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( ५६ ) पाणिनि और शाकटायन में प्रयुक्त संज्ञाओं के पारिभाषिक शब्द अधिकांश समान हैं । यथा-संख्या, युव, धातु, अव्यय, अनुनासिक, विभक्ति, समास, संयोग, कर्म, उपसर्ग इत्यादि । परन्तु कहीं-कहीं पर शाकटायन ने नये पारिभाषिक शब्दों का भी प्रयोग किया है। यथापाणिनि के अङ्ग के लिए प्रकृति, अधिकरण के लिए आधार, वृद्ध के लिए दु, प्रगृह्य के लिए निषेत्र, सवर्ण के लिए स्व, गति के लिए ति, तद्राज के लिए वि, घ के लिए ङ, गोत्र के लिए वद्ध, अवसान के लिए विराम, प्रथम के लिए अन्य, मध्यम के लिए युष्मद्; उत्तम के लिए अस्मद् तथा एकवचव; द्विवचन, बहुवचन के स्थान पर एक, द्वि, बहु, आदि को रखा है। इसके अतिरिक्त शाकटायन ने पाणिनि को कर्मप्रवचनीय, प्रातिपदिक, षड्, संहिता और सत् आदि संज्ञाओं को परिभाषाओं को बिल्कुल ही छोड़ दिया है।
स्वर और व्यञ्जन विधान. संज्ञाओं के विवेचन के अनन्तर शाकटायन ने पद, इत्, आख्या, उपसर्ग, घि, वाम्य आदि संज्ञाओं का बहुत ही लाघवपूर्ण दिवेचन किया है। पाणिनीय व्याकरण में इस प्रकार के विवेचन का अभाव प्रतीत होता है। पाणिनि तो वाक्य और आख्या संज्ञाओं की परिभाषा देना ही भूल गये। परवर्ती वैयाकरण कात्यायन ने इस भूल को सुधारने का प्रयास किया है। किंतु उन्होंने वाक्य की जो परिभाषा “एक तिङ् वाक्यम्" की है वह भी अधूरी ही प्रतीत होती है । लेकिन शाकटायन ने 'तिङा वाक्यम्" (शा० १।१।६१) ऐसा सूत्र बनाकर वाक्य की स्पष्ट परिभाषा कर दी है तथा इसी सूत्र को अमोघवृत्ति में "इह साक्षात् पारम्पर्येण वातिङन्तस्य विशेषणं प्रयुज्यमानभप्रयुज्यमान वा तेन तिङन्तेन प्रयुज्यमानेनाप्रयुज्यमानेन वा सह वाक्यं भवति" ऐसा अर्थ कर और ही सुस्पष्ट कर दिया है। एवं पाणिनीय के येनांग विकार' (अ० २।३।३०) तथा 'तृतीया विधाने प्रकृत्यादिभ्यः उपसंख्यानम्' वार्तिक का निवेश करके 'यभेदैस्तद्वदाख्या' (शा० ११३।१३० ) सूत्र रचकर आख्या संज्ञा की परिभाषा देकर अपनी मौलिकता प्रर्दाशत की है। यद्यपि पाणिनी ने 'क्तादल्पाख्यायाम्' (अ० ४।१।५१), "वैयाकरणख्यायां चतुर्थाः" ( अ०६।३७ ) आदि सूत्रों में आख्या शब्द का प्रयोग अवश्य किया है।
पाणिनि ने 'उपदेशेऽजनुनासिकइत्' (अ० १।३।२); 'हलंत्यन्'
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