Book Title: Jain Sahitya ke Vividh Ayam
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

View full book text
Previous | Next

Page 61
________________ प्रकार सूत्र बनाकर णकार के दो बार आने की समस्या का हमेशा के लिए निराकरण कर दिया है। यहाँ पर शाकटायन जैनेन्द्र की अपेक्षा चान्द्र से अधिक प्रभावित हैं। __शाकटायन के प्रत्याहार सूत्रों में इसके अलावा विशेषता यह है कि उनमें 'झमञ्' और 'घढ़धष्' सूत्र को पृथक्-पृथक् नहीं रखा गया है, किन्तु 'झभघढवष्' एक ही सूत्र बनाकर वर्गों के चतुर्थ वर्णों को एक ही सूत्र में संकलित कर दिया है तथा वर्गों के प्रथम वर्गों के ग्रहण के लिए पाणिनि के 'खफछठकचटतव' सूत्र को तोड़कर 'चटत' पृथक सूत्र कर दिया है। पाणिनीय वर्णसमाम्नाय की तरह शाकटायन में भी हकार दो बार आया है। पाणिनीय व्याकरण में ४१, ४३, ४४ प्रत्याहार रूप प्राप्त होते हैं किन्तु शाकटायन में मात्र ३८ प्रत्याहार ही उपलब्ध हैं। पाणिनीय तन्त्र में 'अच् सन्धि', 'हल सन्धि', 'विसर्ग सन्धि' और 'स्वादि सन्धि' ये चार सन्धियाँ स्वीकार की गई हैं, किन्तु शाकटायन तन्त्र में 'अच् सन्धि', 'निषेध सन्धि', 'द्वित्व सन्धि', 'हल सन्धि' और 'विसर्जनीय सन्धि' ये पांच सन्धियाँ हैं। दोनों व्याकरणों में सर्वप्रथम अच् सन्धि का ही विधान किया गया है। किन्तु प्रयोगों के आधार पर कहीं-कहीं विषमता दिखलाई पड़ती है। शाकटायन ने 'न' (शा० ११११७०) सूत्र द्वारा विराम में सन्धि कार्य का निषेध किया है, एवं अविराम सन्धि का विधान मानकर 'न' सूत्र को अधिकार सूत्र स्वीकार किया है। अच् सन्धि के प्रारम्भ में सर्वप्रथम शाकटायन ने अयादि सन्धि का विधान किया है। पाणिनि में इस सन्धि के लिए 'एचोऽयावायावः' ( अ० ६.१ ७८) सूत्र है जो शाकटायन के 'एचोऽच्ययवाया' (शा० १११७१) सूत्र के तुल्य है। इसके उपरान्त शाकटायन ने 'अस्वे' (११११७३) सूत्र द्वारा यण सन्धि का विधान किया है। जो पाणिनि के 'इको यणचि' (अ० ६।१। ७७) के समान है । इन स्थलों पर दोनों व्याकरणों का समान भाव है। शाकटायन ने गुण सन्धि में ऋ के स्थान पर अर् और लू के स्थान अल किया है। पाणिनि को इसी कार्य के पृथक् 'उरणरपरः' (अ० ११॥ ५१) सूत्र लिखना पड़ा है। इस स्थल पर शाकटायन ने एक सूत्र की बचत कर 'इम्येङर' (शा० ११११८२) सूत्र में ही उक्त कार्य को सिद्ध कर दिया है। शाकटायन ने यण् सन्धि के प्रसङ्ग में 'ह्रस्वोवाऽपदे' (११११७४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90