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मेरुतुङ्ग के जैनमेघदूत का एक समीक्षात्मक अध्ययन
श्री रविशंकर मिश्र (शोधछात्र) दूतकाव्य विधा के साहित्य ने संस्कृत-साहित्य में गीति-काव्य ( Lyric Pcetry ) के अभाव की पूर्ति की है। दूत-काव्य विरह या विप्रलम्भ शृङ्गार की पृष्ठभूमि लेकर लिखे गये हैं। इनमें नायक द्वारा नायिका के प्रति या नायिका द्वारा नायक के प्रति किसी दूत के माध्यम से भेजा गया सन्देश चित्रित होता है। दूत का कार्य कोई पुरुष, पक्षी, भ्रमर, मेघ, पवन, चन्द्रमा, मन या शील आदि तत्त्वों से कराया जाता है।
इस शैली में दो तत्त्व देखे जाते हैं-एक वियोग और दूसरा प्रकृति या भावना का मानवीकरण । यद्यपि प्रसंगवशात्, दूत-काव्यों में नगर, पर्वत, नदी, सूर्योदय, चन्द्रोदय, रात्रि, वसन्त, जलक्रीड़ा आदि का वर्णन रहता है; पर वह इतना संक्षिप्त होता है कि काव्य बड़े आकार का बन ही नहीं पाता है। इसीलिए इन्हें गीति-काव्य के साथ ही खण्ड-काव्य भी कहते हैं।
वैसे तो भावनाक्रान्त मानस द्वारा प्राणि विशेष को दूत बनाकर प्रेयसी के पास सन्देश भेजने की सूझ प्राचीन साहित्य में भी मिलती है, जैसे- सरमा-पणि सम्वाद ( ऋग्वेद १०८।१०८११-११०)। पर, महाकवि कालिदास का मेघदूत इसका अनोखा उदाहरण है। संस्कृत के दूतकाव्यों की रचना में यही मेघदूत सबसे अग्रणी है। बाद के दूत काव्यों की रचना में उक्त काव्य से सहायता ग्रहण करने के स्पष्ट संकेत मिलते हैं। कालिदास ने मेघ-संदेश में काव्य का जैसा विभाजन एवं कथावस्तु का जैसा तारतम्य रखा है, वह इतना मनोवैज्ञानिक है, व्यवस्थित है कि बाद में सभी काव्यों में उसका पूर्णतया अनुकरण किया गया है । कालि-. दास ने अपने सन्देश-काव्य द्वारा सन्देश-काव्यों का एक नवीन ही शिल्प-विधान निर्धारित कर दिया जो आगे चलकर परवर्ती कवियों
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