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जैनहितैषी ।
सबसे प्रथम, थोलकपियर संघकालका आदि लेखक और वैयाकरण है । यदि उसके समय में जैनी लोग कुछ भी प्रसिद्ध होते तो वह अवश्य उनका उल्लेख करता ; परन्तु उसके ग्रन्थोंमें जैनियोंका कोई वर्णन नहीं है । शायद उस समय तक जैनी उस देशमें स्थायी रूपसे न बसे होंगे अथवा उनका पूरा ज्ञान उसे न होगा । उसी कालमें रचे गये काल ' पथुपाट्टु' और " पहुथोगाई” नामक काव्यों में भी उनका वर्णन नहीं है, यद्यपि उपर्युक्त ग्रन्थोंमें विशेष कर ग्रामीण जीवनका वर्णन है।
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दूसरा प्रसिद्ध ग्रन्थ महात्मा 'तिरुवल्लुवर' रचित 'कुरल' है, जिसका रचना - काल ईसाकी प्रथम शताब्दी ( ए० डी०.) निश्चय हो चुका है । 'कुरल' के रचयिता के धार्मिक विचारों पर एक प्रसिद्ध सिद्धान्तका जन्म हुआ है । कतिपय विद्वानोंका मत है कि रचयिता जैनधर्मावलम्बी था । ग्रन्थकर्त्ताने ग्रन्थारम्भमें किसी भी वैदिक देवकी वन्दना नहीं की है बल्कि उसमें 'कमल-गामी' और 'अष्टगुणयुक्त' आदि शब्दों का प्रयोग किया है। इन दोनों उल्लेखोंसे यह पता लगता है कि ग्रन्थकर्त्ता जैनधर्मका अनु यायी था । जैनियोंके मतसे उक्त ग्रन्थ 'एलचरियार' नामक एक जैनाचार्यकी रचना है* और तामिल काव्य 'नीलकेशीका जैनी भाष्यकार 'समय दिवा कर मुनि' 'कुरल' को अपना पूज्य-ग्रन्थ कहता है । यदि यह सिद्धान्त ठीक है तो इसका यही परिणाम निकलता है कि यदि पहले नहीं तो कमसे कम ईसाकी
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* इस बातको उल्लेख कहाँ पर मिलता है, यह बात जरूर बतलाई जानी चाहिये थी। हमें अभी 'एल चरियार' नामके आचार्यका भी कुछ परिचय नहीं है । कहीं यह एलाचार्यका ही बिगड़ा हुआ नाम न हो ।
सम्पादक ।
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[भाग १५
पहली शताब्दिमें जैनी लोग सुदूर दक्षिणमें पहुँचे थे और वहाँकी देशभाषा में उन्होंने अपने धर्मका प्रचार प्रारम्भ कर दिया था । इस प्रकार ईसाके अनन्तर प्रथम दो शताब्दियों में तामिल प्रदेशोंमें एक नये मतका प्रचार हुआ, जो बाह्याडम्बरोंसे रहित और नैतिक सिद्धान्त होनेके कारण द्राविडियोंके लिए मनोमुग्धकारी हुआ । आगे चलकर इस धर्मने दक्षिण भारतपर बहुत प्रभाव डाला । देशी भाषाओंकी उन्नति करते हुए जैनियोंने दाक्षिणात्योंमें आर्य विचारों और आर्य-विद्या पर पूर्व प्रभाव डाला, जिसका परिणाम यह हुआ कि द्राविड़ी साहित्यने उत्तर भारतसे प्राप्त नवीन संदेशकी घोषणा की। मि० फ्रेज़रने अपनी "A Literary History of India" (भारतीय साहित्यिक इतिहास) नामक पुस्तक में कहा है कि "यह जैनियों हीके प्रयत्नोंका फल था कि दक्षिणमें नये आदर्शों, नये साहित्य और नये भावका सञ्चार हुआ ।" उस समयके द्राविड़ोंकी उपासना के विधानों पर विचार करनेसे यह अच्छी तरह से समझमें श्रा जायगा कि जैनधर्मने उस देश में जड़ कैसे जमा ली । द्राविड़ोंने अनोखी सभ्यताकी उन्नति की थी । स्वर्गीय श्रीयुत कनकसबाई पिल्ले के अनुसार, उनके धर्ममें बलिदान, भविष्यवाणी और श्रानन्दोत्पादक नृत्य प्रधान अंग थे । जब ब्राह्मणोंके प्रथम दलने दक्षिणमें प्रवेश किया और मदुरा या अन्य नगरोंमें वास किया तो उन्होंने इन श्राचारोंका विरोध किया और अपनी वर्ण-व्यवस्था और संस्कारोंका उनमें प्रचार करना चाहा, परन्तु वहाँके निवासियोंने इसका घोर विरोध किया। उस समय वर्ण-व्यवस्था पूर्ण रूपसे परिपुष्ट और संगठित नहीं हो पाई थी । परन्तु जैनियोंकी उपासना श्रादिके विधान ब्राह्मणोंकी
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