Book Title: Jain Sahitya ke Vividh Ayam
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

View full book text
Previous | Next

Page 38
________________ ( ३६ ) नहीं है तथा कुल ३४५ पृष्ठ हैं | चन्द्रप्रभचरित्र की रचना इन्होंने वि० सं० १३०२ में की थी। जिनरत्नकोश के अनुसार पार्श्वनाथचरित का रचनाकाल वि० सं० १२९१ ( १२३४ ई० ) है । ५२ । सर्वानन्दसूरि शीलभद्रसूरि के प्रशिष्य और गुणरत्नसूरि के शिष्य थे । चन्द्रप्रभचरित्र की प्रशस्ति के अनुसार सर्वानन्दसूरि की गुरुपरम्परा इस प्रकार है - जयसिंह चन्द्रसूरि > धर्मघोष सूरि > शीलभद्रसूरि > सर्वानन्दसूरि । 43 ऊपर दिये गये ग्रन्थों के रचनाकाल के आधार पर इनका समय ईसा की तेरहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध माना जा सकता है । ११. पार्श्वनाथचरित्र ४ – भावदेवसूरि यह आठ सर्गात्मक भावांकित महाकाव्य है । कथावस्तु को आधृ कर सर्गों का विभाजन किया गया है । यद्यपि शास्त्रीय दृष्टि से यह महाकाव्य की कसौटी पर खरा नहीं उतरता, परन्तु इसका आकार महाकाव्य का है । इसके आठ सर्गो में क्रमशः ८८५, १०६५, ११०१, १६२, २५४, १३६०, ८३६ और ३९३ पद्य हैं । अन्त में ३० श्लोकात्मक प्रशस्तियाँ भी दी गई हैं । अनेक शास्त्रों की समीक्षा करके कवि ने इस काव्य में परम्परागत कथानक का ग्रथन किया है । ५५ सर्वान्त पुष्पिका में कवि ने अपने इस काव्य को महाकाव्य कहा है ।५६ बीच-बीच में अनेक अवान्तर कथाओं का समावेश है, जिनमें मुख्यतया धार्मिक उपदेश दिये गये हैं । ग्रन्थ में अनुष्टुप् छन्द के अतिरिक्त सर्गान्ति में वसन्ततिलका और शार्दूलविक्रीडित छन्द का भी प्रयोग है। प्रशस्तिपद्यों में इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, मालिनी और शिखरिणी छन्दों का प्रयोग है । ग्रन्थप्रशस्ति से ज्ञात होता है कि खण्डिल्लगच्छ के चन्द्र कुल में भावदेवसूरि नामक एक विद्वान् हुए । उनके तीन शिष्य थे - ( १ ) विजयदेवसूरि, (२) वीरसूरि और (३) जिनदेवसूरि । पार्श्वनाथचरित्र के रचयिता भावदेवसूरि उक्त तीनों में से जिनदेवसूरि के शिष्य थे । ५७ पार्श्वनाथचरित्र की रचना भावदेवसूरि ने वि० सं० १४१२ (१२३५ ई० ) में पत्तन नामक नगर में की थी । १८ श्री पं० हरगोविन्ददासबेरदास जी ने पार्श्वनाथचरित्र की प्रस्तावना में प्रशस्तिपद्य में उल्लिखित 'रवि विश्ववर्षे' का अर्थ १३१२ किया है, ५१ जो उचित प्रतीत नहीं होता है । क्योंकि रवि १२ और विश्व - १४ मान्य है । अंकों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90