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( ७७ ) काव्यकार ने अपने व्याकरण के ज्ञान का परिचय देने की पद-पद पर कोशिश की है। पदलालित्य और प्रसाद गुण की दृष्टि से विक्रम-कवि का नेमिदूत एवं चरित्रसुन्दरगणि का शीलदूत कहीं अधिक उत्कृष्ट रचनाएं हैं। फिर भी जैन-साहित्य में यह रचना अपना एक विशिष्ट स्थान रखती है।
इस प्रकार जैन कवियों ने अपने सन्देश-परक दूत-काव्यों में निश्चित रूप से पाठकों के लिए कुछ विशिष्ट सन्देश दिया है। शृंगार-परक सन्देश काव्यों का शान्त-रस में पर्यवसान कर तथा श्रीनेमिनाथ और स्थलभद्र जैसे महापुरुषों को अपने काव्यों का नायक बनाकर इन कवियों ने पाठकों के समक्ष शान्त-रस का आदर्श उपस्थित किया है। यह शान्तरस ही है जो तृष्णाओं का क्षय करता है, मनुष्यों को मानव-धर्म की स्मृति कराता है और मानव हृदय में इस 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' की भावना उत्पन्न करता है। संसार में विश्व-प्रेम की भावना ऐसे ही साहित्य से फैलती है। इस प्रकार जैन-मनीषियों के सन्देश-काव्यों में त्याग-प्रधान जीवन का अति गूढ सन्देश छिपा हुआ है।
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