Book Title: Jain Sahitya ke Vividh Ayam
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 19
________________ ( १७ ) जैन आगम साहित्य में मरक और स्वर्ग में जाने के निम्न कारण बताये २२ हैं-महारम्भ, महापरिग्रह, मद्यमांस का आहार और पंचेन्द्रिय वध ये नरक के कारण हैं। सरागसंयम, संयमासंयम, बालतपोपकर्म और अकाम निर्जरा ये स्वर्ग के कारण हैं। मज्झिमनिकाय १६ में भी नरक और स्वर्ग के कारण बताये गये हैं। वे ये हैं-- [कायिक ३] हिंसक, अदिन्नादायी (चोर) काम में मिथ्याचारी; [वाचिक ४] मिथ्यावादी, चुगलखोर, परुष भाषी, प्रलापी [मानसिक ३] अभिध्यालु, व्यापन्नचित्त, मिथ्या दृष्टि । इन कर्मों को करनेवाले नरक में जाते हैं, इसके विपरीत कार्य करने वाले स्वर्ग में जाते हैं। जैन दर्शन की साधना पद्धति का परम और चरम लक्ष्य मोक्ष रहा है । मोक्ष का अर्थ है आत्म-गुणों का पूर्ण विकास, कर्म की परतन्त्रता से पूर्ण रूप से मुक्त होना । उसमें शरीरमुक्ति और क्रियामुक्ति होती है। ____ मोक्ष के लिए पाप का प्रत्याख्यान, इन्द्रिय संगोपन, शरीर संयम, वाणो संयम, मानमाया परिहार, ऋद्धि रस और सुख के गौरव का त्याग, उपशम, अहिंसा, अचौर्य, सत्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, क्षमा, ध्यान, योग और कायव्यत्स गये अकर्म वीर्यं हैं। पण्डित इनके द्वारा मोक्ष का परिव्राजक बनता है।१६४ निर्वाण किसी क्षेत्र विशेष का नाम नहीं है अपितु मुक्त आत्माएं ही निर्वाण हैं, वे लोकान में रहती हैं अतः उपचार से उसे भी निर्वाण कहा जाता है। मुक्त जीव अलोक से प्रतिहत हैं, लोकान्त में प्रतिष्ठित हैं।१६५ मुक्त जीव के शरीर नहीं होते। मुक्त दशा में आत्मा का किसी अन्य शक्ति में विलय नहीं होता। सभी मुक्त जीवों को विकास स्थिति समान होती है और उनको स्वतन्त्र सत्ता होती है। मुक्त दशा में आत्मा संपूर्ण वैभाविक, औपाधिक विशेषताओं से मुक्त होता है, उसका पुनरावर्तन नहीं होता। मज्झिमनिकाय में निर्वाण मार्ग का विस्तार से वर्णन है । ६६ वहाँ पर निर्वाण को परमसुख २७ कहा है और बताया है कि शीलविशुद्धि तभी तक है जब तक कि पुरुष चित्त-विशुद्धि को प्राप्त नहीं होता। चित्तविशुद्धि तभी तक है जब तक कि दृष्टिविशुद्धि को प्राप्त नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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