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आगम- साहित्य में आयी हुई अनेक बातें परिस्थितियों के कारण से विस्मृत होने लगीं । आगमों के गहन रहस्य जब विस्मृति के अंचल में छिपने लगे तो प्रतिभामूर्ति आचार्यों ने उन रहस्यों को स्पष्ट करने के लिए निर्युक्ति भाष्य, चूर्णि, टीका आदि व्याख्या साहित्य का सृजन किया । फलस्वरूप आगमों के व्याख्या साहित्य ने अतीत काल से आनेवाली अनेक अनुश्रुतियों, परम्पराओं, ऐतिहासिक और अर्ध- ऐतिहासिक कथानकों एवं धार्मिक, आध्यात्मिक व लौकिक कथाओं के द्वारा जैन साहित्य के गुरु गम्भीर रहस्यों को प्रकट किया। यह साहित्य व्याख्यात्मक होने पर भी जैन धर्म के मर्म को समझने के लिए अतीव उपयोगी है । इसमें जैन-आचारशास्त्र के विधि-विधानों को सूक्ष्म चर्चा है । हिंसाअहिंसा, जिनकल्प व स्थविरकल्प की विविध अवस्थाओं का विशद् विश्लेषण किया गया है । क्रियावादी, अक्रियावादी आदि ३६३ मतमतान्तरों का उल्लेख है । गणधरवाद और निह्नववाद - ये दर्शनशास्त्र की विविध दृष्टियों का प्रतिनिधित्व करते हैं । आजीविक तापस, परिव्राजक तत्क्षणिक और बोटिक आदि मत-मतान्तरों का भी विश्लेषण हुआ है । मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल ज्ञान के स्वरूप पर विस्तार से चिन्तन कर केवलज्ञान और केवलदर्शन के भेद और अभेद का युक्ति पुरस्सर विचार है । अनुमान आदि प्रमाण शास्त्र पर भी चिंतन किया गया है । कर्मवाद जैन दर्शन का हृदय है । कर्म, कर्म का स्वभाव, कर्मस्थिति, रागादि की तीव्रता से कर्मबंध, कर्म का वैविध्य, समुद्घात, शैलेषी अवस्था, उपशम और क्षपक श्रेणी पर गहराई से चिन्तन किया गया है । ध्यान के सम्बन्ध में भी पर्याप्त विवेचन है । क्षिप्तचित्त और दीप्तचित्त श्रमणों की चिकित्सा की मनोवैज्ञानिक विधि प्रतिपादित की गई है। साथ ही क्षिप्तचित्त और दीप्तचित्त होने के कारणों पर भी चिंतन किया गया है ।
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भगवान् ऋषभदेव मानव समाज के आद्य निर्माता थे । उनके पवित्र चरित्र के माध्यम से आहार, शिल्प, कर्म, लेखन, मानदण्ड, इक्षुशास्त्र, उपासना, चिकित्सा, अर्थशास्त्र, यज्ञ, उत्सव, विवाह आदि अनेक सामाजिक विषयों पर चर्चा की गई है । मानव जाति को सात वर्णों एवं नौ वर्णान्तरों में विभक्त किया गया है। सार्थ, सार्थवाहों के प्रकार छह प्रकार की आर्य जातियाँ, छह प्रकार के आर्यकुल आदि समाज शास्त्र से सम्बद्ध विषयों
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