Book Title: Jain Sahitya ke Vividh Ayam
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

View full book text
Previous | Next

Page 55
________________ प्राप्त हो गया है। किन्तु वस्तुतः यह भ्रम था। बाद में ज्ञात हुआ कि प्राप्त व्याकरण पाल्यकीर्ति ( शाकटायन ) का है। ____ सम्प्रति उपलब्ध शाकटायन व्याकरण का मूल नाम शब्दानुशासन है। इसके रचयिता का नाम पाल्यकीर्ति प्राप्त होता है। परन्तु ग्रंथ में सर्वत्र ग्रंथकार का नाम शाकटायन ही प्राप्त होता है। इस व्याकरण के 'ख्यातेऽदृश्ये' (१३१२०८) सूत्र की अमोघवृत्ति में 'अदहदमोघवर्षोऽरातीन' इस उदाहरण के देखने से प्रतीत होता है कि सम्प्रति उपलब्ध शाकटायन व्याकरण की रचना अमोघवर्ष के शासनकाल में हुई होगी। अमोघवर्ष शक संवत् ७३६ (वि० सं० ८७१ ) तथा नवीं शताब्दी के आसपास राजगद्दी पर आसीन हुआ था । अतः इसी के आसपास आचार्य पाल्यकीति ने अपने व्याकरण ग्रंथ की रचना की होगी। उपलब्ध शाकटायन व्याकरण पर अमोघवृत्ति स्वोपज्ञवृत्ति है, आचार्य यक्षवर्मा ने अपनी चिंतामणिवृत्ति में अमोघवृत्ति को अतिमहती तथा शाकटायन की स्वोपज्ञवृत्ति बताया है। __ अमोघवृत्ति के प्रारंभ में ग्रंथावतार के विषय में शाकटायन (पाल्यकीर्ति) ने लिखा है'परिपूर्णमल्यग्रंथं लघूपायं शब्दानुशासनं शास्त्रमिदं महाश्रमणसङ्घाधिपतिर्भगवानाचार्यः शाकटायनः प्रारभते' तथा अमोघवृत्ति के समस्त पुष्पिका वाक्यों में शाकटायन का उल्लेख इस प्रकार आया है'इतिश्रुतकेवलिदेशीयाचार्यशाकटायनकृतो शब्दानुशासने अमोघवतो...' यहाँ 'कृतौ' का अन्वय अमोधवृत्ति तथा शब्दानुशासन दोनों से है। डॉ० विरवे का सुझाव है कि यदि इन पुष्पिका वाक्यों में 'शब्दानुशासने अमोघवृत्तौ' के स्थान पर 'शब्दानुशासनामोधवृतौ' पाठ हो तो पुष्पिका वाक्य में जो अस्पष्टता है वह दूर हो जाती है। उस स्थिति में तनिक भी संदेह की गुञ्जाइश नहीं रहती कि यह वृत्ति स्वयं सूत्रधार की है। उपलब्ध शाकटायन के 'नप्लुतस्योनितौ' (१।११९९) सूत्र की अमोघ. वृत्ति में 'ई चाक्रवर्मणस्य' (अ० ६।१।१३०) इत्यप्लुतवद्भावः पतञ्जलेरनुपस्थितार्थः' उद्धरण को देखने से 'शाकटायन ( पाल्यकीर्ति ) को पतंजलि से भी परिवर्तिता स्पष्ट हो जाती है। अतः उपलब्ध शाकटायन व्याकरण पाणिनि स्मृत शाकटायन से भिन्न है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90