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है। यह टीका मेघदूत पर लिखित मल्लिनाथ को टीका का अनुकरण करती है । टीकाकार योगिराट् ने १३९९ ई० ( शक सं० १३२१ ) में रचित इसग्दण्डनाथ के नानार्थ रत्नमाला कोश का स्थान-स्थान पर उल्लेख किया है । १° अतः योगिराट् का समय इसके बाद का निश्चित है । टीकाकार ने जिनसेन और कालिदास को समकालीन बनाने का विचित्र साहस किया है ।" परन्तु यह प्रमाण विरुद्ध और सर्वथा भ्रान्तिपूर्ण है ।
२. पार्श्वनाथ चरित १२ – वादिराजसूरि
पार्श्वनाथ चरित द्वादशसर्गात्मक महाकाव्य है । इसका मूल स्रोत गुणभद्राचार्य का उत्तरपुराण है । जिनरत्नकोश में इसका विवरण पार्श्वनाथपुराण नाम से दिया गया है । १3 कवि ने मंगलाचरण में अपने पूर्ती अनेक कवियों और आचार्यो का उल्लेख किया है जो कालानुक्रमिक जान पड़ता है । अतः ऐतिहासिक दृष्टि से इसका अत्यन्त महत्व है । १४ पार्श्वनाथचरित को रचना कवि ने महाराज जयसिंह की राजधानी में ९४७ शक सं० ( १०२५ ई० ) में की थी । इसका कवि ने स्वयं उल्लेख किया है।" इसका प्रधान रस शान्त है, परन्तु अङ्ग रसों के रूप में अन्य सभी रसों का प्रयोग किया गया है । डा० मंगलदेव शास्त्री ने इसे उत्कृष्ट कोटि का महाकाव्य माना है । "
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पाण्डवपुराण की प्रशस्ति में आचार्य शुभचन्द्र ने पार्श्वनाथ चरित्र पर पंजिका नामक टीका होने का उल्लेख किया है । वह टीका भट्टारक श्रीभूषण के अनुरोध पर लिखी गई थी और इसकी प्रथम प्रति श्रीपाल वर्णी ने तैयार की थी । १७ किन्तु यह पंजिका अभी तक उपलब्ध नहीं हुई है। श्री नाथूराम प्रेमी ने स्व० श्री माणिकचन्द जी के ग्रन्थभण्डार में इस टीका के होने का उल्लेख किया है । १८
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वादिराजसूरि द्राविड संघ के अन्तर्गत नन्दिसंघ के अरु गल नामक अन्वय ( शाखा ) के आचार्य थे । इनके माता-पिता, जन्मभूमि आदि के विषय में प्रमाण उपलब्ध न होने पर भी गुरु और प्रगुरु (दादा गुरु ) का उल्लेख पार्श्वनाथचरित की प्रशस्ति में होने के कारण सन्देहास्पद नहीं है । सिंहपुर के प्रधान श्रीपालदेव वादिराज के गुरु के गुरु थे तथा श्री पालदेव के शिष्य मतिसागर उनके गुरु थे । २० रचनाकाल का उल्लेख
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