद्भुत विषयप्रवणता और विलक्षण बुद्धि वैभव का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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