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( ४१ ) नंदीतटगच्छ की परम्परा का इस प्रकार उल्लेख किया है-धर्मसेन> विमलसेन >विशालकीर्ति > विश्वसेन >विद्याभूषण> चन्द्रकीति । प्रो० जोहरापरकर ने चंद्रकीर्ति का समय वि० सं० १६५४-१६८१ ( १५९७१६२४ ई० ) माना है। इस प्रकार चन्द्रकीति का भट्टारक रहने का समय सोलहवीं शताब्दी का सन्धिकाल माना जा सकता है।
भारत के धार्मिक जीवन में जिन महान् विभूतियों का चिरस्थायी प्रभाव है, उनमें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जैन सम्प्रदाय के पूज्य तीर्थङ्कर के रूप में आपके पावन जीवन को जनमानस में प्रचारित करने की भावना से अनेक कवियों ने सभी भारतीय भाषाओं में काव्यों का निर्माग किया है। इनके आकलन से भारत के धार्मिक साहित्य का इतिहास अनश्य समृद्धतर होगा।
संदर्भ १. पार्वेशतीर्थसन्ताने पञ्चाशतद्विशताब्दके ।
तदभ्यन्तरवायुर्महावीरोऽत्र जातवान् ।।-उत्तरपुराण ७४।२७९ २. द्वासप्ततिसमाः किञ्चिदूनास्तस्यायुषः स्थितिः । -वही ७४।२८० ३. निर्णयसागर प्रेस बम्बई, १९०९ में प्रकाशित ४. पार्वाभ्युदय ४७०-७१। ५. इत्यमोघवर्षपरमेश्वरपरमगुरुश्रीजिनसेनाचार्यविरचितमेघदूतवेष्टिते पावा
भ्युदये...""सर्गः । पाश्र्वा० सर्गान्तपुष्पिका। ६. यस्यप्रांशुनरवांशुजालविसरद्धारान्तराविर्भवत्,
पादाम्भोजरज:पिशङ्गमुकुटप्रत्यग्ररत्नद्युतिः । संस्मर्तास्वभोघवर्षनृपतिः पूतोऽहमद्येत्यलम्, ___ स श्रीमान्जिनसेनपूज्यभगवत्पादो जगन्मङ्गलम् ।।
-उत्तरपुराण, प्रशस्तिपद्य ९ ७. द्रष्टव्य तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा भाग २, पृ० ३३७ ८. याऽमिताभ्युदये पार्वे जिनेन्द्रगुणसंस्तुतिः ।।
स्वामिनो जिनसेनस्य कीति संकीर्तयत्यसौ॥-हरिवंशपुराण, १।४० ९. भारतीय इतिहास-एक दृष्टि, पृ० ३०१ १०. द्र०, पाश्र्वाभ्युदय की श्री पन्नालाल बाकलीवाल लिखित भूमिका, पृ० ७ ११. द्र०, पार्वाभ्युदय, टीकाकार योगिराट् की अन्त्यप्रशस्ति १२. माणिकचन्द्र दि० जैन ग्रन्थमाला बम्बई से वि० सं० १९७३ में प्रकाशित
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