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मल्लि भगवती, स्त्रीलिंग से तीर्थकर हुई थी, पर उन्हें दस आश्चयों में से एक आश्चर्य माना गया है ।१३५ अंगुत्तरनिकाय में बद्ध ने भी कहा कि 'भिक्षु यह तनिक भी सम्भावना नहीं है कि स्त्री अर्हत्, चक्रवर्ती व शक्र हो।१३६
जैन आगम साहित्य में अनेक स्थलों पर यह वर्णन है कि भरत आदि एक ही क्षेत्र में, एक समय में एक साथ दो तीर्थंकर नहीं होते, तथागत बुद्ध ने भी अंगुत्तरनिकाय में इस बात को स्पष्ट करते हुए लिखा कि इसमें किञ्चित् भी तथ्य नहीं है कि एक ही समय में दो सम्यक् अर्हत् पैदा हों।
शब्द साम्य की तरह उक्ति साम्य भी दोनों परम्पराओं में मिलता है साथ ही कुछ कथाएँ भी दोनों परम्पराओं में एक सदृश मिलती हैं, यहां तक कि वैदिक और विदेशी साहित्य में भी उपलब्ध होती हैं। उदाहरणार्थ-ज्ञातधर्मकथा की सातवीं चावल के पाँच दानेवाली कथा कुछ रूपान्तर के साथ बौद्धों के सर्वास्तिवाद के विनयवस्तु तथा बाइबल १७ में भी प्राप्त होती है। इसी प्रकार जिनपाल और जिनरक्षित' ३८ की कहानी बालहस्सजातक1३९ व दिव्यावदान में नामों के हेर-फेर के साथ कही गयी है। उत्तराध्ययन के बारहवें अध्ययन हरिकेशबल की कथावस्तु मातङ्गजातक में मिलती है।४० तेरहवें अध्ययन चितसम्भूत१४१ को कथावस्तु चित्तसम्भूतजातक में प्राप्त होती है। चौदहवें अध्ययन इषुकार की कथा हस्थिपाल जातक १४२ व महाभारत के शांतिपर्व ४३ में उपलब्ध होती है । उत्तराध्ययन के नौवें अध्ययन 'नमि प्रवज्या' की आंशिक तुलना महाजनजातक १४४ तथा महाभारत के शांतिपर्व १४५ से की जा सकती है । .
इस प्रकार महावीर के कथा साहित्य का अनुशीलन-परिशीलन करने से स्पष्ट परिज्ञात होता है कि ये कथाएँ आदिकाल से ही एक सम्प्रदाय से दूसरे सम्प्रदाय में, एक देश से दूसरे देश में यात्रा करती रही हैं। कहानियों की यह विश्वयात्रा उनके शाश्वत और सुन्दर रूप की साक्षी दे रही है जिस पर सदा ही जनमानस मुग्ध होता रहा है।
उपर्युक्त पंक्तियों में संक्षेप में तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। स्थानाभाव के कारण जैसे विस्तार से चाहता था वैसे नहीं लिख सका तथापि जिज्ञासुओं को इसमें बहुत कुछ जानने को मिलेगा
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