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के इच्छुक द्वारा यह पुस्तक अवश्य पढ़ें और संग्रह किये जानेके योग्य है । हर एक लायब्रेरी और पुस्तकालय में इसकी एक एक प्रति रहनी चाहिए ।
अन्तमें हम यह भी प्रगट कर देना उचित समझते हैं कि, यद्यपि पुस्तकको बहुत कुछ उपयोगी बनानेका यत्न किया गया है तो भी उसमें एक खास त्रुटि रह गई है, और वह जनरल इण्डेक्स ( General Index) का अभाव है । अर्थात् पुस्तकमें ऐसी कोई साधारण अनुक्रमणिका नहीं लगाई गई जिसमें पुस्तक भरमें श्राये हुए सब प्रकार के नामोंको अकारादि क्रमसे, पृष्ठसंख्या के साथ, दर्ज किया होता । इस प्रकारकी पुस्तकों में ऐसी एक अनुक्रमणिकाकी बहुत बड़ी ज़रूरत होती है; और उससे अनुसन्धान करनेवालों तथा पुस्तक से कुछ काम लेने वालोंको बहुत कुछ लाभ पहुँचता है और उनका अधिकांश समय बच जाता है । ऐसी अनुक्रमणिकाके न होनेकी हालत में कभी कभी पुस्तक में कोई कामकी बात होते हुए भी वह काम नहीं श्राती । श्राशा है कि पुस्तकका दूसरा संस्करण निकालते समय और इसके दूसरे भागको प्रकाशित करते वक्त भी इस विषयकी और ख़ास तौर से ध्यान रक्खा जायगा और पुस्तकको और भी ज्यादह उपयोगी बनानेका यत्न किया
जायगा ।
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[ भाग १५
सम्पादकीय वक्तव्य ।
इस श्रंकसे जैनहितैषीका नया वर्ष प्रारम्भ होता है - श्रर्थात्, हितैषी अपने जीवनके १४ वे वर्षको पारकर अब सहर्ष १५ वे वर्ष में प्रवेश करता है। पिछले साल इस पत्रने अपने vratat क्या कुछ सेवा की, यह बतलाने की ज़रू रत नहीं है; सहृदय पाठक उससे स्वयं परिचित हैं । हाँ, इतना ज़रूर कहना होगा कि गत वर्ष बीमारी, अस्वस्थता और प्रेसकी गड़बड़ श्रादि कई कारणोंसे हम हितैषीके अनेक अंकों को समय पर नहीं निकाल सके और इससे पाठकोंको कुछ प्रतीक्षाजन्य कष्ट ज़रूर उठाना पड़ा है, जिसके लिये हमें स्वयं खेद है; तो भी इस बात पर खास ध्यानं रक्खा गया है कि पाठकोंको वैसे कुछ लाभ न होने पावेमैटरकी दृष्टिसे वे घाटेमें न रहें - और इसलिये हितैषीका मैटर बराबर उसी ढङ्गसे पूरा किया जाता रहा है । वास्तवमें, जैनहितैषी कोई समाचारोंका पत्र भी नहीं है जिसके समयपर न निकलने से उसकी उपयोगिता नष्ट हो जाय, बल्कि यह एक प्रकारका निबन्धसंग्रह है जिसके अधिकांश लेखोंको, एक उपयोगी पुस्तकके तौर पर, बार बार पढ़ने, मनन करने और पास रखनेकी ज़रूरत होती है। गत वर्ष काग़ज़ और छपाईकी कितनी महँगाई रही, और जो अभी तक जारी है, इससे सभी परिचित हैं। अनेक पत्र इसी चक्करमें पड़कर बन्द हो गये और बहुतों को अपना मूल्य बढ़ाना तथा आकारादि परिवर्तन करना पड़ा। महात्मा गांधीके 'नवजीवन' जैसे पत्रोंकी भी - जिनकी बहुत कुछ ग्राहक संख्या है और जिन्हें हज़ार हज़ार रुपये तककी सहायता भी इसलिये प्राप्त है कि वे कुछ लोगोंको
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