Book Title: Jain Sahitya ke Vividh Ayam
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 22
________________ । २० ) और यह तुलनात्मक अध्ययन दुराग्रह और संकीर्ण दृष्टि के निरसन में सहायक होगा। उपसंहार श्रमण भगवान् महावीर एक विराट् व्यक्तित्व के धनी महापुरुष थे। वे महान क्रांतिकारी थे। उनके जीवन में सत्य, शाली, सौन्दर्य और शक्ति का ऐसा अद्भुत समन्वय था जो विश्व के अन्य महापुरुषों में एक साथ देखा नहीं जा सकता। उनकी दृष्टि अत्यधिक पैनी थी। समाज में पनपती हई आर्थिक विषमता, विचारों की विविधता और काम जन्य वासना के काले-कजरारे दुर्दमनीय नागों को उन्होंने अहिंसा, सत्य, संयम और तप के गारुडी संस्पर्श से कीलकर समता, सद्भावना व स्नेह की सरस सरिता प्रवाहित की। अज्ञान अन्धकार में भटकती हई मानवप्रज्ञा को शुद्ध सत्य की ज्योति का दर्शन कराया। यही उनके प्रवचनों का मुख्य उद्देश्य था । यही कारण है कि उन्होंने जन-जन के कल्याणार्थ उस युग की बोली अर्धमागधी में अपने पावन प्रवचन किये और अपने कल्याणकारी दृष्टिकोण से जन-जीवन में अभिनव-जागति का संचार किया। उनके पवित्र प्रवचन जो अर्थ रूप में थे, उनका संकलन-आकलन गणधरों व स्थिवरों ने सूत्र रूप में किया। अर्धमागधी भाषा में संकलित यह आगम साहित्य विषय की दृष्टि से, साहित्य को दृष्टि से व सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। जब भारत के उत्तर-पश्चिमो और पूर्व के कुछ अंचलों में ब्राह्मण धर्म का प्रभुत्व बढ रहा था उस समय जैन श्रमणों ने मगध और उसके निकटवर्ती क्षेत्रों में परिभ्रमण कर जैन धर्म की विजय वैजयन्ती फहरायी। यह उस विशाल साहित्य के अध्ययन, चिन्तनमनन से परिज्ञात होता है । इसमें जैन श्रमणों के उत्कृष्ट आचार-विचार, व्रत-नियम, सिद्धान्त, स्वमत संस्थापन, परमत निरसन प्रभूति अनेक विषयों पर विस्तार से विश्लेषण है। विविध आख्यान, चरित्र, उपमा, रूपक, दृष्टान्त आदि के द्वारा विषय को अत्यन्त सरल व सरस बनाकर प्रस्तुत किया गया है। वस्तुतः आगम साहित्य, जैन संस्कृति इतिहास, समाज और धर्म का आधार स्तम्भ है। इसके बिना जैनधर्म का सही व सांगोपांग परिचय नहीं प्राप्त हो सकता। यह सत्य-तथ्य है कि विभिन्न परिस्थितियों के कारण जैन धर्म के सिद्धान्तों में भी परिवर्तन-परिवर्द्धन होते रहे हैं, पर आगम साहित्य में मूल दृष्टि से कोई अन्तर नहीं आया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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