Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 10 11
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 61
________________ १-२ ] जैन साहित्य के सम्बन्धमें अपने विचार प्रकट करते हुए आपने कहा- " साहित्यके बिना कोई भी जाति, कोई भी देश और कोई भी ज्ञान कायम महीं रह सकता । हमारे जैन साहित्यकी दशा साहित्य - रसिक सज्जनोंसे छिपी नहीं है। हाय! हमारे साहित्यका लोप होते होते यहाँतक हो गया कि हमारे पुनीत पावन शास्त्र बरसों तक भण्डारों बन्द रखे जाने लगे । चाहे उनको चूहे खायें, दीमक खायें, मगर भण्डारों के ताले खोलना भी कठिन हो गया । हमारे शास्त्र इस तरह मिट्टी में मिलें, बरबाद हो, क्षय हो और हम उनकी तरफ नज़र भी नहीं डालें, हमारे लिये यह कितने अफ़सोस श्रौर शर्म की बात है ! कहते कलेजा काँपता है कि इस बुरे ढङ्गसे हज़ारों शास्त्रोंका नाश हो गया । और अगर यही हालत रही तो जमाना बतावेगा कि जैनियोंका कोई अस्तित्व ही नहीं है। फिर भी अगर अभीतक इस विषय पर समाजका ध्यान थोड़ा बहुत नहीं जाता, तो जैन- साहित्यका अन्त बहुत जल्दी था जाता। मगर खुशीकी बात हैं कि अब कई जगह शास्त्रोंके भण्डार खुल गये हैं, उनको चूहों और दीमकों से बचाकर बाहर लाया गया है और यों जैनसाहित्यक थोड़ी बहुत रक्षा की गई है। मगर फिर भी कई जगहें ऐसी सुननेमें श्राती हैं कि जहाँके भण्डारोंमें बहुतसे शास्त्र वर्षोंसे भरे पड़े हैं और जिनको हमारे जैनी भाई ताला खोलकर सँभालने तक नहीं देते । अफ़सोस और सख श्रफ़सोस ! क्या शास्त्रका विनय इसीका नाम है ?... पुस्तक- परिचय | Jain Education International पुस्तक- परिचय | १ आत्मसिद्धि – यह मूल पुस्तक गुजराती भाषामें सरल और सुबोध पद्य द्वारा शतावधानी महात्मा श्रीमद् राजचन्द्रजी जैनकी बनाई हुई हैं। इसका विषय पुस्तकके नामसे ही प्रकट है । पण्डित बेहचरदासजी न्याय और व्याकरणतीर्थने संस्कृतमें इसका पद्यानुवाद और हिन्दीमें पं० उदयलालजी काशीवालने गद्यानुवाद किया है । ये दोनों अनुवाद पुस्तक के साथ लगे हुए हैं। साथ ही, मूल कर्ताके हिन्दी परिचय द्वारा, जो कि १२३ पृष्ठ परिमाण है, इस पुस्तकको अलंकृत किया गया और उपयोगी बनाया गया है । सब सौके करीब है, मोटे पुष्ट कागज़पर निर्णयमिलाकर पुस्तककी पृष्ठ संख्या सवा दो सागर प्रेस द्वारा छपाई हुई है, सुवर्णाक्षरों को लिये हुए सुन्दर कपड़ेकी जिल्द बँधी है और तिसपर भी मूल्य एक रुपया है । ग्रन्थकर्ताके छोटे भाई श्रीयुत मनसुखलाल रवजी भाई मेहताने #महात्मा गांधीजीकी प्रेरणा से इसे लोकोपकारार्थं देवनागरी अक्षरोंमें प्रकाशित किया है। यह पुस्तक बड़े कामकी है और इसमें ग्रन्थकर्ताका परिचय ख़ास तौर से पढ़ने योग्य है। उसके पढ़नेसे अनेक बातोंकी शिक्षाएँ मिलती हैं और बहुत कुछ धनुचन्द्रजीके जीवनके अनेक पत्रोंका भी भव बढ़ता है । परिचयमें श्रीमद् राजसंग्रह किया गया है और उसमें वे पत्र भी शामिल हैं जो महात्मा गांधीजीके पत्रके उत्तर में उन्हें नैटाल (अफ्रीका ) भेजे गये थे। गांधीजी के जीवनपर श्रीमद् राज- अपूर्ण | चन्द्रजीका गहरा प्रभाव पड़ा है, जिसे • आपका पता 'संदहर्स्ट रोड, गिरगाँव - बम्बई' है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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