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धन्या मन्ये जलधर ! हरेरेव भार्याः स याभिदृष्टो दृग्भिः परिजनमनश्छन्दवृत्त्यापि खेलन् । कस्माज्जज्ञे पुनरियमहं मंदभाग्या स्रिचेली
यां तस्यैवं स्मरणमपि हा ! मूर्च्छनाप्त्या लभे न ॥२॥२४॥ नेमिनाथ के चरित्र वर्णन के बाद अन्त में राजीमती फिर अपनी दीनावस्था का वर्णन करती है
प्राग्निर्दग्धं दिनदिननवतीववर्षेजशुष्मप्रख्यासौख्ये जगदिनजगज्जीवनापानपीनम् । सम्प्रत्युष्णोच्छ्वसितवशतो वाष्पधूमायमानं
स्फोट स्फोट हृदयमिदकं चूर्णखण्डीयतेस्म ॥४७॥ राजीमती समस्त विरहियों के शोक को सावसान मानती है । वह कहती है कि रात्रि में चकवा-चकवी . का वियोग हो जाता है, पर प्रातःकाल पुनः संयोग हो जाता है, चकोरी का चन्द्र से दिन में वियोग होता है । पर रात्रि होते ही संयोग हो जाता है, पर मेरा यह वियोग अन्तहीन है
कोकी शोकाद्वसतिविगमे वासरान्ते चकोरी, शीतोष्णप्रशमसमये मुच्यते नीलकण्ठी। त्यक्ता पत्या तरूणिमभरेकञ्चकश्चक्रिणेवाड
मत्रं वारां हृद इव शुचामाभवं त्वाभवं भोः ।।४।१।। राजीमती नेमिकुमार के प्रति अपना सन्देश भेजती हुई कहती है
यां क्षौरेयीमिव नवरसां नाथ वीवाहकाले, सारस्नेहामपि सुशिशियं नाग्रही: पाणिनापि। सा कि कामानलतपनतोऽतीव वाष्पायमाणा
नन्योच्छिष्टा नवरुचिभृताप्यद्य न स्वीक्रियेत्।।४।१७।। राजीमती अनेकों तर्क प्रस्तुत करती है नेमिकुमार के सामने अपने सन्देश में
प्रागुद्वाहं स्वजनजनितेनाग्रहेणानुमेने, संचेरेऽन्तर्गुरुपरिजनं पीलुना चोपयन्तुम् । द्वारात्प्रत्यावृतदथ भवान् कुकदस्यापि शावो
गर्यतैवं गुणगणनिधे ! नो चतुर्हायणोऽपि ॥४॥१८॥ यदि आपको छोड़ना ही था तो प्रथम मुझे स्वीकार ही क्यों किया? आप पशु-पक्षियों पर दया करते हैं परन्तु मुझ भक्त को सन्तुष्ट नहीं करते ।।
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