Book Title: Jain Sahitya ke Vividh Ayam
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
View full book text
________________
( ५४ ) महर्षि पाणिनि ने जिन सूत्रों में अपने पूर्ववर्ती जिन आचार्यों का नामोल्लेख किया है, उनके शाकटायन व्याकरण में अधोलिखित तुलनात्मक सूत्र हैंपाणिनी
शाकटायन लङः शाकटायनस्यैव (३।४।१११) आद्विषो झेर्जुस् वा (१।४।१०६) व्योलघु प्रयत्नतरः शाकटायनस्य अच्यस्पष्टश्च (१।१।१५४)
(८।३।१८) त्रिप्रभृतिषु शाकटायनस्य न संयोगे (१।१।११९)
(८।४।४९) वा सुप्यापिशलेः (६।११९२) सुपि वा (१।१९२) अड् गायेगालवयोः (७।३।९९) ईट् चाजश्रुद्भ्यः (४।२।२९) इको ह्रस्वोऽङ्यो गालवस्य . वेकोऽनीशङीयुध्यत्रः (२२८२)
६३।६१) ई चाक्रवर्मणस्य (६।१२१३०) नप्लुतस्यानितौ (१।१।९९) ऋतो भारद्वाजस्य (७।२।६३) ऋतः (४।२।१९१) इकोऽसवणे शाकल्यस्य ह्रस्वश्च ह्रस्वो वाऽपदे (१।११७४)
(६।१।१२३) संबुद्धौ शाकल्यस्येतावना सौ वेतौ (१।१।१०३)
(१।१।१६) गिरेश्च सेनकस्य (५।४।११२) गिरिनदीपौर्णमास्याग्रहायणीजयः
. (२।१।१५५) अवङ् स्फोटायनस्य (६।१।११९) अवोऽच्यनक्षे (१।१।९६)
शाकटायन ने भी जिन सूत्रों में अपने पूर्ववर्ती सिद्धनदी, इंद्र और आर्यवज्र इन तीन आचार्यों का नामोल्लेख किया है, जो पाणिनीय के अधोलिखित सूत्रों के तुल्य है : शाकटायन
पाणिनीय ततः प्रागार्यवज्रस्य (१।२।१३) बहूजि प्रतिषेधोवक्तव्यः अन्त्यात्
पूर्वं नुममेक इच्छन्ति (७।१।७२ वा०) जराया उसींद्रस्याचि (१।२।३७) जरायाजरसन्यतरस्याम् (१२।१०१). शेषात् सिद्धनंदिनः (२२२२२९) शेषाद्विभाषा (१।४।१५४)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Page Navigation
1 ... 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90