Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 10 11
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 12
________________ १० बार जैनहितैषी में प्रकाशित हुआ था* वह उक्त सन्धिसे मिलता जुलता है, कुछ थोड़ा सा भेद है। मालूम नहीं प्रशस्तिका उक्त पद्य भी है या नहीं। उन प्रतियों में प्रशस्तिके इस पद्यसे ग्रन्थकी वह त्रुटि पूरी हो जाती है जो कि एक गद्यात्मक के प्रारम्भ में मंगलाचरण तथा प्रतिज्ञा विषयक श्लोकको देकर अन्तमें समाप्ति आदि विषयक कोई पद्य न देनेसे खटकती थी। साथ ही, यह बात स्पष्ट हो जाती है कि ग्रन्थकर्ताके गुरु वर्धमानेश अर्थात् वर्धमान भट्टारक थे और उन्हींके श्रीपाद स्नेहसम्बन्धसे यह न्यायदीपिका सिद्ध हुई है । ग्रन्थकर्ताने प्रारम्भिक पद्य अर्हन्तका विशेषण 'श्रीवर्धमान' देकर (श्रीवर्धमानमर्हतं नत्वा, लिखकर ) उसके द्वारा भी अपने गुरुका स्मरण और सूचन किया है । ये वर्धमानभट्टारक कौन थे और उन्होंने किन किन ग्रन्थोंका प्रणयन किया है, यह बात, यद्यपि, अभीतक स्पष्ट नहीं हुई तो भी 'वरांगचरित्र' नामका एक ग्रन्थ x वर्धमान भट्टारकका बनाया हुआ उपलब्ध है और उसकी संधियोंमें भट्टारक महोदयका परवादिदंतिपंचानन' विशेषण दिया है, जैसा कि उसकी निम्नलिखित अन्तिम सन्धिसे . प्रकट है: - इति परवादिदन्तिपंचाननश्री वर्धमानभट्टादेवविरचिते वरङ्गचरिते सर्वार्थसिद्धि-गमनो नाम त्रयोदशमः सर्गः । जैनहितैषी । जान पड़ता है 'परवादिदन्तिपंचानन' यह वर्धमान भट्टारकका विरुद था अथवा उनकी उपाधि थी; और इससे वे एक नैय्यायिक विद्वान् मालूम होते हैं । ● देखो जैनहितैषी भाग ११ अंक ७–८ X तत्वनिश्चय और द्वादशांग चरित्र नामके दो ग्रंथ भी वर्धमान भट्टारकके बनाये हुए कहे जाते हैं परन्तु उनका कोई अंश अभीतक हमारे देखने में नहीं आया । Jain Education International [ भाग १५ न्यायदीपिका के कर्ता धर्मभूषणके गुरु भी नैयायिक विद्वान् होने चाहिये और उन्हें न्यायदीपिकाकी उक्त संधिमें 'भट्टारक' भी लिखा है । इसलिये, हमारे ख़यालसे, ये दोनों एक ही व्यक्ति जान पड़ते हैं । यदि यह सत्य है तो धर्मभूषणके गुरु मूलसंघ, बलात्कारगण और भारती गच्छके श्राचार्य थे; जैसा कि वरांगचरित्रकी प्रशस्तिके निम्न वाक्यसे प्रकट है: स्वस्ति श्री मूलचे भुवविदितगणे भीकाकारसंज्ञे । श्रभि रत्यादिगच्छे सकलगुणनिधिर्वमानाभिधान : || आसीद्भट्टारकोऽसौ ..... न्यायदीपिकाकी उक्त संधिसे यह साफ जाहिर है कि इस ग्रन्थके कर्ता से पहले कोई दूसरे 'धर्मभूषण' नामके श्राचार्य भी हो गये हैं और इसलिये ये 'अभिनव धर्म भूषण' कहलाते थे। इन्हें गुरुके अनुग्रहसे सारखतोदयकी सिद्धि थी । ३- अठारह लिपियोंके नाम । जैन सिद्धान्त भवन आरामें, धर्मदास सूरिका बनाया हुआ 'विदग्धमुखमंडन' नामका एक बौद्ध ग्रन्थ है । इस ग्रन्थकी समाप्तिके बाद पत्रके खाली स्थान पर कुछ संस्कृत प्राकृतके पद्य लिखे हुए हैं; जिनमें से पहले पद्यके बाद ज़रासा संस्कृत गद्य देकर अठारह लिपियोंकी सूचक दो गाथाएँ दी हैं जो सब इस प्रकार हैं: -- "शुभं भवतु श्रीसंघस्य भद्रं । हंसलिवी [१] भूयकिवी [१], जक्खी [३] रखुसी [४] य बोधव्त्रा ४ (1) ५ (ऊ) ही जवणि ६ तुरुक्की ७, कीरी ८ दविड (डी) य ९ सिंघविया १० ॥ १ ॥ मालविणी ११ नडि १२ नागरि १३, लाडलिवी १४ पारसि (सी) य १५ बोधव्वा [1] तह अनिमति ( त ) य लिबी १६, चाणक्की १७ मूलदेवी य १८ ॥ २ ॥ ▾ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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