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श्रीवर्द्धमानाय नमः।
भाग १५।
जैनहितैषी
अंक १, २. .
कार्तिक, अगहन सं०२४४७ । नवंबर, दिसंबर सन् १९२०
श्रावश्यक प्रार्थना। कई जरूरी कामों में फंसे रहनेके कारण हम हितैषीका यह युग्म अंक भी वी० पी० से न भेज.सके। इसे हम अपने सदाके प्रेमी और शुभचिन्तक ग्राहकोंकी सेवामें यही भेज रहे हैं। हमारी पिछले अंककी प्रार्थना पर ध्यान देकर बहुतसे ग्राहकोंने मनीआर्डरसे मूल्य भेज दिया है। जिन सज्जनोंने अभी तक नहीं भेजा हैं, उनसे बहुत ही नम्रतापूर्वक हमारो प्रार्थना है कि वे इस अंकको पाते ही नये वर्षका मूल्य मनीआर्डरसे भेज देनेकी कृपा करें। इससे उन्हें रजिस्टी खर्च के दो आनेका लाभ होगा और हम वी० पी० भेजनेकी बड़ी भारी झंझटसे बच जावेंगे।
पहले हमने वार्षिक मूल्य ३) तीन रुपया रखनेका निश्चय किया था, परन्तु अब इसका छपनेका इन्तजाम बनारसमें हो गया है जिससे काम कुछ किफायतसे होगा, इस कारण अब हम इस वर्षका मूल्य २॥) ही लेंगे। यह मूल्य ग्राहकों को कुछ भारी भी न पड़ेगा।
जो महाशय म० आ० न भेजेंगे, उन्हें आगामी तीसरा अंक २00) (मूल्य २॥), रजिस्टरी खर्च ) और म० आ. खर्च -)) के बी० पी० से भेजा जायगा। आशा है कि उसे वे सहर्ष स्वीकार कर लेंगे।
जो सजन इस वर्ष किसी कारणसे ग्राहक न रहना चाहें उन्हें कृपापूर्वक यह युग्म अंक तत्काल ही वापस कर देना चाहिए और एक कार्ड द्वारा हमें सचना दे देनी चाहिए।
जो सजन समझते हैं कि जैनहितैषी जैनसाहित्यकी और जैनसमाजकी शुद्ध अभिप्रायसे यथाशक्ति सेवा कर रहा है, वहीं इसके ग्राहक रहनेकी कृपा करें। जैनधर्मके ठेकेदारोंके आन्दोलनसे, जो इसके विपरीत समझते हैं, वे इसके कभी ग्राहक न रहें। हम अपने इस पापकार्य (१) में उनकी जरा भी सहायता नहीं चाहते।।
जैनहितैषीने अभीतक जो कुछ थोड़ी बहुत सेवा की है, उसकी ओर देखते हुए हमारा विश्वास है कि जैनहितैषीको शुभचिन्तकोंकी कमी न रहेगी और वह किसी भी विरुद्ध आन्दोलनको तर्जनी दिखलानेसे मुरझा जानेवाला कद्दूका फूल सिद्ध न होगा।
हमें अपने शुभचिन्तकोंसे यह आशा है कि इस वर्ष जैनहितैषीकी ग्राहक संख्या पहलेसे भी अधिक बढ़ जायगी। हमारे हितैषी ग्राहक इस बार बतला देंगे कि इसके हितशत्रु जितना जितना इसका विरोध करते हैं, उतना उतना इसका अधिक प्रचार होता है।
इस वर्ष पहलेसे भी अधिक महत्त्वपूर्ण और जैनधर्मकी असलियत पर अपूर्व प्रकाश डालनेवाले लेख प्रकाशित करनेका प्रबन्ध किया जा रहा है।
-प्रकाशक।
___ सम्पादक, बाबू जुगुलकिशोर मुख्तार ।
श्रीलक्ष्मीनारायण प्रेस, काशी,
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विषयसूची।
नियमावली। १ उपासनातत्त्व ... ... ... १- १ जनहितषीका वार्षिक मूल्य ३) तीन रुपया पेशगी है। २ पुरानी बातोंकी खोज ... ... –१६ २ ग्राहक वर्षके प्रारम्भसे किये जाते हैं और बीचमें ३ मल्लिषेणका परिचय ... ... १६-२४ ७ अंकसे । आधे वर्षका मूल्य १) ४ तामिल-प्रदेशोंमें जैनधर्मावलम्बी ... २४-३१ . ३ प्रत्येक अंकका मूल्य ।। चार पाने। ५ जैनधर्मकी अनेकान्तात्मक प्रभुता ... ३१-३८ ४ लेख, बदलेके पत्र, समालोचनार्थ पुस्तके आदि ६ जैनधर्मका महत्व . ... ... ३८-४८ 'बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तार, सरसावा ७ समाजशास्त्रका नवीन सिद्धान्त ... ४८-४६ (सहारनपुर)" के पास भेजना चाहिये। सिर्फ प्रबन्ध । ८जैनेन्द्र व्याकरण और प्राचार्य देवनन्दी ४६-५८ और मूल्य आदि सम्बन्धी पत्रव्यवहार इस पतेसे किया जायः१ सेठ लालचन्दजी सेठीके भाषणका कुछ
मैनेजर, जैनग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, सारभाग ... ... ... ५८-५६ १० पुस्तक-परिचय ... ... ... ५६-६२
हीराबाग, पो० गिरगाँव, बम्बई । ११ सम्पादकीय वक्तव्य
पुष्पलता। . अमूल्य भेंट।
हिन्दीमें एक नये लेखककी लिखी हुई अपूर्व गल्प । जो लोग जैनहितैषीका यह अंक पहुँचने पर और प्रत्येक गल्प मनोरंजक, शिक्षाप्रद और भावपूर्ण है। सभी दूसरा अंक निकलनेसे पहले हितेषीके इस वर्षका मूल्य, गल् स्वतंत्र हैं और हिन्दीसाहित्यके लिये गौरवकी चीजें मनीआर्डर द्वारा, मैनेजर "जैनहितैषी" ठि. हीराबाग हैं। जो लोग अनवादग्रन्थोसे अरुचि रखते हैं उन्हें यह पो० गिरगाँव-बम्बईके पतेसे, भेज देंगे अथवा इस अंकके मौलिक गल्पग्रन्थ अवश्य पढ़ना चाहिए। ७-८ चित्रोंसे पहुँचनेसे पहले जो भेज चुके हैं उन सबको 'वीरपुष्पांजलि' पस्तक और भी सुन्दर हो गई है। हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकरनामकी एक नई उपयोगी पुस्तक बिना मूल्य भेंट की सीरीजका यह ४१वाँ ग्रन्थ है। मूल्य १) सजिल्दका १।।) जायगी।
सम्पादका
आनन्दकी पगडरियाँ। प्रार्थनायें।
जेम्स एलेन अँगरेजीके बड़े ही प्रसिद्ध आध्यात्मिक
लेखक हैं। उनके ग्रन्थ बड़े ही मार्मिक और शान्तिप्रद १ जनहितैषी किसी स्वार्थबुद्धिसे प्रेरित होकर निजी
गिने जाते हैं। अगरेजीमें उनका बड़ा मान है। यह ग्रन्थ लाभके लिये नहीं निकाला जाता है। इसके लिए समय, शक्ति और धनका जो व्यय किया जाता है वह केवल निष्पक्ष
उन्हीके 'Byways of Blessedness' नामक ग्रन्थऔर ऊँचे विचारोंके प्रचारके लिये; अतः इसकी उन्नतिमें
का अनुवाद है। प्रत्येक विवेकी और विचारशील पुरुपको हमारे प्रत्येक पाठकको सहायता देनी चाहिये।
यह ग्रन्थ पढ़ना चाहिए । मूल्य १) सजिल्दका १॥) २ जिन महाशयोको इसका कोई लेख अच्छा मालूम
सुखदास। हो उन्हें चाहिए कि उस लेखको वे जितने मित्रोंको पढ़कर जार्ज ईलियटके सुप्रसिद्ध उपन्यास 'साइलस मारनर' सुना सकें, अवश्य सुना दिया करें।
का हिन्दी रूपान्तर। इस पुस्तकको हिन्दीके लब्धप्रतिष्ठ ३ यदि कोई लेख अच्छा न मालूम हो अथवा विरुद्ध उपन्यासलेखक श्रीयुत प्रेमचन्दजीने लिखा है। बढ़िया मालूम हो तो केवल उसीके कारण लेखक या सम्पादकसे एण्टिक पेपर पर बड़ी ही सुन्दरतासे छपाया गया है। उपद्वेषभाव धारण न करनेके लिये सविनय निवेदन है। न्यास बहुत ही अच्छा और भावपूर्ण है। मूल्य )
४ लेख भेजनेके लिये सभी सम्प्रदायके लेखकोंको मैनेजर, हिन्दीग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय, आमंत्रण है। सम्पादक।
हीराबाग, कम्बई।
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हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः । OKBOEKBOOOKBOXKBOXXOOXKCE
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RRRRRRRRRRRRAAAR पन्द्रहवाँ भाग। अंक १-२
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कार्तिक, अगहन २४४७ अक्टूबर, नवम्बर १९२०
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न हो पक्षपाती बतावे सुमार्ग, डरे ना किसीसे कहे सत्यवाणी । बने है विनोदी भले आशयोंसे, सभी जैनियोंका हितैषी 'हितैषी' ॥ उपासना-तत्त्व।
दशामें, यदि मूर्तिको एक खिलौना
समझ कर उसके लेनेके लिये हाथ पसा. ... हमारी धार्मिक शिक्षा 'उपासना से रता है, ज़िह करता है, उसे 'भाई' कह प्रारम्भ होती है। पूजा, भक्ति और पारा- कर पुकारता है, उसको चढ़ा हुश्रा नैवेद्य धना ये सब उपासनाके ही नामान्तर उठा कर खाने लगता है अथवा उसके हैं। यही धर्मकी पहली सीढ़ी है जिसका सामने पीठ देकर खड़ा हो जाता या बैठ हमें बचपनसे ही अभ्यास कराया जाता जाता है तो उसकी इस प्रकारकी बातोंका है। बच्चा बोलना भी प्रारम्भ नहीं करता निषेध किया जाता है और कुछ गम्भीर कि उसे जिनमन्दिर श्रादिमें ले जाकर, स्वरके साथ कहा जाता है कि "नही मूर्ति श्रादिके सामने उसके हाथ जुड़वा ख़बरदार ! ऐसा नहीं किया करते; ये कर तथा मस्तक नमवा कर उसे उपासना- भगवान् हैं, इनके आगे हाथ जोड़ो।" का एक पाठ पढ़ाया जाता है; और ज्यों साथ ही, उसे प्रतिदिन भगवान्के दर्शही वह कुछ बोलने लगता है त्यों ही उससे नादिकके लिये मन्दिरमें जाने और इष्ट देवताओंके नामोंका उच्चारण-ॐ, किसी स्तुति पाठादिकका उच्चारण करने'जय' आदि शब्दोंका उच्चारण-कराया की प्रेरणा भी की जाती है। इस तरह जाता है, 'णमो अरहंताणं', 'णमोत्थुणं' पर शुरूसे ही परमात्माकी पूजा, भक्ति,
आदिके पाठ सिखलाए जाते हैं और, उपासना और आराधनाके संस्कार जितना शीघ्र बन सके उतना शीघ्र हमारे अन्दर डाले जाते हैं। परन्तु यह परमात्माकी कुछ स्तुतियाँ भी उसे सब कुछ होते हुए भी, समाजमें, ऐसे याद कराई जाती हैं । बञ्चा, अपनी प्रज्ञान बहुत ही कम व्यक्ति निकलेंगे जो उपा
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जैनहितैषी।
[भाग १५ सनाके तत्त्वको अच्छी तरहसे जानते रण, इस विषयमें, प्रायः लोक-रीतिका
और समझते हों। उन्हें यह बात प्रायः (रूढ़ियोंका) अनुसरण करनेवाला, सिखलाई ही नहीं जाती । अधिकांश एक दूसरेकी देखादेखी और ज़्यादातर माता-पिता स्वयं इस तत्त्वसे अनभिज्ञ लौकिक प्रयोजनोंको लिये हुए होता है। होते हैं-वे खुद ही अपनी क्रियाओंका उपास्य और उपासनाके स्वरूपपर उनकी रहस्य नहीं जानते अथवा कुछका कुछ दृष्टि ही नहीं होती और न वे उपासनाके जानते हैं और इसलिये उनकी समझ- विधिविधानोंमें कभी कोई भेद उपस्थित में जो बात जिस तरह पर कुलपरम्परा- होने पर सहजमें उसका आपसी (पारसे चली आती है उसे वे अपने बच्चोंके स्परिक) समझौता कर सकते हैं। उन्हें गले उतार देते हैं उन्हें रटा देते अथवा अपनी चिरप्रवृत्तिके विरुद्ध जरासा भी सिखला देते हैं। इससे अधिक शायद भेद असह्य हो उठता है और उसके वे अपना और कुछ कर्तव्य नहीं समझते। कारण वे अपने भाइयोसे ही लड़ने मरने. नतीजा इसका यह होता है कि हमारे तकको तैयार हो जाते हैं। ऐसे स्त्रीपुरुषोंअधिकांश भाई नित्य मन्दिरमें ज़रूर के द्वारा समाजमें सूखा क्रियाकांड बढ़ जाते हैं, भगवान्का दर्शन और पूजन जाता है, यान्त्रिक चारित्रकी-जड करते हैं, उन्हें कुछ भेट भी चढ़ाते हैं, मशीनों जैसे आचरणकी-वृद्धि हो जाती भगवान्के नामकी माला फेरते हैं, स्तुतियाँ है और भावशून्य क्रियाएँ फैल जाती हैं। पढ़ते हैं, संस्कृत प्राकृतके भी अनेक ऐसी हालतमें उपासना उपासना नहीं स्तोत्रोंका पाठ किया करते हैं, तीर्थयात्रा. रहती और न भक्तिको भक्ति ही कह को निकलते हैं, और और भी भक्ति सकते हैं। ऐसी प्राणरहित उपासनासे तथा उपासनाके नाम पर, बहुतसे काम यथेष्ट फलकी कुछ भी प्राप्ति नहीं हो तथा विधि-विधान करते हुए देखे जाते सकती । श्रीकुमुदचन्द्राचार्यने अपने हैं; परन्तु उन्हें प्रायः यह ख़बर नहीं 'कल्याणमन्दिर' स्तोत्रमें ठीक लिखा हैहोती कि यह सब कुछ क्यों किया जाता आकर्णितोऽपि माहितोऽपि निरीक्षितोऽपि, है, किसके लिये किया जाता है, क्या नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या । ज़रूरत है, इसका मूल उद्देश्य क्या है,
जातोऽस्मि तेन जगबान्धव दु:खपात्रं, हमारी इन क्रियाओंसे वह उद्देश्य पूरा
यस्मात् क्रियाः प्रतिफलंति न भावशून्याः ॥ होता है या नहीं और यदि नहीं होता तो हमें फिर किस प्रकारसे बर्तना अर्थात्-हे जगद्वान्धव जिनेन्द्रदेव ! चाहिये, इत्यादि । हाँ, वे इतना जरूर जन्मजन्मान्तरोंमें मैंने आपका चरित्र जानते हैं कि ये सब धर्मके काम हैं, सुना है, पूजन किया है और दर्शन भी पहलेसे होते आये हैं और इनके द्वारा किया है; यह सब कुछ किया, परन्तु पुण्योपार्जन किया जाता है। परन्तु धर्मके भक्तिपूर्वकाकभी आपको अपने हृदयमे काम क्योंकर हैं, किस तरह होते आए हैं धारण नहीं किया । नतीजा जिसका
और इनके द्वारा कैसे पुण्यका उपार्जन जिनेन्द्र भगवान्को भक्तिपूर्वक हृदयमें धारण करनेकिया
से जीवोंके दृढ़ कर्मबन्धन इस प्रकार ढीले पड़ जाते हैं नहीं होती और न वे जाँचकी कुछ ज़रू- जिस प्रकार कि चन्दनके वृक्ष पर मोरके आनेसे उस वृक्षको रतही समझते हैं। उनका संपूर्ण आच- लिपटे हुए साँप । अर्थात् मोरके सामीप्यसे जैसे सर्प घबराते
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अङ्क १-२]
उपासना-तत्त्व। यह हुआ कि मैं अब तक इस संसारमें जैनियोंको आमतौर पर, अपना उपासनादुःखोंका ही पात्र रहा-मुझे दुःखोंसे तत्त्व समझने और समझकर तदनुकूल छुटकारा ही न मिला-क्योंकि भावशून्य बर्तनेकी बहुत बड़ी ज़रूरत है। इसी क्रियाएँ फलदायक नहीं होतीं।
ज़रूरतको ध्यानमें रखकर आज इस लेख एक दूसरे प्राचार्य लिखते हैं कि, द्वारा, संक्षेपमें, उपासना-तत्त्वको समबिना भावके पूजा आदिका करना, तप झानेका यत्न किया जाता है। इससे तपना, दान देना, जाप्य जपना-माला हमारे वे अजैन बन्धु भी ज़रूर कुछ लाभ फेरना-और यहाँ तक कि दीक्षादिक उठा सकेंगे जिन्हें जैनियोंके उपासनाधारण करना भी ऐसा निरर्थक होता है तत्त्वको जाननेकी आकांक्षा रहती है, जैसा कि बकरीके गलेका स्तन । अर्थात् अथवा जैनसिद्धान्तानभिज्ञताके कारण जिस प्रकार बकरीके गलेमें लटकते हुए जिनके हृदयमें कभी कभी यह प्रश्न उपस्तन देखने में स्तनाकार होते हैं परन्तु वे स्थित हुआ करता है कि जब जैन लोग स्तनोंका कुछ भी काम नहीं देते-उनसे किसी ईश्वर या परमात्माको जगत्का दूध नहीं निकलता-उसी प्रकार विना कर्ता हर्ता नहीं मानते और न उसकी भावकी पूजनादि क्रियाएँ भी देखनेहीकी प्रसन्नता या प्रसन्नतासे किसी लाभ क्रियाएँ होती हैं, पूजादिका वास्तविक तथा हानिका होना स्वीकार करते हैं तो फल उनसे कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता। फिर वे परमात्माकी पूजा, भक्ति और यथाः
उपासना क्यों करते हैं और उन्होंने उससे भावहीनस्य पूजादितपोदानजपादिकम् । क्या लाभ समझ रक्खा है ? इस प्रश्नका व्यर्थ दीक्षादिकं च स्यादजाकंठे स्तनाविव ॥
समाधान भी खतः नीचेकी पंक्तियोंसे हो
जायगाःइससे स्पष्ट है कि हमारी उपासना
जैनधर्मका यह सिद्धान्त है कि यह सम्बन्धी क्रियाओंमें भावकी कितनी बड़ी ज़रूरत है-भाव ही उनका जीवन और
आत्मा जो अनादि कर्ममलसे मलिन हो भाव ही उनका प्राण है, विना भावके
रहा है और अपने स्वरूप को भुलाकर उन्हें निरर्थक और निष्फल समझना
विभाव परिणतिरूप परिणम रहा है वही चाहिये। परन्तु यह भाव उपासना-तत्त्व
उन्नति करते करते कर्ममलको दूर करके को समझे विना केसे पैदा हो सकता है?
परमात्मा बन जाता है; आत्मासे भिन्न अतः अपनेमें इस भावको उत्पन्न करके
और पृथक् कोई एक ईश्वर या परमात्मा अपनी क्रियाओंको सार्थक बनानेके लिये
नहीं है-अहंत, जिनेन्द्र, जिनदेव, तीर्थंकर,
सिद्ध, सार्व, सर्वश, वीतराग, परमेष्ठि, है वैसे ही जिनेन्द्रके हृदयस्थ होने पर कर्म काँपते हैं। परंज्योति, शुद्ध, बुद्ध, निरंजन, निर्विकार, क्योंकि जिनेन्द्र कौका नाश करनेवाले हैं। उन्होंने अनो प्राप्त, ईश्वर, परब्रह्म इत्यादि सब उसी आत्मासे कमौको निर्मूल कर दिया है। इसी प्राशयको परमात्मा या परमात्मपदके नामान्तर प्राचार्य कुमुदचन्द्रने निम्नलिखित पद्यमें प्रकट किया है:
- हैं। अथवा दूसरे शब्दोंमें यो कहिये कि, हृद्वतिनि त्वयि विमो. शिथिलीभवन्ति,
परमात्मा श्रात्मीय गुणोंका समदाय है. जन्तोः क्षणेन निविडा अपि कर्मबन्धाः। सद्यो भुजंगममया इव मध्यभाग
उसके अनन्त गुणोंकी अपेक्षा उसके मभ्यागते बनशिखंडिनि चंदनस्य ॥
अनन्त नाम हैं। वह परमात्मा परम -कल्याणमन्दिर। वीतरागी और शान्तस्वरूप है, उसको
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जैनहितैषी।
भाग १५ किसीसे राग या द्वेष नहीं है, किसीकी आत्माकी वे सम्पूर्ण स्वाभाविक शक्तियाँ स्तुति, भक्ति और पूजासे वह प्रसन्न नहीं सर्वतोभावसे विकसित हो जाती हैं होता और न किसीकी निन्दा, अवज्ञा और तब वह आत्मा स्वच्छ तथा निर्मल या कट शब्दो पर अप्रसन्नता लाता है; होकर परमात्मदशाको प्राप्त हो जाता है धनिक श्रीमानों, विद्वानों और उच्च श्रेणी और परमात्मा कहलाता है* । केवलज्ञानया वर्णके मनुष्योंको वह प्रेमकी दृष्टि- (सर्वज्ञता) की प्राप्ति होनेके पश्चात् से नहीं देखता और न निर्धन कंगालो, जब तक देहका सम्बन्ध बाकी रहता है मूखौ तथा निम्नश्रेणीके मनुष्योंको घृणा- तंब तक परमात्माको सकल परमात्मा की दृष्टिसे अवलोकन करता है; न सम्य- . जीवन्मुक्त तथा अर्हन्त कहते हैं और जब ग्दृष्टि उसके कृपापात्र हैं और न मिथ्या देहका सम्बन्ध भी छूट जाता है और दृष्टि उसके कोपभाजन; वह परमानंदमय मुक्तिकी प्राप्ति हो जाती है तब वही सकत
और कृत्यकृत्य है, सांसारिक झगड़ोसे परमात्मा निष्कल परमात्मा, विदेहउसका कोई प्रयोजन नहीं । इसलिये मुक्त और सिद्ध नामोंसे विभूषित होता जैनियोंकी उपासना, भक्ति और पूजा, है । इस प्रकार अवस्था भेदसे परमाहिन्दू, मुसलमान तथा ईसाइयोंकी तरह, त्माके दो भेद कहे जाते हैं। वह परमात्मा परमात्माको प्रसन्न करनेके लिये नहीं अपनी जीवन्मुक्तावस्थामें अपनी दिव्य होती। उसका कुछ दूसरा ही उद्देश्य है वाणीके द्वारा संसारी जीवोंको उनकी जिसके कारण वे (समझदार जैनी) ऐसा आत्माका स्वरूप और उसकी प्राप्तिका करना अपना कर्तव्य समझते हैं और वह उपाय बतलाता है-अर्थात्, उनकी संक्षिप्तरूपसे यह है कि
श्रात्मनिधि क्या है, कहाँ है, किस किस ___ यह जीवात्मा स्वभावसे ही अंनन्त- प्रकारके कर्मपटलोसे आच्छादित है, दर्शन, अनम्तज्ञान, अनन्तसुख और कैसे कैसे उपायोसे वे कर्मपटल इस अनन्तवीर्यादि अनन्त शक्तियोंका आधार आत्मासे जुदे हो सकते हैं, संसारके है। परन्तु अनादि कर्ममलसे मलिन अन्य समस्त पदार्थोसे. इस श्रात्माका होनेके कारण इसकी वे समस्त शक्तियाँ क्या सम्बन्ध है, दुःखका, सुखका और आच्छादित हैं-कौके पटलसे वेष्टितहैं; संसारका स्वरूप क्या है, कैसे दुःखकी और यह आत्मा संसारमें इतना लिप्त निवृत्ति और सुखकी प्राप्ति हो सकती और मोहजालमें इतना फँसा हुआ है है, इत्यादि समस्त बातोका विस्तारके कि उन शक्तियोंका विकास होना तो साथ सम्यक् प्रकार निरूपण करता हैदूर रहा, उनका स्मरण तक भी इसको जिससे अनादि अविद्याग्रसित संसारी नहीं होता। कर्मके किंचित् क्षयोपशमसे जीवोंको अपने कल्याणका मार्ग सूझता जो कुछ थोड़ा बहुत ज्ञानादि लाभ होता है और अपना हित साधन करनेमें उनकी है, यह जीव उतनेहीमें संतुष्ट होकर उसीको अपना स्वरूप मानने लगता है।
* ध्यानाजिनेश भवतो भविनः क्षणेन, इन्हीं संसारी जीवोंमेंसे जो जीव, अपनी देहं विहाय परमात्मदशां व्रजन्ति ।
आत्मनिधिकी सुधि पाकर धातुभेदीके । तीव्रानलादुपलभावमपास्य लोके, . सरश प्रशस्त ध्यानाग्निके बलसे, इस चामीकरत्वमचिरादिव धातुभेदाः॥ समस्त कर्ममलको दूर कर देता है उसमें
-कल्याणमंदिर।
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अङ्क १-२]
उपासना-तत्त्व। प्रवृत्ति होती है* । इस प्रकार परमात्मा- कारको भुला देते हैं उन्हें असाधु तथा के द्वारा जगत्का निःसीम (बेहद ) उप- असजन समझना चाहिये। लोकमें भी कार होता है। इसी कारण परमात्माके उन्हें कृतघ्नी, अहसानफरामोश और गुणसार्व, परमहितोपदेशक, परमहितैषी भेट आदि बुरे नामोंसे पुकारा जाता है। और निर्निमित्तबन्धु इत्यादि भी नाम ऐसे लोग; जबतक उनकी यह दशा कायम कहे जाते हैं। इस महोपकारके बदलेमें रहती है, कभी उन्नति नहीं कर सकते हम (संसारी जीव) परमात्माके प्रति और न आत्मलाभके सन्मुख होसकते हैं। जितना आदर-सत्कार प्रदर्शित करें और इसलिये अपने महोपकारी परमात्माके जो कुछ भी कृतज्ञता जतलाएँ वह सब प्रति आदर-सत्कार रूपसे प्रवर्तित होना तुच्छ है। जो सज्जन अथवा साधजन हमारा खास कर्तव्य है। होते हैं वे अपने उपकारीके उपकारको दूसरे, जब श्रात्माकी परम स्वच्छ कभी नहीं भूलते, बराबर उसका स्मरण और निर्मल अवस्थाका नाम ही परमात्मा रखते हैं और इस उपकार-स्मृतिके चिह्न- है और उस अवस्थाको प्राप्त करनाखरूप अनेक प्रकारसे अपने उपकारीके अर्थात्, परमात्मा बनना सब आत्माओंप्रति अपना आदर सत्कार व्यक्त किया का अभीष्ट है, तब आत्मस्वरूपकी या करते हैं; जैसा कि, श्लोकवार्तिकमें, दूसरे शब्दोंमें परमात्मस्वरूपकी प्राप्तिके श्रीमद्विद्यानंदस्वामीद्वारा, परमात्माकी लिये परमात्माकी पूजा भक्ति और उपाउपासनाके समर्थनमें, उद्धृत किये हुए सना करना हमारा परम कर्तव्य है। निम्नलिखित एक प्राचीन पद्यसे प्रकट है:- परमात्माका ध्यान, परमात्माके अलौकिक
चरित्रका विचार और परमात्माकी अभिमतफलसिद्धेरभ्युपायः सुबोधः ।
ध्यानावस्थाका चिन्तवन ही हमको अपनी प्रभवति स च शास्त्रात्तस्यचोत्पत्तिराप्तात् ॥
आत्माकी याद दिलाता है-अपनी भूली इति भवति स पूज्यस्तत्प्रसादात्प्रबुद्धे.
हुई निधिकी स्मृति कराता है-उसीसे नहि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति ॥ आत्माको यह मालूम पड़ता है कि मैं . इस पद्यमें यह बतलाया गया है कि, कौन हूँ (कोवाऽहं) और मेरी आत्मशक्ति "मनोवांछित फलकी सिद्धिका उपाय क्या है (का च मे शक्तिः)। परमात्माका सम्यग्ज्ञान है ; सम्यग्ज्ञानकी उपलब्धि भजन और स्तवन ही हमारे लिये अपने शास्त्र के द्वारा होती है और शास्त्रकी प्रात्माका अनुभवन है । आत्मोन्नतिमें उत्पत्ति प्राप्त भगवानसे है, इसलिये वे अग्रसर होनेके लिये परमात्मा ही हमारा प्राप्तभगवान् (परमात्मा) जिनके प्रसादसे श्रादर्श है । आत्मीय गुणोंकी प्राप्तिके लिये प्रबुद्धताकी प्राप्ति होकर अभिमत फलकी हम उसी आदर्शको अपने सन्मुख रखकर सिद्धि होती है। संतजनोंके द्वारा पूज्य अपने चरित्रका गठन करते हैं। अपने ठहरते हैं। सच है साधजन किसीके किये श्रादर्श पुरुषके गुणोंमें भक्ति तथा अनहुए उपकारको कभी भूलते नहीं हैं।" रागका होना स्वाभाविक और ज़रूरी है। इससे जो लोग दूसरोंके किए हुए उप- बिना अनुरागके किसी भी गुणकी प्राप्ति
नहीं हो सकती। उदाहरणके लिये, यहि • श्रेयो मार्गस्य संसिद्धिः प्रसादात्परभेष्ठिनः। कोई मनुष्य संस्कृत भाषाका हि
-आप्तपरीक्षा। होना चाहे तो उसके लिये यह ज़र
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. जैनहितैषी।
[भाग १५ वह संस्कृत भाषाके विद्वानोंका संसर्ग उत्कट इच्छा होती है और उनके सम्बन्धकरे. उनसे प्रेम रक्खे, और उनकी सेवा में यह साफ तौरसे लिख भी दिया करते में रहकर कुछ सीखे, संस्कृतकी पुस्तको- हैं कि हम ऐसे परमात्म-गुणों की प्राप्तिके का प्रेमपूर्वक संग्रह करे और उनके अध्य- लिये परमात्माकी वन्दना करते हैं; जैसा यनमें चित्त लगाए। यह नहीं हो सकता कि सर्वार्थसिद्धि में श्रीपूज्यपादाचार्यके कि, संस्कृतके विद्वानोंसे तो घृणा करे, दिये हुए निम्न वाक्यसे प्रकट हैउनकी शकला तक भी देखना न चाहे, उनसे कोसों दूर भागे, संस्कृतकी पुस्तकोंको छुए
___ मोक्षमार्गस्य नेतारं भेतारं कर्मभूभृतां । तक नहीं, न संस्कृतका कोई शब्द अपने ज्ञातारं विश्वतत्वानां वंदे तद्गुणलब्धये ॥ कानों में पड़ने दे, और फिर संस्कृतका विद्वान् बन जाय । इसलिये प्रत्येक गुणकी
इससे यह बात और भी स्पष्ट हो
जाती है कि परमात्माकी उपासना मुख्य- . प्राप्तिके लिये उसमें सब ओरसे अनुराग
तया उसके गुणोंकी प्राप्तिके उद्देश्यसे की की बड़ी ज़रूरत है। जो मनुष्य जिस गुणका
जाती है, उसमें परमात्माकी कोई गरज आदर सत्कार करता है अथवा जिस
नहीं होती बल्कि वह अपनी ही गरज़ को. गुणसे प्रेम रखता है वह उस गुणके गुणी
लिये हुए होती है और वह गरज़ 'आत्मका भी अवश्य श्रादर सत्कार करता है और उससे प्रेम रखता है। क्योंकि गुणीके
९ लाभ' है जिसे परमात्माका आदर्श
र सामने रखकर प्राप्त किया जाता है। और श्राश्रय बिना कहीं भी गुण नहीं होता।
- इसलिये, जो लोग उपासनाके इस मुख्योआदर सत्कार रूप इस प्रवृत्तिका नाम .
द्देश्यको अपने लक्ष्यमें नहीं रखते और ही पूजा और उपासना है। इसलिये पर. मात्मा* इन्हीं समस्त कारणोंसे हमारा
न उपकारके स्मरण पर ही जिनकी दृष्टि
रहती है उनकी उपासना वास्तवमें उपापरम पूज्य और उपास्य देव है। उसकी
सना कहलाए जानेके योग्य नहीं हो इस उपासनाका मुख्य उद्देश्य, वास्तवमें,
सकती। ऐसी उपासनाको बकरीके गले में परमात्मगुणोंकी प्राप्ति-अथवा अपने
- लटकते हुए स्तनोंसे अधिक महत्त्व नहीं श्रात्मीय गुणोंकी प्राप्तिकी भावना है।
दिया जा सकता। उसके द्वारा वर्षों क्या, यह भावना जितनी अधिक दृढ़ और
___ कोटि जन्म में भी उपासनाके मूल उद्देश्यविशुद्ध होगी सिद्धि भी उतनी ही अधिक निकट होती जायगी । इसीसे अच्छे अच्छे
की सिद्धि नहीं हो सकती। और इसलिये, योगीजन भी निरन्तर परमात्माके गुणों
यह जीव संसारमें दुःखोंका ही पात्र बना
रहता है। दुःखोंसे समुचित छुटकारा का चिन्तवन किया करते हैं। कभी कभी
। तभी हो सकता है जब कि परमात्माके वे परमात्माका स्तवन करते हुए उसमें । उन खास खास गुणोंका उल्लेख करते हुए।
गुणोंमें अनुराग बढ़ाया जाय । परमात्मा
1. के गुणों में अनुराग बढ़नेसे पापपरिणति देखे जाते हैं जिनको प्राप्त करनेकी उनकी
सहजमें ही छूट जाती है और पुण्यपरि
णति उसका स्थान ले लेती है। इसी . इन्हीं कारणोंसे अन्य वीतरागी साधु और महात्मा भी, जिनमें आत्माकी कुछ शक्तियाँ विकसित हुई आशयको स्वामी समन्तभद्राचार्यने निम्न हैं और जिन्होंने अपने उपदेश आचरण तथा शास्त्र- वाक्य द्वारा, बड़े ही अच्छे ढंगसे प्रति. निर्माणसे हमारा उपकार किया है वे सब हमारे पूज्य है। पादित किया है:
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अङ्क १-२]
उपासना-तत्व। न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे,
प्रकृतियोंमें रस बढ़नेसे अन्तराय कर्म न निन्दया नाथ विवान्तवेरे।। नामकी प्रकृति, जोकि एक मूल पाप तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः,
प्रकृति है और हमारे दान, लाभ, भागोप
भोग आदिको विघ्नस्वरूप रहा करती पुनात चित्तं दुरितां जनेभ्यः॥
है-उन्हें होने नहीं देती-वह भग्नरस -बृहत्स्वयमुस्तात्र। होकर निर्बल पड़ जाती है और हमारे इसमें स्वामी समन्तभद्र, परमात्माको इष्टको बाधा पहुँचानेमें समर्थ नहीं रहती। लक्ष्य करके उनके प्रति, अपना यह श्राशय तब, हमारे बहुतसे लौकिक प्रयोजन सिद्ध व्यक्त करते हैं कि "हे भगवन्, पूजा भक्ति- हो जाते हैं और उनका श्रेय उक्त उपासनासे आपका कोई प्रयोजन नहीं है, क्योंकि को ही प्राप्त होता है। जैसा कि एक आप वीतरागी हैं-रागका अंश भी प्राचार्य महोदयके निम्नवाक्यसे प्रकट है:आपके आत्मामें विद्यमान नहीं है जिसके ।
नेष्टं विहन्तुं शुभभावभग्नकारण किसीकी पूजा भक्तिसे आप प्रसन्न
___ • रसप्रकर्षः प्रभुरंतरायः । होते। इसी तरह निन्दासे भी आपका
तत्कामचारेण गुणानुरागाकोई प्रयोजन नहीं है-कोई कितना ही आपको बुरा कहे, गालियाँ दे, परन्तु उस
न्नुत्यादिरिष्टार्थकदाऽहंदादेः ॥ पर आपको ज़रा भी क्षोभ नहीं पा सकता; ऐसी हालतमें यह कहना कि परक्योंकि आपके आत्मासे बैरभाव, द्वेषांश, मात्माकी सच्ची पूजा, भक्ति औप उपाबिलकल निकल गया है-वह उसमें सनासे
क प्रयोजनोंकी भी विद्यमान ही नहीं है जिससे क्षोभ तथा सिद्धि होती है, कुछ भी अनुचित न अप्रसन्नतादि कार्योंका उद्भव हो सकता। होगा। यह ठीक है कि, परमात्मा स्वयं ऐसी हालतमें निन्दो और स्तुति दोनों अपनी इच्छापूर्वक किसीको कुछ देता ही आपके लिये समान हैं-उनसे आपका दिलाता नहीं है और न स्वयं आकर कुछ बनता या बिगड़ता नहीं है तो भी अथवा अपने किसी सेवकको भेजकर आपके पुण्य गुणोंके स्मरणसे हमारा भक्तजनोंका कोई काम ही सुधारता है, तो वित्त पापोंसे पवित्र होता है-हमारी भी उसकी भक्तिका निमित्त पाकर हमारी पापपरिणति छूटती है-इसलिये हम कर्मप्रकृतियोंमें जो कुछ उलटफेर होता भक्तिके साथ आपका गुणानुवाद गाते है उससे हमें बहुत कुछ प्राप्त हो जाता है हैं-आपकी उपासना करते हैं ।" और हमारे अनेक बिगड़े हुए काम भी
- जब परमात्माके गुणोंमें अनुराग सुधर जाते हैं । इसलिये परमात्माके बढ़ाने, उनके गुणोंका प्रेमपूर्वक स्मरण प्रसादसे हमारे लौकिक प्रयोजन भी
और चिन्तवन करनेसे शुभ भावोंकी सिद्ध होते हैं अथवा अमुक कार्य सिद्धि उत्पत्ति द्वारा पापपरिणति छूटती और हो गया, इस कहने में, सिद्धान्तकी दृष्टिसे पुण्यपरिणति उसका स्थान लेती है तो कोई विरोध नहीं आता। परन्तु फलनतीजा इसका यही होता है कि हमारी प्राप्तिका यह सारा खेल उपासनाकी पाप प्रकृतियोंका रस सूखता और पुण्य प्रशस्तता, अप्रशस्तता और उसके द्वारा प्रकृतियोंका रस बढ़ता है । पाप प्रकृतियों- उत्पन्न हुए भावोंकी तरतमता पर निर्भर .. का रस (अनुभाग) सूखने और पुण्य है। अतः हमें अपने भावोंकी उज्ज्वलता,
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... जैनहितैषी।
[भाग १५
N
निर्मलता और उनके उत्कर्षसाधन पर भटकते हैं, अनेक रागी द्वेषी देवताओंकी
तौरसे ध्यान रखना चाहिये और शरणमें प्राप्त होकर उनकी तरह तरहकी वह तभी बन सकता है जब कि परमात्मा- उपासना किया करते हैं और इस तरह की उपासना उपासनाके ठीक उद्देश्यको पर अपने जैनत्वको भी कलंकित करके समझकर की जाय और उसमें प्रायः जैनशासनकी अप्रभावनाके कारण बन लौकिक प्रयोजनों पर दृष्टि न रक्खी जाय। जाते हैं। जो लोग केवल लौकिक प्रयोजनोंकी दृष्टि- ऐसी कच्ची प्रकृति और ढीली श्रद्धाके से-सांसारिक विषयकषायोंको पुष्ट मनुष्योंकी दशा, निःसन्देह, बड़ी ही करनेकी ग़रज़से-परमात्माकी उपासना करुणाजनक होती है ! ऐसे लोगोंको ख़ास करते हैं, उसके नाम पर तरह तरहकी तौरसे उपासना-तत्त्वको जानने और समबोल-कबूलत बोलते हैं और फलप्राप्तिकी भनेकी ज़रूरत है। उन्हें ऊपरके इस शर्त पर पूजा-उपासनाका वचन निकालते सम्पूर्ण कथनसे खूब समझ लेना चाहिये हैं उनके सम्बन्धमें यह नहीं कहा जा कि, जैनदृष्टिसे परमात्माकी पूजा, भक्ति सकता कि वे परमात्माके गुणोंमें वास्त. और उपासना परमात्माकोप्रसन्न करनेविक अनुराग रखते हैं, बल्कि यदि यह खुशामद द्वारा उससे कुछ काम निका. कहा जाय कि वे परमात्माके स्वरूपसे ही लनेके लिये नहीं होती और न सांसारिक अनभिज्ञ हैं तो शायद कुछ ज्यादा अनु- विषयकषायोंका पुष्ट करना ही उसके चित न होगा । ऐसे लोगोंकी इस प्रवृत्ति- द्वारा अभीष्ट होता है। बल्कि, वह ख़ास से कभी कभी बड़ी हानि होती है। वे तौरसे परमात्माके उपकारका स्मरण सांसारिक किसी फलविशिष्टकी श्राशा- करने और परमात्माके गुणोंकी-आत्मसे-उसकी प्राप्तिके लिये-परमात्माकी स्वरूपकी-प्राप्तिके उद्देश्यसे की जाती पूजा करते हैं; परन्तु फलकी प्राप्ति अपने . है। परमात्माका भजन और चिन्तवन अधीन नहीं होती, वह कर्म-प्रकृतियों के करनेसे-उसके गुणों में अनुराग बढ़ानेसे उलट-फेरके अधीन है। दैवयोगसे यदि पापोंसे निवृत्ति होती है और साथ ही कर्म-प्रकृतियोंका उलट-फेर, योग्य भावोंको महत्पुण्योपार्जन भी होता है, जोकि स्वतः न पाकर, अपने अनुकूल नहीं होता और अनेक लौकिक प्रयोजनोंका साधक है। इसलिये अभीष्ट फलकी सिद्धिको अव- इसलिये जो लोग परमात्माकी पूजा, सर नहीं मिलता तो ऐसे लोगोंकी श्रद्धा भक्ति और उपासना नहीं करते वे अपने डगमगा जाती है अथवा यो कहिये कि आत्मीय गुणोंसे पराङ्मुख और अपने उस वृक्षकी तरह उखड़ जाती है जिसका प्रात्मलाभसे वंचित रहते हैं, इतना ही कुछ भी गहरा मूल नहीं होता । उन्हें यह नहीं, किन्तु कृतघ्नताके महान् दोषसे भी तो खबर नहीं पड़ती कि हमारी उपासना दूषित होते हैं। अतः ठीक उद्देश्यों के साथ भावशन्य थी, उसमें प्राण नहीं था और परमात्माकी पूजा, भक्ति, उपासना और इसलिये हमें सची उपासना करनी श्राराधना करनासबके लिये उपादेय और चाहिये; उलटावे परमात्माकी पूजो-भक्तिमें ज़रूरी है। हतोत्साह होकर उससे उपेक्षित हो बैठते हमारा विचार अभी इस विषय पर हैं। साथ ही, अपनी अभीष्ट सिद्धि के बहुत कुछ प्रकाश डालनेका है परन्तु इस लिये दूसरे देवी-देवताओंकी तलाशमें समय लेख अधिक बढ़ जानेके भयसे
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अङ्क १-२ ]
यह विराम लेना उचित समझते हैं। इस लेखका दूसरा भाग (उत्तरार्ध), जो 'मूर्तिपूजा' से सम्बन्ध रखता है, अगले
कमें दिया जायगा और उसमें उपासनाके ढंग पर भी ख़ासा विवेचन किया जायगा । इसके सिवाय 'स्तुतिप्रार्थनादि रहस्य' नामका एक दूसरा विस्तृत स्वतन्त्र लेख लिखनेका भी हमारा विचार हो रहा है, जिसमें जैनियोंके भक्तिमार्ग पर और भी ज्यादह विशेषताके साथ प्रकाश डाला जायगा और स्तुतियों तथा प्रार्थनाओं आदि के रहस्यको खोलकर रक्खा जायगा । इन सब लेखोंसे, हम समझते हैं, उपासनाका विषय बहुत कुछ विशद और स्पष्ट हो जायगा ।
सरसावा, ता०१-१२-२०
पुरानी बातोंकी बोज ।
पुरानी बातोंकी खोज । १- तत्त्वार्थराजवार्तिकका अन्तिम वाक्य |
सनातन जैन ग्रन्थमालामें श्रीयुत पं० पन्नालालजी बाकलीवालने 'तत्त्वार्थराजवार्तिक' नामका जो ग्रन्थ प्रकाशित कराया है उसके अन्तमें ३२ श्लोक 'उक्तंच' रूपसे दिये हैं और उनके साथ ही ग्रंथ समाप्त कर दिया है । इन श्लोकोंके बाद ग्रंथकी समाप्तिसूचक कोई पद्य नहीं दिया; यह बात हमें बहुत खटकती थी और इसलिये हमें इस बातकी खोजमें थे कि प्रन्थकी श्रन्यान्य हस्तलिखित प्रतियों परसे यह मालूम किया जाय कि उनका भी ऐसा ही हाल है अथवा किसीमें कुछ विशेष है। खोज करते हुए जैन सिद्धान्तअवन, धाराकी एक प्रतिमें, जिसका
नम्बर ५१ है, उक्त ३२ श्लोकों के बाद, एक प हमें इस प्रकार मिला है:इति तत्त्वार्थसूत्राणां भाष्य भाषितमुशमः । यत्र संनिहितस्तर्कन्यायागमविनिर्णयः ॥
इस पद्यके द्वारा तत्त्वार्थ सूत्रोंके - अर्थात्, तत्त्वार्थ शास्त्र पर बने हुए वार्तिकोंके - भाष्य की समाप्तिको सूचित किया है और यह बतलाया है कि इस भाष्यमें तर्क, न्याय और श्रागमका विनिर्णय अथवा तर्क, न्याय और आगमके द्वारा विनिर्णय संनिहित है । इसमें संदेह नहीं कि यह पद्य तत्त्वार्थवार्तिक भाष्यका अन्तिम वाक्य मालूम होता है । परंतु अनेक प्रतियोंमें यह वाक्य नहीं पाया जाता, इसे लेखकोंकी करामात समझना चाहिये ।
२- न्यायदीपिका की प्रशस्ति । श्राराके जैनसिद्धान्तभवनमें 'न्यायदीपिका की जो प्रति नं० १५६ की है उसके अन्त में निम्नलिखित प्रशस्ति पाई जाती है:
मद्गुरोर्वर्धमानेशो वर्धमानदयानिधेः । श्रीपाद स्नेह सम्बंधात्सिद्धयं न्यायदीपिका ॥१॥ और इसके बाद अन्तिम संधि इस प्रकार दी है:
'इति श्रीमद्वर्धमानभट्टारकाचार्य गुरुकारुण्यसिद्धसारस्वतोदय भीमदभिनव धर्म भूषणाचार्य विरचितायां न्यायदीपिकाय । मागमप्रकाशः समाप्तः ।
यह सन्धि और उक्त प्रशस्ति दोनों चीजें, सन् १९११ में, जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय द्वारा प्रकाशित हुई 'न्यायदीपिका' में नहीं हैं और न इससे पहलेकी छपी हुई किसी प्रतिमें हैं । श्रनेक हस्तलिखित प्रतियों में भी ये नहीं देखी गई। हाँ दौर्वलि जिनदासशास्त्रीके भंडारमें जो इस ग्रन्थकी दो प्रतियाँ हैं उनका अन्तिम भाग एक
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बार जैनहितैषी में प्रकाशित हुआ था* वह उक्त सन्धिसे मिलता जुलता है, कुछ थोड़ा सा भेद है। मालूम नहीं प्रशस्तिका उक्त पद्य भी है या नहीं। उन प्रतियों में प्रशस्तिके इस पद्यसे ग्रन्थकी वह त्रुटि पूरी हो जाती है जो कि एक गद्यात्मक
के प्रारम्भ में मंगलाचरण तथा प्रतिज्ञा विषयक श्लोकको देकर अन्तमें समाप्ति आदि विषयक कोई पद्य न देनेसे खटकती थी। साथ ही, यह बात स्पष्ट हो जाती है कि ग्रन्थकर्ताके गुरु वर्धमानेश अर्थात् वर्धमान भट्टारक थे और उन्हींके श्रीपाद स्नेहसम्बन्धसे यह न्यायदीपिका सिद्ध हुई है । ग्रन्थकर्ताने प्रारम्भिक पद्य अर्हन्तका विशेषण 'श्रीवर्धमान' देकर (श्रीवर्धमानमर्हतं नत्वा, लिखकर ) उसके द्वारा भी अपने गुरुका स्मरण और सूचन किया है । ये वर्धमानभट्टारक कौन थे और उन्होंने किन किन ग्रन्थोंका प्रणयन किया है, यह बात, यद्यपि, अभीतक स्पष्ट नहीं हुई तो भी 'वरांगचरित्र' नामका एक ग्रन्थ x वर्धमान भट्टारकका बनाया हुआ उपलब्ध है और उसकी संधियोंमें भट्टारक महोदयका परवादिदंतिपंचानन' विशेषण दिया है, जैसा कि उसकी निम्नलिखित अन्तिम सन्धिसे . प्रकट है:
-
इति परवादिदन्तिपंचाननश्री वर्धमानभट्टादेवविरचिते वरङ्गचरिते सर्वार्थसिद्धि-गमनो नाम त्रयोदशमः सर्गः ।
जैनहितैषी ।
जान पड़ता है 'परवादिदन्तिपंचानन' यह वर्धमान भट्टारकका विरुद था अथवा उनकी उपाधि थी; और इससे वे एक नैय्यायिक विद्वान् मालूम होते हैं ।
● देखो जैनहितैषी भाग ११ अंक ७–८
X तत्वनिश्चय और द्वादशांग चरित्र नामके दो ग्रंथ भी वर्धमान भट्टारकके बनाये हुए कहे जाते हैं परन्तु उनका कोई अंश अभीतक हमारे देखने में नहीं आया ।
[ भाग १५
न्यायदीपिका के कर्ता धर्मभूषणके गुरु भी नैयायिक विद्वान् होने चाहिये और उन्हें न्यायदीपिकाकी उक्त संधिमें 'भट्टारक' भी लिखा है । इसलिये, हमारे ख़यालसे, ये दोनों एक ही व्यक्ति जान पड़ते हैं । यदि यह सत्य है तो धर्मभूषणके गुरु मूलसंघ, बलात्कारगण और भारती गच्छके श्राचार्य थे; जैसा कि वरांगचरित्रकी प्रशस्तिके निम्न वाक्यसे प्रकट है:
स्वस्ति श्री मूलचे भुवविदितगणे भीकाकारसंज्ञे । श्रभि रत्यादिगच्छे सकलगुणनिधिर्वमानाभिधान : || आसीद्भट्टारकोऽसौ .....
न्यायदीपिकाकी उक्त संधिसे यह साफ जाहिर है कि इस ग्रन्थके कर्ता से पहले कोई दूसरे 'धर्मभूषण' नामके श्राचार्य भी हो गये हैं और इसलिये ये 'अभिनव धर्म भूषण' कहलाते थे। इन्हें गुरुके अनुग्रहसे सारखतोदयकी सिद्धि थी । ३- अठारह लिपियोंके नाम ।
जैन सिद्धान्त भवन आरामें, धर्मदास सूरिका बनाया हुआ 'विदग्धमुखमंडन' नामका एक बौद्ध ग्रन्थ है । इस ग्रन्थकी समाप्तिके बाद पत्रके खाली स्थान पर कुछ संस्कृत प्राकृतके पद्य लिखे हुए हैं; जिनमें से पहले पद्यके बाद ज़रासा संस्कृत गद्य देकर अठारह लिपियोंकी सूचक दो गाथाएँ दी हैं जो सब इस प्रकार हैं:
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"शुभं भवतु श्रीसंघस्य भद्रं । हंसलिवी [१] भूयकिवी [१], जक्खी [३] रखुसी [४] य बोधव्त्रा ४ (1)
५ (ऊ) ही जवणि ६ तुरुक्की ७, कीरी ८ दविड (डी) य ९ सिंघविया १० ॥ १ ॥
मालविणी ११ नडि १२ नागरि १३, लाडलिवी १४ पारसि (सी) य १५ बोधव्वा [1] तह अनिमति ( त ) य लिबी १६, चाणक्की १७ मूलदेवी य १८ ॥ २ ॥
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अङ्क १-२ ]
जैन सिद्धान्तभवन, श्रशका निरीक्षणं ।
अष्टादश लिप्यः ॥”
द्राविडी,
इनसे अठारह लिपियोंके १ हंस लिपि, २ भूतलिपि, ३ यक्षी, ४ राक्षसी ५ ऊही ( उडिया ? ), ६ यवनानी ( यूनानी), ७ तुरुकी, = कीरी (काश्मीरी), १० सिंघवी, ११ मालविणी, १२ नडि (कनड़ी ? ), १३ देवनागरी, १४ लाडलिपि (लाटी), १५ पारसी (फ़ारसी), १६ अमात्रिक लिपि, ६० चाणक्यी ( गुप्तलिपि ), और १८ मूलदेवी, ( ब्राह्मी ? ) ये नाम पाए जाते हैं । इनमें से अनेक लिपियोंका विशेष परिचय मालूम करने और उनके उदय-अस्त को जानने की ज़रूरत है । ( क्रमशः )
जैन सिद्धान्तभवन, आराका निरीक्षण |
बहुत दिनों से हमारी इच्छा आराके जैन सिद्धान्त भवनको देखने और उसके प्राचीन ग्रन्थों तथा इतर ग्रन्थसंग्रह परसे कुछ अनुसंधान करनेकी थी। भवनमें किसी कनड़ी विद्वान्के न होनेके कारण यह इच्छा अभी तक पूरी नहीं हो सकी थी । अनेक बार इस बातकी कोशिश की गई कि भवन में कोई कनड़ीका विद्वान् बुलाया जाय परन्तु सफलता नहीं हुई । भवन से जो सूची एक लम्बे चौड़े समयकी प्रतीक्षा और बहुतसी उच्च आशाओंके बाद, गतवर्ष प्रकाशित हुई थी वह इतनी अव्यवस्थित, अधूरी और भ्रमपूर्ण पाई गई कि उसकी प्रायः किसी भी बात पर सहसा विश्वास करनेके लिये हृदय तय्यार नहीं होता था। कई बार, जैनहितैषीमें, सूचीसम्बन्धी कुछ बातों पर मोट करनेकी ज़रूरत पड़ी और भवनके मन्त्री साहबसे उनका समाधान तथा
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स्पष्टीकरण माँगा गया । परन्तु वे ऐसा करने में पूर्णरूप से असमर्थ रहे और अन्तमें उन्हें यही लिखना पड़ा कि हमारे पास कोई कनड़ी जाननेवाला विद्वान् नहीं है, इसलिये हम आपकी अभीष्ट बार्तोका उत्तर देने में असमर्थ हैं । इन सब बातोंने भवनमें एक कनड़ी विद्वान् के जल्द बुलाये जानेकी ज़रूरतका और भी अधिकताके साथ उपस्थित कर दिया । देहलीमें, एक प्रसंग पर, हमारा स्वर्गीय बाबू देवकुमारजी बाबू निर्मल कुमारजीके सुपुत्रसे मिलना हुआ । उस समय हमने आपसे एक कनड़ी विद्वान के बुलानेकी प्रेरणा करते हुए यह भी कहा कि यदि फ़िलहाल 'वेतन पर कोई ऐसा विद्वान् न श्रा सके तो कमसे कम श्रीमान् नेभिसागरजी वर्णीका चातुर्मास श्रारामें कराइये जिससे हम उनके साथमें रहकर सूचीका कुछ संशोधन करा सकें । इसपर भाई निर्मलकुमारजीने वर्गीजीको लिखा और वर्णीजीके अनुग्रहसे, सौभाग्यवश, पं०. शांतिराजय्या नामके एक सुयोग्य विद्वान्की भवनको प्राप्ति हो गई, जो कि कनड़ी और संस्कृतके साथ साथ ख़ासी हिन्दी भी जानते हैं। पंडितजीके भवनमें पहुँच जाने पर उन्हें काम के लिये पहले कुछ सूचनाएँदी गई, उसके बाद ५ सितम्बरको सरसावासे चलकर = सितम्बर सन् १९२० को हम श्रारा पहुँच गये । ३१ अक्टूबर तक वहाँ रहना हुआ - अर्थात्, महीना २२ दिन भवनमें ठहर कर हमने उसका निरीक्षणादि कार्य किया और साथ ही अनेक विषयोंका अनुसन्धान भी किया जिसका परिचय समय समय पर हितैषीके पाठकोंको दिया जायगा ।
एक
यह भवन श्रीमन्दिरजीके एक बग़ली कमरेमें स्थापित है। इसमें प्रवेश करते ही सबसे पहली दृष्टि भवनके संस्थापक
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जैनहितैषी।
[भाग १५ स्वर्गीय बाबू देवकुमारजीके चित्र पर से हमें कभी यह ख़याल नहीं होता था पड़ती है, जो कि एक बड़ा ही सुन्दर कि भवन ऐसी तंग जगहमें स्थित होगा।
और मनोमोहक चित्र है। इसे देखनेसे परन्तु अब प्रत्यक्ष दर्शन होने पर सब भ्रम स्वर्गीय बाबूसाहबकी स्मृति ही ताज़ा दूर हो गया। भवनमें कई कई शास्त्र एक नहीं होती बल्कि उनकी साक्षात् जीती वेष्टनमें लिपटे हुए रक्खे हैं। यदि उन जागती पुण्यमूर्ति सामने आ जाती है। सबको गत्ते लगाकर अलग अलग वेष्टनों हमें इस विशाल चित्रको देखनेसे बड़ी में बाँधा जाय तो कई आलमारियोकी ही प्रसन्नता और शान्तिकी प्राप्ति हुई। और ज़रूरत पड़े, जिनके लिये भवनमें
भवनका स्थान यद्यपि स्वच्छ और स्थान नहीं है। स्थानकी इस कमीको दूर साफ़ है परन्तु उसमें जगहकी बहुत बड़ी करनेके लिये भवनकी एक जुदी बिल्डिंग कमी है। एक लम्बेसे कमरेमें भवनकी बनानेकी तजवीज हो रही है, जिसके बारह आलमारियाँ रखी हुई हैं जो सब लिये एक स्त्रीने जगह दी है जो कि. इस हस्तलिखित तथा मुद्रित ग्रन्थोंसे परिपूर्ण भवनके पास ही है और फंड दस हज़ार हैं। इस लम्बे कमरेके मुख पर एक छोटी रुपयेके करीब जमा है; जैसा कि बाबू सी कोठरीके रूपमें दूसरा कमरा है जहाँ निर्मलकुमारजीकी ज़बानी मालूम हुआ। बाबू देवकुमारजीका उक्त चित्र दीवारके इस भवनका अँगरेज़ी नाम 'दि सेंट्रल जैन संहारे एक टेबिल पर उत्तरमुख विराज- मोरियंटल लायब्रेरी' ( The Central मान है। इसी कमरेमें पावापुर आदि Jain Oriental Library ) है। परन्तु तीर्थों तथा देशी-विदेशी विद्वानों आदिके जहाँ तक हम देखते हैं अभी तक इस कुछ दूसरे चित्र भी हैं जो सब कमरेके भवनको आधुनिक लायब्रेरियों जैसा उपऊपरी भाग तक दीवारों पर लटके हुए हैं। योगी रूप नहीं दिया गया है। अव्वल तो इन चित्रोंमें एक बड़ा चित्र श्रीपादी- यह एक मन्दिरके कोने में स्थित है जहाँ श्वर भगवान् के समवसरणका है, जिसके हर एक शख्स आजादीके साथ जा आ तय्यार कराने में एक हज़ारसे ऊपर रुपया नहीं सकता, दूसरे किसी लायब्रेरियन खर्च होना बतलाया जाता है। चित्रकला- (ग्रन्थालयाध्यक्ष) का स्थायी प्रब न्ध भी की दृष्टिसे यह चित्र निःसन्देह एक बड़े इसमें नहीं है और तीसरे इसकी सूचीकी ही महत्त्वका चित्र है और इसमें बहुत ही ऐसी दशा नहीं है जिसके आधार पर कुछ बारीकीके साथ काम दिखलाया गया कोई ग्रन्थ सहसा अपने स्थानसे निकाल है। परन्तु शास्त्रीय दृष्टिसे इसमें अनेक कर देखा जा सके। छपी हुई सूचीमें बातें कुछ आपत्तिजनक भी पाई जाती हैं; कुछ ग्रन्थोंके सिवाय शेष ग्रन्थोंके जो जैसे कि आदीश्वर भगवान्के केशोको नम्बर दिये हैं वे उन नम्बरोंसे भिन्न हैं कंधों तक फैले हुए दिखलाना और कुछ जो ग्रन्थों पर पड़े हुए हैं और रजिस्टरोंदेवांगनाओको बूढ़ी चित्रित करना, इत्या- में ग्रन्थ अकारादि क्रमसे अथवा विषयदिक । अस्तु; बाहर भीतरके इन दोनों क्रमसे दर्ज नहीं हैं इसलिये एक ग्रन्थकी कमरोकी लम्बाई प्रायः ग्यारह गज और तलाशमें कभी कभी घण्टों लग जाते चौड़ाई तीन सवा तीन गज़के करीब हैं-इसीसे साधारण जनता अब तक इस होगी । भवनके सम्बन्धमें जैसी कुछ बातें भवनसे उस प्रकारका (आधुनिक लायअभी तक कानोंमें पड़ती आई हैं उनपर ब्रेरियो जैसा) कोई लाभ नहीं उठा सकी
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अङ्क १-२] जैनसिद्धान्तभवन, पाराका निरीक्षण। और न ऐसी. हालतमें उठा सकती है। बंडलोका एक एक पत्र उलटपुलट कर भवनके लिये एक सुव्यवस्थित और प्रामा- नहीं देखा, बल्कि दस दस बीस बीस णिक सूचीका तय्यार करना सबसे बड़ा पत्रोंको एक साथ उलटा है और या बंडलमुख्य और ज़रूरी कार्य था जिसे वह के अन्तमें जिस ग्रन्थका नाम पाया है
ब तक पूरा नहीं कर सका। उसकी वही नाम अनेक ग्रन्थोवाले उस समृचे वर्तमान छपी हुई सूचीकी यदि सम्यक् बंडलको दे दिया है। इसीसे बहुतसे छोटे मालोचना की जाय तो अशुद्धियों त्रुटियों मोटे ग्रन्थ सूची में दर्ज होनेसे रह गये और दोषोंके दिग्दर्शन मात्रसे कई पेज और अनेक ग्रन्थोंकी पत्रसंख्या तथा भर जायँ। परन्तु यहाँ पर हमें उसकी श्लोकसंख्या अपने नियत परिमाणसे बढ़ विशेष आलोचना करना इष्ट नहीं है। गई। साथ ही कुछ बंडल (कागज पर) हाँ, इतना ज़रूर बतलाना होगा कि भवन- ऐसे भी हैं जिनकी सूची तय्यार ही नहीं में ऐसे सैकड़ों हस्तलिखित और मुद्रित की गई। अधिकारीवर्गकी ओरसे यह कहा प्रन्थ मौजूद हैं जो सूचीमें दर्ज नहीं जाता है कि, हम लोग कनड़ी लिपिसे हुए । मुद्रित ग्रन्थोंसे अभिप्राय यहाँ उन बिलकुल अनभिज्ञ हैं इसलिये कनड़ीके अंगरेजी पुस्तकोंसे नहीं है जिनकी सूची विद्वानोंने इन ग्रन्थों परसे जैसी कुछ सूची अलग छपनेके लिये गई हुई है और जो तय्यार करके दी वैसी ही हमने छपवा किसी ऐसे आलसी तथा लापर्वाह प्रेस- दी है; हम उसकी क्या जाँच कर सकते के गले मढ़ी गई है कि छपकर तय्यार थे। यह कहना यद्यपि कुछ अंशोंमें ठीक होने में ही नहीं पाती। इस अँगरेज़ी सूची- हो सकता था, यदि सूचीका शेषांश की बाबत प्रकृत सूचीमें यह सूचना सन्तोषजनक और विश्वसनीय होता। निकाली गई थी कि, 'वह पृथक् छपी है। परन्तु ऐसा नहीं है। और इसलिये जब हम जो महाशय चाहे, मँगा सकते हैं । परन्तु देवनागरी लिपिके ग्रन्थोंका भी बहुत कुछ बेद है कि साल भरसे अधिक समय ऐसा गड़बड़ हाल पाते हैं तो उक्त कहनेबीत जाने पर भी वह अभी तक किसी का हृदय पर कुछ भी वजन तथा असर महाशयको मँगाने पर नहीं मिल सकती। बाकी नहीं रहता और यही ख़याल होता हम समझते हैं, उक्त सूचनाको निकालने- है कि यह सब उपेक्षा और लापरवाहीका के कारण मन्त्री साहबको भी अब उसका नतीजा है। सूचीके तय्यार करने में बहुत ज़रूर खेद होगा। हस्तलिखित ग्रन्थोंमें कम परिश्रम और सावधानीसे काम ज्यादातर ग्रन्थ कनड़ी लिपिके हैं जो लिया गया है और इसमें तो कोई सन्देह सूची में दर्ज होनेसे रह गये हैं और जिनके ही नहीं कि अब तक इस सूचीका काम माम रजिस्टरोंमें भी चढ़े हुए नहीं हैं। सुव्यवस्थित रूपसे नहीं चलाया गया। इस प्रकारकी गलतियोंका खास कारण देवनागरी लिपिके हस्तलिखित जैनयही मालूम होता है कि जिन कनड़ी ग्रन्थों में भी छोटे बड़े पचासों ग्रन्थ ऐसे विद्वानोंने भवनमें काम किया है उनमें से हैं जो सूची में दर्ज नहीं हुए हैं और अजैन अधिकांशने या तो स्वतः और अधिकारी हस्तलिखित ग्रन्थोंकी तो बात ही जुदी वर्गकी प्रेरणासे प्रायः चलता काम किया है। उनकी एक अलग आलमारी भरी हुई है-थोड़े समयमें बहुतसा काम निका- है जिसमें सैकड़ों ग्रन्थ होंगे और जिनका लमा अथवा दिखलाना चाहा है, ग्रन्थोंके सूचीमें कहीं जिकर भी नहीं है। लगभग
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पाँच वर्ष हुए एक स्थानसे दो ग्रन्थ भवनको भेजे गये थे और यह लिखा गया था कि हमें इनके नामादिकका कुछ पता नहीं चलता, आप किसी विद्वान्को दिखलाकर इनका पता चलाना और भवनमें विराजमान करना । ये दोनों ग्रन्थ छपी हुई सूचीमें तो क्या भवनके किसी रजिस्टर में भी दर्ज नहीं हुए और न भवनकी तरफसे इस बातका कोई प्रयत्न हुआ कि किसी विद्वान् को दिखलाकर उनका परिचय प्राप्त किया जाय। हाँ, पत्रके साथ दोनों प्रन्थ भवनमें रक्खे हुए ज़रूर हैं- इनमेंसे एक ग्रन्थ अपभ्रंश प्राकृत भाषाका 'सन्मतिचरित्र' है जिसे रैधू कविने बनाया है और जो वि० संवत् १६४८ का लिखा हुआ है; दूसरा एक छोटासा खण्डित संस्कृत ग्रन्थ है जो अपने साहित्य परसे कोई साधारण ग्रन्थ जान पड़ता है। इससे पाठक समझ सकते हैं कि पिछले कुछ सालों में भवनमें कैसा दिलचस्पी के साथ काम हुआ है !
जैनहितैषी ।
देवनागरी अक्षरोंके हस्तलिखित संस्कृत और प्राकृत ग्रन्थोंकी जो सूची मुद्रित सूची में पृष्ठ ४१ से ५४ तक दर्ज है उसकी हमने स्वयं मूल ग्रन्थोंपरसे जाँच की है। जाँच से हमें सैकड़ों त्रुटियाँ, शु दियाँ और भूलें मालूम हुई हैं। उदाहरणके तौर पर दो चार नमूने उनके नीचे दिखलाये जाते हैं:
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१- पृष्ठ ४४ पर 'तत्त्वार्थरत्नदीप ' नामका प्रन्थ 'धर्मकीर्ति का बनाया हुआ लिखा है और उसकी पत्रसंख्या २७२ दी है । परन्तु वास्तवमें यह प्रन्थ तत्त्वार्थ सूत्रकी 'तत्त्वार्थरत्नदीपिका' नामकी कनड़ी टीका है जो देवनारी अक्षरोंमें लिखी हुई है और इसकी प्रत्येक सन्धिर्मे कर्ताका नाम बहुत स्पष्ट रीति से 'बालचन्द्र मुनि' दिया
[ भाग १५
है, पत्रसंख्या इसकी २६१ है और साथ ही ग्रन्थके अन्तमें श्लोकसंख्या भी ७०३६ दी है जिसे सूची में दर्ज नहीं किया। इस तरह इसके सम्बन्धकी प्रायः सभी बातें सूची में गलत दर्ज हुई हैं। बात यह है कि इस प्रन्धके अन्त में किसी दूसरे ग्रन्थका एक प्रकरण नकल किया हुआ है जिसमें धर्मकीर्तिकी बहुत प्रशंसा की गई है। सूची तय्यार करनेवाले महाशयने इतने परसे ही इस समूचे ग्रन्थको धर्मकीर्तिका बना दिया और प्रन्थके पत्रोंको उलटने का कष्ट नहीं उठाया । साथ ही ग्रन्थनाममें भी कुछ थोड़ी सी भूलको स्थान दे दिया ।
२- पृष्ठ ४६ पर ६५ नम्बरकी 'पंचपरमेष्ठिपूजा' का कर्ता 'रत्नसागर' ग़लत लिखा है, उसका कर्ता 'यशोनन्दी' है । सूची बनानेवालोंने लिपिकर्ताको प्रन्थकर्ता समझ लिया है !
३- पृष्ठ ४४ पर 'जिनमुखावलोकनकथा' का कर्ता 'संकलकीर्ति' के स्थान में 'रत्नकीर्ति' लिखा है और पत्रसंख्या भी ५ के स्थान में १४ ग़लत दर्ज की है । ग्रन्थके नाम में 'कथा' से पहले 'व्रत' शब्द और होना चाहिये था और साथ ही उसकी श्लोकसंख्या भी ८७ दर्ज करनी चाहिये थी ।
४- पृष्ठ ४८ पर 'ब्रह्मचर्याष्टक' नामका जो ग्रन्थ १११ पत्रसंख्यावाला दिया है वह वास्तव में सटीक 'पद्मनंदिपंचविंशतिका' है। अंतमें ब्रह्मचर्याष्टक नामका प्रकरण देखकर ही समूचे ग्रन्थको यह गलत नाम दिया गया है ।
५- पृष्ठ ५० पर 'शासनप्रभावना' कामकाएक ग्रन्थ विनयचंद्रका बनाया हुआ लिखा है जो बिलकुल गलत है । वास्तवमें यह ग्रन्थ पं० श्राशाधरके प्रतिष्ठासारोद्धार (जिनयज्ञकल्प) नामके ग्रन्थका
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प्रक१-२] जैनसिद्धान्तभवन, माराका निरीक्षण । टिप्पण-संग्रह है । सूची बनानेलालोंको उससे इस सूची में भी सैकड़ों त्रुटियों, टिप्पणके कुछ अन्तिम शब्दों परसे ग्रन्थके अशुद्धियों और भूलोका पता चलता है। नामादिकका यह सब भ्रम हुआ है। इस नमूनेके तौर पर दो एक उदाहरण इसके प्रन्थका पता चलाना खास अनुभवसे भी नीचे दिये जाते हैं:सम्बन्ध रखता था; क्योंकि इसमें मूल १-पृष्ठ ११ पर 'जीवतत्त्वप्रदीपिका' प्रन्थ दिया हुआ नहीं है, खालिस टिप्पण नामका एक १४६०० श्लोकसंख्यावाला टिप्पणका संग्रह किया गया है। ग्रन्थ 'नेमिचंद्र' आचार्यका बनाया हुआ
६-पृष्ठ ५३ 'त्रिभंगी' नामका एक लिखा है और उसकी भाषा प्राकृत दी प्रन्थ श्रीकनकनंदी आचार्यका बनाया है जिससे पढ़नेवालोको यही स्खयाल हुना लिखा है और उसकी श्लोकसंख्या होता है कि नेमिचंद्राचार्यका बनाया १४०० दी है। वास्तवमें कनकनंदी प्राचार्य- हुश्रा इस नामका भी कोई महान् प्राकृत का बनाया हुआ इतनी श्लोकसंख्या- ग्रन्थ है। परन्तु बात ऐसी नहीं है। वास्तववाला त्रिभंगी नामका यह ग्रन्थ नहीं है। में यह गोमटसारकी कनड़ी टीका है जो इसमें नेमिचंटाटिककी कई त्रिभंगियाँ केशववर्णीकी बनाई हुई है। शामिल हो रही हैं और इसलिये इसे २-पृष्ठ १२ पर 'तत्त्वार्थरत्नप्रदी'त्रिभंगीसंत्र
ग्रह लिखना चाहिये था। पिका' नामका एक ग्रन्थ 'उमास्वामी का साथ ही, प्रन्थकर्ताके नीचे नेमिचंद्रादि- बनाया हुश्रा लिखा है, उसकी भाषा का नाम भी दिखलाना चाहिये था और संस्कृत और श्लोकसंख्या ७५०० दी है। यदि कनकनंदीकी त्रिभंगीको अलग दिख- वास्तवमें यह तत्त्वार्थसूत्रकी वही कनड़ी लाना इष्ट था तो उसका पूरा नाम 'विस्तर- टीका है जिसको बालचंद्र मुनिने बनाया सत्वत्रिभंगी' देकर श्लोकसंख्याके कोष्ठक है और जिसका उल्लेख हमने ऊपर देव. में ४- अथवा ५२ गाथाएँ दर्ज करनी नागरी लिपिके ग्रन्थों में भी किया है। चाहिये थीं; क्योंकि इसमें कनकनंदीकी इसकी श्लोकसंख्या ७०३६ है। . त्रिभंगीके दो पाठ संग्रह किये गये हैं ३-पृष्ठ २४ पर 'मरणक्रिया' नामजिनमें से एकमें ४८ और दूसरीमें ५२ का एक ग्रन्थ दिया है। यह ग्रन्थ वास्तवगाथाएँ हैं । साथ ही पत्रसंख्यामें भी में ब्रह्मसूरिका प्रतिष्ठातिलकांतर्गत 'त्रिवफेरफार होना चाहिये था और तब र्णाचार' नामका संस्कृत ग्रन्थ है। ग्रन्थदूसरी त्रिभंगियोंको अलग दिखलानेकी के अन्तमें मरणसम्बन्धी क्रियाका विधान भी जरूरत थी।
होनेसे सूची बनानेवालोंने समूचे ग्रन्थ___इस तरह प्रन्थनाम, प्रन्थकर्ता, पत्र- का नाम ही 'मरणक्रिया' बना डाला है ! संख्या, श्लोकसंख्या और लिपिसंवत् ४-पृष्ठ ६ 'कल्याणकारक' नामके सम्बन्धी सैकड़ों भूले और अशुद्धियाँ इस __वैद्यक प्रन्थको संस्कृत भाषाका लिखा देवनागरी लिपिके ग्रन्थोंकी सूची में पाई है जो कि प्रायः कनड़ी भाषाका ग्रन्थ है जाती हैं । कनड़ी लिपिके ग्रंथोकी सूची- और पत्रसंख्या भी ४६ के स्थानमें ४५ का भी प्रायः ऐसा ही हाल है। यद्यपि गलत दर्ज की है। इस सूचीकी पूरी जाँच अभी तक समाप्त दोनों प्रकारको सूचियोंके इन उदानहीं हुई-वह कुछ समय लेगी, तो भी हरणोंसे साफ़ ज़ाहिर है कि सूची बनानेजो कुछ जाँच हमारे सामने हो सकी है का काम प्रकृत विषयके अनुभवी पुरुषों
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१६
द्वारा नहीं हुआ, चाहे वे जैन हो या अजैन, अथवा यो कहिये कि वैसे किसी अनुभवी पुरुषकी देखरेख में यह सब काम नहीं हुआ । इसीसे काम यथार्थ नहीं हो सका । जो सूची इस प्रकार अशुद्धियोंसे परिपूर्ण हो और ग़लत सूचनाएँ देती हो, हमारी रायमें, वह सूची बिलकुल रद्द की जानी चाहिये और उस का एक रुपये मूल्यमें बेचा जाना तो किसी तरह भी उचित नहीं है ।
जैनहितैषीः ।
भवनको, जहाँ तक बने शीघ्र, हस्तलिखित ग्रन्थोंकी एक प्रामाणिक सूची तैयार करा कर प्रकाशित करनी चाहिये । ऐसी एक सूचीकी बहुत बड़ी ज़रूरत है । हमारी रायमें वह सूची विषयवार - विषयविभागको लिये हुए होनी चाहिये और उसमें १ ग्रन्थका नम्बर, २ ग्रन्थका नाम, ३ ग्रन्थकर्ताका नाम, ४ प्रन्थकी भाषा, ५ ग्रन्थका निर्माणसमय, ६ लिपि- समय, ७ श्लोक संख्या और = विशेष विवरण ऐसे आठ कोष्टक ज़रूर होने चाहिये । प्रन्थ किस लिपिमें है, काग़ज़ पर है या ताड़पत्र पर मुद्रित हो चुका है या कि नहीं और किस अवस्था में है, इस प्रकार की सब सूचनाएँ विशेष विवरणके कोठेमें दी जानी चाहियें। कुछु ग्रन्थकर्तादिके परिचयादि सम्बन्धी बातें फुटनोटके तौर भी दी जा सकती हैं । प्रत्येक विषयके ग्रन्थ अपने अपने विभाग में अकारादि क्रमसे रक्खे जायें, और पुस्तकर्मे तीन अनुक्रमणिकाएँ ज़रूर लगाई जायँ, एक विषयानुक्रमणिका, दूसरी ग्रन्थानुक्रमणिका और तीसरी ग्रन्थकर्ता - नुक्रमणिका । इसके सिवाय एक लिस्ट उन ख़ास ख़ास दिगम्बर जैनग्रन्थों के नामादिककी भी साथमें जोड़ी जाय जो भवन में मौजूद नहीं हैं, परन्तु दूसरे भंडारोंमें पाये जाते हैं और जिनके संग्रह करनेकी
[ भाग १५
भवनको ज़रूरत है । दूसरे भंडारोंकी बहुतसी सूचियाँ भवनमें मौजूद हैं जो शुरू शुरू में एकत्र की गई थीं। उनका अबतक प्रायः कुछ भी उपयोग किया गया मालूम नहीं होता। कई सूचियाँ तो शायद रजिस्टर में भी दर्ज नहीं हुई हैं। इन सूचियों परसे उक्त लिस्ट बहुत कुछ. तैयार हो सकती है और भी दूसरे भंडारोंकी सूचियाँ इस कामके लिये मँगाई जा सकती हैं। अभी हमने ऐसी ही कुछ सूचियों परसे संस्कृत तथा प्राकृतके ख़ास ख़ास ग्रन्थोंकी एक लिस्ट उतारी है जो भवनमें मौजूद नहीं हैं और जिनकी संख्या दो सौके करीब है । यदि इस लिस्ट में कनड़ी श्रादि दूसरी भाषाओके ग्रन्थ भी शामिल कर दिये जाते तो संख्या शायद तीन सौसे भी अधिक हो जाती । कितनी ही सूचियाँ भवनमें ऐसी रह गई। हैं जिन्हें हम देख नहीं सके। इसके लिये भवनमें एक ख़ास रजिस्टर खुलना चाहिये. जिसमें इन दूसरे भंडारोंकी सूचियों परसे उन ख़ास ख़ास ग्रन्थोंका नामादिक दर्ज किया जाय जो भवनमें मौजूद नहीं हैं और एक कोटक को द्वारा उन भंडारोंके नाम सूचित किये जायें जिन जिनमें प्रत्येक ग्रन्थ मौजूद है ताकि उन भंडारों में से जिस भंडारसे भी ग्रन्थकी प्राप्ति हो सके उससे वह मँगाया. जाय । भंडारोंके नाम रजिस्टरके शुरूमें पूरे पते सहित नम्बर डालकर दर्ज करते रहना चाहिये । इस रजिस्टर पर से उक्त लिस्ट सहजमें ही उतार कर सूत्री के साथमें जोड़ी जा सकेगी।
इस तरह पर जो सूची तैयार होगी वह सर्वसाधारणके लिये बहुत ज्यादा उपयोगी और कार्यकारी होगी। उसके द्वारा सहजमें ही दिगम्बर जैन ग्रन्थों और उनके कर्ताओंका बहुत कुछ परिचय
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जैनसिद्धान्तभवन, पाराका निरीक्षण । मिल सकेगा। साथ ही यह भी मालूम कनड़ी लिपिके संग्रहमें, कनड़ी भाषाके हो सकेगा कि एक एक विषयके कितने ग्रन्थों अथवा कनडीटीकाओंको छोड़कर, कितने प्रन्थ हैं और किस किस विद्वान्ने ऐसे ग्रन्थोंकी अभी बहुत कमी है जिनकी कौन कौन ग्रन्थ बनाये हैं।
भाषा संस्कृत तथा प्राकृत है और जो संपूर्ण ग्रन्थोकी जाँच हो जानेके बाद देवनागरी लिपिमें अन्यत्र उपलब्ध न भवनमें 'कार्ड सिस्टम' श्रादिके द्वारा इस होते हों । परन्तु ऐसे बहुतसे ग्रन्थ ढंगसे काम होना चाहिये जिससे इस दक्षिणके भंडारोंमें मौजूद हैं और इसलिये प्रकारकी सूची जल्द तैयार हो सके। उनकी प्राचीन अथवा नवीन प्रतियोंके __ सूचीके अतिरिक्त भवनमें नवीन नवीन भवनमें आनेकी बड़ी ज़रूरत है। इसके प्रन्थोंका संग्रह होनेकी भी बहुत बड़ी लिये, सूची तैयार हो जाने पर, पं. ज़रूरत है। संग्रहका यह कार्य बहुत शान्तिराजय्याजीको भी यदि कुछ समयके अर्सेसे बन्द है। शुरू शुरूमें जो कुछ संग्रह वास्ते कर्णाटक प्रान्तमें भेजा जाय तो हुआ था उसमें बादको बहुत कम वृद्धि बहुत कुछ काम हो सकेगा। आपकी हुई मालूम होती है । भवनमें हस्तलिखित रुचि अब ऐसे कामोंमें विशेष पाई जाती प्रन्थोंका, ख़ासकर कनड़ी लिपिके ग्रन्थों है और आपने पौने दो महीने तक हमारे का अधिकांश संग्रह ब्रह्मचारी नेमि- साथ रह कर बराबर भवनमें रात दिन सागरजीकी कृपाका फल है, जो कि प्रेमपूर्वक काम किया है । बाक़ी देवभवनके ट्रस्टी भी हैं। दक्षिण प्रान्तके नागरी लिपिमें जो ग्रन्थ जयपुरादिकके बहुतसे भंडारोंकी सूचियाँ उतरवाकर भंडारोंमें पाये जाते हैं और भवनमें मौजूद भिजवा देना भी उन्हींका काम था। नहीं हैं उनकी वहाँसे ही नकले कराकर उनसे यदि बराबर काम लिया जाता तो मँगानी चाहिये। जिनकी वहाँ नकलें न अबतक दक्षिणका बहुतसा ग्रन्थसमूह हो सके उनकी नकलोका भवनमें प्रबन्ध खिचकर भवन में आ जाता और एक किया जाय । भवनमें दो एक लेखकोंके अपर्व संग्रह हो जाता। संग्रह यद्यपि स्थायीरूपसे रहनेकी जरूरत हैजो भवनके अब भी अच्छा है परन्तु जैसा चाहिये संग्रह परसे दुष्प्राप्य तथा अलभ्य ग्रन्थोंवैसा नहीं है। हमारी रायमें ब्रह्मचारी- की और प्रतिके लिये बाहरसे आये हुए जीको फिरसे इस काममें नियोजित करना हुए ग्रन्थोकी नकलका काम किया करें चाहिये और संग्रहके लिये उन्हें सब और इस तरह भवनकी तथा बाहरवालोंप्रकारकी सुविधाएँ देनी चाहिये । उनके की जरूरतोंको कुछ अंशोंमें पूरा कर सकें। पास भवनको एक संशोधित सूची और परन्तु सूची श्रादि सम्बन्धी यह सब खासकर वह लिस्ट भेजनी चाहिये जो काम यथेष्ट रीतिसे, तभी हो सकता हमने उन ग्रन्थोंकी तैयार कराई है जो है जब कि अधिकारीवर्गकी ओरसे. कि भवनमें मौजूद नहीं हैं, जिससे वे इस तरह ख़ास लक्ष्य दिया जाय और वे उन्हीं ग्रन्थोंका संग्रह कर सके जिनकी इस कार्यको उपयोगिता तथा महत्ताको भवनको ज़रूरत है। एक ग्रन्थकी कई कई समझ कर हर तरहसे इसके पूरा करने में प्रतियोंके संग्रहकी विशेष जरूरत नहीं है, कटिबद्ध हो। साथ ही काम करनेवाले सिवाय उन प्रतियोंके जो कि प्राचीनता योग्य व्यक्तियों को, उनके काममें, यथाआदिकी दृष्टिसे कुछ महत्त्व रखती हो। शक्ति सब प्रकारकी सहायता और सहू
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जैनहितैषी।
[भाग १५ लियतें (सुविधाएँ ) प्रदान करें । भवनके लिये प्रेरित करेगा। हम समझते हैं जब मन्त्री कई सालसे श्रीयुत बाबू सुपावं. आप भवनकी बागडोर स्वयं अपने हाथों दासजी गुप्त बी० ए० हैं । आप एक में लेकर नियमपूर्वक काम चलाएँगे तब सुयोग्य और नवयुवक व्यक्ति हैं; चाहे कुमार देवेन्द्रप्रसादजी जैसे सजन, परो. तो भवनका इस प्रकार बहुत कुछ काम पकारी और सुयोग्य व्यक्ति भी बहुत कुछ कर सकते हैं और उसे अच्छी सहायता, कर सकेंगे, क्योंकि उन्हें ऐसे कामोसे पहुँचा सकते हैं। परन्तु आज कल आप ख़ास दिलचस्पी है और उनका शुरूसे डिपुटी कलकृरीके पद पर प्रतिष्ठित हैं। बहुत कुछ परिश्रम भवनमें लगा हुआ है। इस पदसम्बन्धी तथा दूसरे कामोंके भवनका काम नियमबद्ध और सुव्यवकारण आपको अनवकाशकी बड़ी शिका. स्थित रूपसे न होनेके कारण ही शायद यत है और शायद यही वजह है कि आप कुमार साहब अाजकल इससे कुछ उपेमन्त्रीकी हैसियतसे एक दिन भी भवनमें क्षित जान पड़ते हैं--उपमन्त्री होते हुए हमें कुछ काम दिखलाने, बतलाने अथवा भी अपनेको भवनका उपमन्त्री नहीं समसमझानेके लिये नहीं आ सके। ऐसी झते, कहते हैं कि हम कई बार इस्तीफ़ा हालतमें उनसे कोई प्राशा नहीं की जा पेश कर चुके हैं। इसमें सन्देह नहीं कि सकती कि वे इस काम में कुछ सहायता भवनका काम सुव्यवस्थित रूपसे नहीं हो दे सकेंगे। तब, भवनके दूसरे शुभचि. रहा है और न उसमें नियमावलीके नियमोंन्तकोंको-ख़ासकर बाबू निर्मलकुमार, की पाबन्दी की जाती है। जबसे भवनके बाबू बच्चूलाल और कुमार देवेन्द्रप्रसाद प्रतिष्ठित सभासदोंमें हमारी नियुक्ति हुई जीको-इस विषयमें खास तौरसे साव- है और जिसे कई साल हो चुके हैं तबसे धान और बद्धपरिकर होनेकी ज़रूरत है। एक बार भी हमें भवनकी किसी मीटिंगकी बाबू निर्मलकुमारजी यद्यपि, बनारस सूचना नहीं दी गई और न किसीमीटिंगकालिजमें पढ़ते हैं और कालिजके कामसे की कार्रवाईसे ही सूचित किया गया। आपको अवकाश कम है तो भी हर इससे भी पाठक समझ सकते हैं कि भवनमें तातीलमें श्राप बराबर श्रारा पाते हैं और कितना व्यवस्थित रूपसे काम हो रहा है। अपनी रियासतके कारोबारको देखते हैं। कई वर्षों का हिसाब भी अभी तक प्रकाउसके साथमें आपको भवनका काम भी शित नहीं हुआ, जिसके प्रकाशित होनेकी कुछ नियमित रूपसे देखना चाहिये और बड़ी जरूरत है । अतः बाबू निर्मलकुमारउसे भी कुछ समय देना चाहिये। यह. जीको इस ओर ध्यान देकर इन सब पौधा आपके पिताहीका लगाया हुअा अव्यवस्थाओंको दूर करानेका शीघ्र यत्न है और उनकी एक बड़ी भारी यादगार करना चाहिये और ऐसा प्रबन्ध करना है, इसलिये इसे हर तरहसे सींचसाँच चाहिये जिससे भवनका सब काम नियकर बढ़ाना, सुरक्षित रखना और इसके मित रूपसे होता रहे और वह संस्थापकसुमधुर फलोको चखनेका जनताको अव- के उद्देश्योंको पूरा करने में समर्थ हो सके। सर देना यह सब आपके पुत्रकर्तव्योंमेंसे साथ ही, भाई देवेन्द्रप्रसादजीको भी अब मुख्य कर्तव्य कर्म है। श्रापकी थोड़ी भी इसके सुधारके लिये ख़ास तौरसे यत्न तवज्जह और भवनमें बैठकर थोडासा भी करना चाहिये। रहे बाबू बच्चूलालजी; काम करना दूसरोंको बहुत कुछ करनेके श्राप एक बुजुर्ग श्रादमी हैं, बाबू देव
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श्रङ्क १-२
मल्लिषेणका विशेष परिचय। कुमारजीके निकटसम्बन्धी हैं, उनकी स्टेटके एक्जीक्यूटर रह चुके हैं, भवनके
मल्लिषेणका विशेष परिचय ।
मा ट्रस्टी हैं, भवनसे प्रेम रखते हैं, जिस विद्वद्रत्नमाला प्रथम भागमें श्रीयत मन्दिरमें भवन स्थापित है उसके प्रबन्ध- पंडित नाथूरामजी प्रेमीने मल्लिषेणाचार्यकर्ता हैं, भवनके पास ही रहते हैं और का कुछ परिचय दिया है जो कि 'उभयप्रतिदिन भवन में आया जाया करते हैं। भाषाकविचक्रवर्ती' कहलाते थे और हालमें आप अपनी गवर्नमेंट पोस्टसे जिन्होंने मुलगुन्द नगरके श्रीजैनधर्मालयरिटायर्ड भी हो चुके हैं और बहुतसी में ठहर कर शक संवत् १६६ में महापुराणझंझटोंसे अलग हैं। इसलिये हमारी को बनाकर समाप्त किया था। मापसे प्रार्थना है कि भाप इस भवनको इस महापुराणकी प्रशस्तिके आधारएक आदर्श भवन बनानेका जीजानसे पर प्रेमीजी ने लिखा था कि, “मल्लिषणने यत्न करें और बन सके तो अपना शेष ('श्रीजिनसेनसूरितनुजेन', इस वाक्यके जीवन इसीके द्वारा.जिनवाणी माताकी द्वारा) अपनेको श्रीजिनसेनसूरिका पुत्र पवित्र सेवामें अर्पण कर देवें । श्रापकी बतलाया। इससे जान पड़ता है कि प्रेरणा और सलाह-मशवरेसे भी सब कुछ गृहस्थजीवनमें जो इनके पिता होंगे उन्होंने हो सकता है। भवनमें रुपयेकी कमी पीछेसे दीक्षा ले ली होगी और मुनिजीवननहीं है और यदि कमी हो भी तो वह में उनका नाम 'जिनसेन' रक्खा गया काम दिखलाकर सहजहीमें पूरी की जा होगा।" परन्तु ये जिनसेन कौन थे, किस सकती है।
गुरुपरम्परामें उत्पन्न हुए थे और मल्लिहम चाहते थे कि भवनकी एक षेणकी गुरुपरम्परा क्या थी, इन सब मीटिंग हमारे सामने होकर बहुतसी बातों बातोंका श्राप कोई निर्णय नहीं कर सके पर विचार हो जाय । कुमार देवेन्द्र- थे। साथ ही, यह भी मालूम नहीं कर प्रसादजीने इसके लिये कोशिश भी की। सके थे कि पद्मावतीकल्प (भैरवपद्मावतीपरन्तु खेद है कि वह नहीं हो सकी! कल्प) और ज्वालिनीकल्प नामके जो दो प्राशा है अब बादमें मीटिंग होकर सब ग्रन्थ मल्लिषणके नामसे प्रसिद्ध हैं वे कौन- - व्यवस्था ठीक की जायगी और भवनका से मल्लिषणाचार्यके बनाये हुए हैं। इसके . जो कार्यक्रम निश्चित होगा उसकी सर्व- अतिरिक्त प्राचार्य महाराजकी कृतियों में साधारणको सूचना दी जायगी। भवन- नागकुमार काव्यका-नागकुमार पंचमी की कार्यकारिणी सभाका ध्यान हम इस __ कथाका-परिचय देते हुए आपने यह भी निरीक्षणकी ओर ख़ास तौरसे आकर्षित लिखा था कि “इस ग्रन्थमें कर्ताने अपनी करते हैं।
प्रशस्ति नहीं दी है।” अस्तु; हालमें, जैन३१-१०-२० ।
सिद्धान्तभवन प्राराका निरीक्षण करते हुए उसके ताड़पत्रोंके ग्रन्थसंग्रह परसे, हमें इस ग्रन्थकी दो प्रतियाँ ऐसी उपलब्ध हुई है जिनमें ग्रन्थकर्ताकी प्रशस्ति लगी हुई है और इसलिये यह बात बाक़ी नहीं रहती कि ग्रन्थकर्ताने इस प्रन्थमें अपनी प्रशस्ति नहीं दी। प्रशस्ति ज़रूर दी है, .
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२०
- जैनहितैषी।
[भाग १५ परन्तु यह लेखकोंकी कृपका फल है कि तेनेषा कविचक्रिणा विरचिता वह किसी प्रतिमें पाई जाती है और
___ श्रीपंचमीसत्कथा । किसीमें नहीं ! 'भैरवपद्मावतीकल्प' नामका ग्रन्थ भी हमें उक्त भवनमें प्रशस्ति- .
___ भव्यानां दुरितोषनाशनकरी सहित उपलब्ध हुआ है और 'ज्वालिनी
संसारविच्छेदिनी ॥५॥ कल्प' नामके ग्रन्थकी प्रशस्ति हमारे स्पष्टं श्रीकविचक्रवर्तिगणिना पास पहलेसे मौजूद थी, जोकि सेठ भव्याजघौशुना, माणिकचन्दजी बम्बईके 'प्रशस्तिसंग्रह' ग्रन्थी पंचशती मया विरचिता नामके रजिस्टर परसे उतारी गई थी।
विद्वजनानां प्रिया । इन तीनों प्रशस्तियोंके आधार पर प्राज
तां भक्तया विलिखंति चारुवचनहम श्रीमल्लिषणाचार्यका कुछ विशेष परिचय देने और उक्त बातोंका निर्णय
क्वर्ण्ययंत्यादरात्, करनेके लिये समर्थ हुए हैं।
ये शृण्वंति मुदा सदा सहृदयानागकुमार काव्यकी वह प्रशस्ति इस
स्तेयांति मुक्तिश्रियं ॥६॥". प्रकार है
___ इस प्रशस्तिसे मालूम होता है कि,
कषायविजयी, गुणोंके समुद्र, नियत "नितकषायरिपुग्णवारिधि
रूपसे चारुचरित्रका प्राचरण करनेवाले, नियतचारुचरित्रतपोनिधिः।
तपोनिधि ऐसे 'अजितसेन' नामके एक जयतु भूपति (कि) रीटविट्टित
मुनीश्वर हो गये हैं जिनके चरणोंको क्रमयुगोजिन (त) सेनमुनीश्वरः॥१॥ राजाओंके मुकुट छूते थे। इन अजितसेन अनि तस्य मुनेवरदीक्षितो
मुनिराजके प्रधान शिष्य 'कनकसेन' मुनि विगतमानमदोदुरितान्तकः ।
थे, जिन्हें विगतमानमद, दुरितांतक, वरकनकसेनमुनिर्मुनिपुंगवो.
चरित्र, महाव्रतपालक और मुनिपुंगव
लिखा है । महामुनि कनकसेनके सम्पूर्ण वरचरित्रमहाव्रतपालकः ॥२॥
शिष्यों में मुख्य शिष्यं 'जिनसेन' मुनि थे, (मि) तमदोऽजनि तस्य महामुनेः
जिन्हें जितमद, हतमन्मथ और भवमहोप्रथितवान् जिनसेनमुनीश्वरः । दधितारतरंडक विशेषणोंके साथ स्मरण सकलशिष्यवरो हतमन्मयो
किया है। इन जिनसेनं मुनिके छोटे भाईभवमहोदधितारतर (ड) कः॥३॥
का नाम नरेन्द्रसेन था। ये नरेन्द्रसेन चारुतस्यानुनश्चारुचरित्रवृतिः
चरित्रवृत्ति थे, पुण्यमूर्ति थे, विशातप्रख्यातकीर्ति वि धुण्यमूर्तिः ।
तत्त्व थे, जितकामसूत्र थे, इन्होंने वादियोंमरेन्द्रनो जितवादिसेनो
के समूहको जीता था और पृथ्वीपर विशाततत्त्वो जितकामसूत्रः ॥४॥
इनका यश विख्यात था और उनके शिष्य
का नाम श्रीमल्लिषेण था । मल्लिषण तच्छिष्यो विबुधारणागुणनिधिः
विबुधोंमें अग्रगण्य, गुणनिधि, सम्पूर्णभीमलिषणाहयः।
शास्त्रोंमें निपुण, वाग्देवता .(सरखती)से संजातः सकलागमेषु निपुणो
अलंकृत, भव्यकमलोके सूर्य और कवियाग्देवताकृतः॥
चक्रवर्ती थे। उन्हीं मलिषेण गणिने पाप
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२१०
अङ्क १-२
मलिषेणका विशेष परिचय। समूहका नाश करनेवाली और संसार- कर्मेन्धनदहनपटु.. विच्छेदिनी यह पाँच सौ श्लोक परिमाण, स्तच्छिष्यः कनकसेनगणी ॥५६॥ श्रीपंचमी कथा रची है । जो सहृदय
चारित्रभूषितांगो, मनुष्य भक्तिके साथ इसे लिखते हैं, आदर
नि:संगो मथितदुर्नयानंगः। के साथ सुन्दर वचनों द्वारा इसका
तच्छिण्यो जिनसे व्याख्यान करते हैं और प्रसन्नचित्त होकर सुनते हैं वे सदा मुक्तिलक्ष्मीको
बभूव भव्याजधर्मांशुः ॥५॥ प्राप्त होते हैं।
तदीय शिष्योऽजनि मस्तिषण:प्रशस्तिमें मल्लिषणसे पहले 'तच्छिष्यः'
सरस्वतीदचवरप्रसादः। पदका प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ तेनोदितो भैरवदेवताया:होता है 'उनका शिष्य। 'तत्। (उनका)
कल्प: समासेन चतुःश्यतेन ॥५८॥ शब्दका सम्बन्ध नरेंद्रसेन और जिनसेन
यावद्वारिधिभूधरदोनोंके साथ लगाया जा सकता है।
तारागणगगनचंद्रदिनपतयः । परन्तु वास्तवमें उसका वाच्य नरेंद्रसेन नहीं किन्तु जिनसेन है, जैसा कि मागे
तिष्ठतु भुवि तावदयं चलकर भैरवपद्मावतीकल्प और ज्वालिनी- भैरवपद्मावतीकल्पः ॥५९॥ कल्प नामके ग्रन्थोंकी प्रशस्तियोंसे मालूम ज्वालिनीकल्पकी प्रशस्ति निन्न. होगा। इन दोनों प्रशस्तियों में जिनसेनके लिखित है:-.. बाद 'तदीयशिष्योऽजनिमल्लिषणः, तस्या प्रशिष्योऽजनि मल्लिषणः' इन वाक्यों
___ "श्रीमतोनितसेनस्य सूरिः ( रेः) के द्वारा साफ तौरसे मल्लिषेणको जिन.
कार्तिधुरिणा (गः)। सेनका शिष्य सूचित किया है और जिन- शिष्यः कनकसेनोभूसेनके छोटे भाई नरेंद्रसेनका नाम भी
दणिकमुनिजनस्तुतः ॥१॥ नहीं दिया। मल्लिषणजी जिनसेनाचार्यके ___ तदीय शिष्यो जिनसेनसूरिः अपशिष्य थे और इसलिये महापुराणकी
. तस्याप्रशिष्योऽजनि मालिकषणः प्रशस्तिमें उन्होंने अपनेको जो जिनसेनका
वाग्देवतालक्षितचारुवक्त्रपुत्र लिखा है उसका अभिप्राय शिष्य ही
स्तेनाराचि मिखिजादेविकल्पः ॥२॥ जान पड़ता है-प्राचार्योका शिष्यवर्ग भी उनकी संतति कहलाता है।
कुमतिमतविभेदि (दी) जैनतत्वार्थवेदि (दो), भैरवपद्मावतीकल्पकी प्रशस्ति इस हतदुरितसमूहः क्षीणसंसारमोहः । प्रकार है:
भवजलधितरंडो वाग्ववाक्षरण्डे (?) "सकन्नृपमुकटघटित
विबुधकुमुदचंद्रो मल्लिषेणो गोंद्रः ॥॥" चरणयुग: श्रीमदजितसेनगणी ।
इन दोनों प्रशस्तियोंको नागकुमार जयतु दुरितापहारी,
पंचमी कथाकी प्रशस्तिके साथ मिलाकर . भव्योषभवार्णवोगारी ॥५५॥ .
पढ़नेसे इस विषयमें कोई सन्देह नहीं जिनकमयागमवेदि (दी),
रहता कि ये तीनों प्रशस्तियाँ एक ही गुस्तरसंसारकाननोच्छदी।
व्यक्तिसे सम्बन्ध रखती हैं-तीयों में
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२२ , जैनहितैषी। .
[ भांग १५ अजितसेनका शिष्य कनकसेन, कनकसेन- चक्रवर्ती की पदवी बड़ी है । इसलिये का शिष्य जिनसेन और जिनसेनका शिष्य ऐसा मालूम होता है कि मलिषणको मल्लिषेण बतलाया गया है। श्राचार्योंके पहले 'उभयभाषाकविशेखरकी पदवी अनेक विशेषण भी एक प्रशस्तिके दूसरी प्राप्त थी और उस वक्तके बने हुए ग्रन्थोंप्रशस्तिके साथ मिलते जुलते हैं; जैसे कि में उसीका प्रयोग होता था। बादमें, जबमल्लिषेणको एक प्रशस्तिमें 'वाग्देवतालंकृत' से उन्हें 'उभयभाषाकविचक्रवर्ती की दूसरीमें 'सरस्वतीदत्तवरप्रसाद' और पदवी मिली तबसे इस पदवीका प्रयोग तीसरीमें 'धाग्देवतालक्षितचारुवक्त्र' बत- होने लगा। कविचक्रवर्तीकी यह पदवी लाया गया है इसलिये नागकुमारपंचमी उन्हें महापुराण और नागकुमारपंचमीकथाकी तरह भैरवपद्मावतीकल्प और कथाकी रचनासे पहले प्राप्त हो चुकी थी, ज्वालिनीकल्प नामके ये दोनों ग्रन्थ भी इसीलिये वे इसका प्रयोग उक्त दोनों उन्हीं मल्लिषेणाचार्यके बनाये हुए हैं जो ग्रन्थोंमें कर सके हैं। 'उभयभाषाकविचक्रवर्ती' कहलाते थे। उक्त तीनों प्रशस्तियोंसे यह तो मालूम परन्तु भैरवपद्मावतीकल्पकी संधियों में हो गया कि मल्लिषेण और जिनसेन दोनों मल्लिषेणको 'उभयभाषाकविचक्रवर्ती' न ही अजितसेनकी गुरुपरम्परामें थे; परन्तु लिखकर 'उभयभाषाकविशेखर' लिखा ये अजितसेन कौन थे, यह बात अभीतक है; जैसा कि उसकी निम्नलिखित अन्तिम मालूम नहीं हुई। हमारी रायमें ये अजितसंधिसे प्रकट है :
सेन वही जान पड़ते हैं जो कि श्रीचामुंड"इत्युभयभाषाविशेखरश्रीमीलेषणसूर
राय और राजा राचमलके गुरु थे। विरचिते यालचिकित्सादिनमासवर्षसंख्याधिकार
- चामुंडराय विक्रमकी ११ वीं शताब्दीके
प्रारम्भमें हुए हैं-उन्होंने शक संवत् समुखये द्वितीयोऽध्यायः ।।
१०. में अपना त्रिषष्ठिलक्षणमहापुराण भाषादयकवितायां, कवयो. नामका ग्रन्थ बनाकर समाप्त किया था. दप वहन्ति तावदिह ।
वही समय उनके गुरु अजितसेनके नालोकयन्ति यावत्कवि
अस्तित्वका है। मल्लिणने अपना महाशेखरमल्लिषेणमुनिम् ॥"
पुराण शक संवत् ६६६ में बनाकर समाप्त
किया है और यह उनकी उस प्रौढ़ावस्थाइस अवतरणके अन्तमें प्रशस्तिविष
की रचना है जब कि उन्हें 'कविचक्रवर्तीयक जो पद्य है उसमें यह बतलाया है
की पदवी प्राप्त हो चुकी थी। इसलिये कि, दोनों भाषाओंकी कवितामें कविजन
उनके दादा गुरु अजितसेनका समय भी उसी वक्त तक घमंड (दर्प)को धारण
शक संवत् ६०० के करीब ही बैठता है। करते थे जब तक कि घे कविशेखर मल्लि
समयकी इस एकताके ख़यालसे मल्लिघेता मनिको नहीं देख पाते थे-प्रथात् मानवादा गरु 'अजितसेन' और भीकविशेखर मल्लिषेण मुनिके सामने उभय
चामुंडराय आदि राजाओंके गुरु 'अजितभाषाके कवियोंकामानखंडित होजाताथा।
। सेना दोनों एक ही व्यक्ति मालूम होते '. इससे स्पष्ट है कि मल्लिषेण 'कवि- हैं। नागकुमार काव्य और भैरवपद्मावती शेखर' अथवा 'उभयभाषाकविशेखर' भी कल्पकी प्रशस्तियों में दिये हुए भूपकिरीटकहलाते थे। परन्तु 'कविशेखर' से 'कवि- विघट्टितक्रमयुगः', 'सकलनृपमुकुटघटित.
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अङ्क १-२ ]
चरणयुगः” इन अजितसेनके विशेषणोंसे भी इस बातका समर्थन होता है कि ये अजितसेन प्रायः वही थे जिनके श्रीचरणोंमें चामुंडराय और राचमल्ल जैसे महाराजाओंके मुकुट नम्रीभूत होते थे । श्री नेमिचन्द्राचार्यने, अपने गोम्मटसारमें, इनकी प्रशंसा करते हुए, इन्हें श्रार्यसेन गणिके गुणसमूहका धारक और भुवन गुरु प्रगट किया है* । और बाहुबलि चरित्रके कर्ताने इन्हें नन्दिसंघ के अन्तर्गत देशी गणका आचार्य तथा श्रीसिंहनन्दी मुनिके चरणकमलका भ्रमर बतलाया है । इससे मालूम होता है कि श्री अजित सेन नन्दिसंघ के अन्तर्गत देशीग के आचार्य थे और उनके गुरु सिंहनन्दी तथा आर्यसेन नामके मुनिराज थे। उन्हींकी वंशपरम्परा में हमारे मलिषेण आचार्य हुए हैं। ये मलिषेण श्राचार्य बड़े भारी मन्त्रवादी थे । महापुराणकी प्रशस्ति में इन्होंने स्वयं अपनेको 'गारुड मंत्रवादवेदी' लिखा है। भैरवपद्मावतीकल्प और ज्वालिनकल्प नामके आपके दोनों ग्रन्थ मन्त्रशास्त्र से सम्बन्ध रखते हैं और मन्त्रयन्त्रविषयक प्रन्थ हैं । 'बालगृहचिकित्सा' भी मन्त्रशास्त्रहीका अंग है । उसके मङ्गलाचरण में ही अपने ग्रन्थका विशेषण 'मन्त्रशास्त्रसमुद्धृता' दिया है । इनके सिवाय और भी कुछ ग्रन्थ मन्त्रशास्त्रविषयके आपके बनाये हुए सुने जाते हैं; जैसे कि 'विद्यानुवाद' नामका संस्कृत
मलिषेपका विशेष परिचय |
* श्रज्जज्जसे गणि गुण समूहसंधारि श्रजियसे गुरू । भुणगुरू जस्स गुरू सो राम्रो गोम्मटी जयऊ ॥ गोम्मटसार | + पश्चात्सोऽजित सेनपंडितमुनिं देशीगणाग्रेसरम्, स्वस्याधिप्य सुखाब्धिवर्ध नशशि श्रीनन्दिसंधाधिपम् श्रीमद्भासुरसिंहनन्दिमुनि पांघ्र याम्भोजरोलम्बकम् चानम्य प्रवदत्सु पौदनपुरी श्रीदोबलेर्वृत्तकम् ॥ — बाहुबलिचरित्र |
३
ग्रन्थ जिसकी श्लोक संख्या पाँच हज़ार बतलाई जाती है और 'कामचंडालिनीकल्प' नामका संस्कृत ग्रन्थ जो सिर्फ २५० लोक परिमाण कहा जाता है। ये दोनों ग्रन्थ श्रवणबेलगोलके श्रीयुत पं० दौर्बलिजिनदास शास्त्रीजीके भंडारकी सूची में मल्लिषेणके नामसे दर्ज हैं। इनकी प्रशस्तियों आदिके लिये हमने शास्त्रीजीको लिखा है। उनके आनेपर पाठकोंको विशेष हालसे सूचित किया जायेगा । एक ग्रन्थ 'विधानुशासन' नामसे अनन्तय्या इन्द्रजी. मूडबिद्रीके भंडारकी सूचीमें मल्लिषेणका बनाया हुआ लिखा है और उसकी श्लोक संख्या भी पाँच दी है परन्तु हमारे ख़याल से, वह 'विद्यानुवाद'का ही नामान्तर जान पड़ता है । जैनसिद्धान्तभवन आाराकी सूचीमें भी नं० ७१२ पर, 'विविधयन्त्रमन्त्र' नामसे एक संस्कृत ग्रन्थ मल्लिषेणका बनाया हुआ दिया है और उसकी श्लोक संख्या २२०० लिखी है। मालूम नहीं इसका सही नाम क्या है, अभी तक इस ग्रन्थकी जाँच नहीं हुई । सम्भव है कि यह ग्रन्थ अधूरा हो अथवा मल्लिषेणके मन्त्रशास्त्रविषयक प्रन्थोंपर से संग्रह किया हुआ हो ।
हज़ार
मल्लिषेणके संस्कृत ग्रन्थों में प्रेमीजीको जिन तीन ग्रन्थोंका पता लगा था उनमें एक ग्रन्थ 'सज्जनचित्तवल्लभ' है । प्रेमीजी इसे इन्हीं मल्लिषेणका बनाया हुआ लिखते हैं; परन्तु हमें अभी इस विषय में कुछ सन्देह है । हमारे देखने में अभी तक इस ग्रन्थकी कोई भी ऐसी प्रति नहीं आई जिसमें ग्रन्थकर्ताको 'उभयभाषाकवि'चक्रवर्ती' अथवा 'उभयभाषाकविशेखरः लिखा हो; और न इस प्रन्थकी कोई प्रशस्ति ही पाई गई। मालूम नहीं प्रेमीजीने किस आधार पर ऐसा लिखा है। हमें तो, ऐसी हालत में, ग्रन्थकी रचनाशैली,
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२४
ग्रन्थके २४ वे पथ और श्रवणबेलगोलके शिक्षासेज नं० ५४ (मझिषेणप्रशस्ति) के अन्तिम भाग पर ले यह ग्रन्थ ज्यादातर मधारी मलिषेणका बनाया हुआ प्रतीत होता है ।
जैनहितैषी ।
मणिका कोई प्राकृत ग्रन्थ अभी तक हमारे भी देखने में नहीं आया । परन्तु पं० दौर्बमिजिनदासशास्त्रीके भंडारकी सूची पर से इतना पता ज़रूर चला है कि महिषेणका बनाया हुआ 'त्रिभंगी' नामका एक प्राकृत ग्रन्थ है जिसकी पद्य संबा ५३ है । सम्भव है कि यह प्रन्थ इन्हीं ''भयभाषा कविचक्रवर्ती' मल्लिषेण का बनाया हुआ हो। हमने इसकी प्रशस्ति आदिके लिये भी शास्त्रीजीको लिखा है । उसके आने पर विशेष हालसे पाठकोंको फिर सूचना दी जायगी ।
तामिल - प्रदेशों में जैनधर्मावलम्बी |
[ मूल मे० श्रीयुत एम० एस० रामस्वामी भायंगर, एम० इतिहासाध्यापक, महाराजा कालेज, विजयानगर । ] ( अनुवादक - कुमार देवेन्द्रप्रसाद जैन, आरा । )
५०,
श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥
भारतीय सभ्यता अनेक प्रकारके तन्तुसे मिलकर बनी है । हिन्दुओंकी गम्भीर और निर्भीक बुद्धि, जैनकी सर्व व्यापी मनुष्यता, बुद्धका ज्ञान-प्रकाश, "अरबके पैगम्बर ( मुहम्मद साहब ) का विकट धार्मिक जोश और संगठन शक्ति, द्रविड़ की व्यापारिक प्रतिभा और समया दुसार परिवर्तनशीलता, इन सबका भारतीय जीवन पर अनुपम प्रभाव पड़ा है और आजतक भी भारतीयोंके विचारों, कार्यों और आकांक्षाओं पर उनका अदृश्य
[ भाग १५
प्रभाव मौजूद है । नये नये राष्ट्रोंका उत्थान और पतन होता है; राजेमहाराजे विजय प्राप्त करते हैं और पददलित होते हैं; राजनैतिक और सामाजिक आन्दोलनों तथा संस्थाओंकी उन्नतिके दिन आते हैं और बीत जाते हैं, धार्मिक सम्प्रदायों और विधानोंकी कुछ कालतक अनुयायियोंके हृदयों में विस्फूर्ति रहती है । परन्तु इस पुनर्वार-परिवर्तनकी क्रियाके अन्तर्गत कतिपय चिरस्थायी लक्षण विद्यमान हैं, जो हमारे और हमारी सन्तानों की सर्वदा के लिये पैतृक सम्पत्ति हैं । प्रस्तुत लेख में एक ऐसी जाति के इतिहासको एकत्र करनेका प्रयत्न किया जायगा, जो अपने समय में उच्चपद पर विराजमान थी, और इस बात पर भी विचार किया जायगा कि उस जातिने महती दक्षिण भारतीय सभ्यताकी उन्नतिमें कितना भाग लिया है।
यह ठीक ठीक निश्चय नहीं किया जा सकता कि तामिल- प्रदेशों में कब जैनधर्मका प्रचार प्रारम्भ हुआ । सुदूरके दक्षिण भारत
जैनधर्मका इतिहास लिखने के लिये यथेष्ट सामग्री का अभाव है । परन्तु दिगम्बरोंके दक्षिण जानेसे इस इतिहासका प्रारम्भ होता है | श्रवणबेलगोलके शिलालेख अब प्रमाणकोटि में परिगणित होते हैं और १६वीं शताब्दीमें देवचन्द्रविरचित 'राजावलिकथे' में वर्णित जैन- इतिहासको अब इतिहासज्ञ विद्वान् असत्य नहीं ठहराते । उपर्युक्त दोनों सूत्रोंसे यह ज्ञात होता है कि प्रसिद्ध भद्रबाहु ( श्रुतकेवली ) ने यह देखकर कि उज्जैन में १२ वर्षका एक भयङ्कर दुर्भिक्ष होनेवाला है, १२००० शिष्योंके साथ दक्षिण की ओर प्रयाण किया । मार्गमें श्रुतकेवलीको ऐसा जान पड़ा कि उनका अन्तसमय निकट है और इसलिये उन्होंने कटवप्र नामक देशके पहाड़ पर
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श्रङ्क १-२ ]
विश्राम करनेकी आज्ञा दी । वह देश जन, धन, सुवर्ण, अन्न, गाय, भैंस, बकरी आदि से सम्पन्न था। तब उन्होंने विशाख मुनिको उपदेश देकर अपने शिष्योंको उसे सौंप दिया और उन्हें चोल और पाण्ड्य देशोंमें उसके अधीन भेजा । राजावलिकथेमें लिखा है कि विशाख मुनि तामिल - देशों में गये, वहाँ पर जैनचैत्यालयों में उपासना की और वहाँ के निवासी जैनियोंको उपदेश दिया। इसका तात्पर्य यह है कि भद्रबाहुके मरण (अर्थात् २६७ बी० सी०) के पूर्व भी जैनी सुदूरदक्षिण में विद्यमान थे । यद्यपि इस बातका उल्लेख राजावलिकथेके अतिरिक्त और कहीं नहीं मिलता और न कोई अन्य प्रमाण ही इसके निर्णय करनेके लिये उपलब्ध होता है, परन्तु जब हम इस बात पर विचार करते हैं कि प्रत्येक धार्मिक सम्प्रदाय में विशेषतः उनके जन्मकालमें, प्रचारका भाव बहुत प्रबल होता है, तो शायद यह अनुमान अनुचित न होगा कि जैनधर्मके श्रादिम प्रचारक पार्श्वनाथके संघ दक्षिण की ओर अवश्य गये होंगे । इसके अतिरिक्त जैनियोंके हृदयों में ऐसे एकान्त स्थानोंमें वास करनेका भाव सर्वदासे चला श्राया है, जहाँ वे संसारकी झंझटों से दूर, प्रकृतिकी गोदमें, परमानन्दकी प्राप्ति कर सकें । श्रतएव ऐसे स्थानोंकी खोज में जैनी लोग अवश्य दक्षिणकी ओर निकल गये होंगे। मदरास प्रान्त में जो अभी जैन मन्दिरों, गुफाओं और बस्तियोंके भग्नावशेष और धुस्स पाये जाते हैं, वही उनके स्थान रहे होंगे। यह कहा जाता है कि किसी देशका साहित्य उसके निवासियोंके जीवन और व्यवहारौका चित्र है। इसी सिद्धान्तके अनुसार तामिल - साहित्यकी ग्रन्थालीसे हमें इस बात का पता लगेगा कि
3
तामिल प्रदेश में जैन धर्मावलम्बी ।
जैनियोंने दक्षिण भारतकी सामाजिक एवं धार्मिक संस्थाओं पर कितना प्रभाव डाला है ।
समस्त तामिल साहित्यको हम तीन युगों में विभक्त कर सकते हैं
१ संघ-काल ।
२. शैव नयनार और वैष्णव अलवारकाल ।
३. अर्वाचीन काल ।
इन तीनों युगों में रचित ग्रन्थोंसे तामिल राज्यमें जैनियोंके जीवन और कार्य्यका अच्छा पता लगता है।
संघ-काल ।
तामिल लेखकोंके अनुसार तीन संघ हुए । प्रथम संघ, मध्यम संघ और और अन्तिम संघ । वर्तमान ऐतिहासिक अनुसंधानसे यह ज्ञात हो गया है कि किन किन समय के अन्तर्गत ये तीनों संघ हुए । अन्तिम संघके ४६ कवियोंमेंसे नक्किरारने संघोंका वर्णन किया है । उसके अनुसार प्रसिद्ध वैयाकरण थोलकपियर प्रथम और द्वितीय संघोंका सदस्य था । श्रान्तरिक और भाषासम्बन्धी प्रमाणों के आधारपर अनुमान किया जाता है कि उक्त ब्राह्मण वैयाकरण ईसासे ३५० वर्ष पूर्व विद्यमान् होगा । विद्वानोंने द्वितीय संघका काल ईसाकी दूसरी शताब्दी निश्चय किया है । अन्तिम संघके समयको श्राजकल इतिहासज्ञ लोग ५वीं६ ठी शताब्दी निश्चय करते हैं । इस प्रकार सब मतभेदोंपर ध्यान रखते हुए ईसाकी ५ वीं शताब्दी के पूर्व से लेकर: ईसाके अनन्तर पाँचवीं शताब्दी तकके कालको हम संघ-काल कह सकते हैं । अब हमें इस बातपर विचार करना है कि इस कालके रचित कौन ग्रन्थ जैनियोंके जीवन और कार्यों पर प्रकाश डालते हैं।
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२६
जैनहितैषी ।
सबसे प्रथम, थोलकपियर संघकालका आदि लेखक और वैयाकरण है । यदि उसके समय में जैनी लोग कुछ भी प्रसिद्ध होते तो वह अवश्य उनका उल्लेख करता ; परन्तु उसके ग्रन्थोंमें जैनियोंका कोई वर्णन नहीं है । शायद उस समय तक जैनी उस देशमें स्थायी रूपसे न बसे होंगे अथवा उनका पूरा ज्ञान उसे न होगा । उसी कालमें रचे गये काल ' पथुपाट्टु' और " पहुथोगाई” नामक काव्यों में भी उनका वर्णन नहीं है, यद्यपि उपर्युक्त ग्रन्थोंमें विशेष कर ग्रामीण जीवनका वर्णन है।
1
दूसरा प्रसिद्ध ग्रन्थ महात्मा 'तिरुवल्लुवर' रचित 'कुरल' है, जिसका रचना - काल ईसाकी प्रथम शताब्दी ( ए० डी०.) निश्चय हो चुका है । 'कुरल' के रचयिता के धार्मिक विचारों पर एक प्रसिद्ध सिद्धान्तका जन्म हुआ है । कतिपय विद्वानोंका मत है कि रचयिता जैनधर्मावलम्बी था । ग्रन्थकर्त्ताने ग्रन्थारम्भमें किसी भी वैदिक देवकी वन्दना नहीं की है बल्कि उसमें 'कमल-गामी' और 'अष्टगुणयुक्त' आदि शब्दों का प्रयोग किया है। इन दोनों उल्लेखोंसे यह पता लगता है कि ग्रन्थकर्त्ता जैनधर्मका अनु यायी था । जैनियोंके मतसे उक्त ग्रन्थ 'एलचरियार' नामक एक जैनाचार्यकी रचना है* और तामिल काव्य 'नीलकेशीका जैनी भाष्यकार 'समय दिवा कर मुनि' 'कुरल' को अपना पूज्य-ग्रन्थ कहता है । यदि यह सिद्धान्त ठीक है तो इसका यही परिणाम निकलता है कि यदि पहले नहीं तो कमसे कम ईसाकी
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* इस बातको उल्लेख कहाँ पर मिलता है, यह बात जरूर बतलाई जानी चाहिये थी। हमें अभी 'एल चरियार' नामके आचार्यका भी कुछ परिचय नहीं है । कहीं यह एलाचार्यका ही बिगड़ा हुआ नाम न हो ।
सम्पादक ।
[भाग १५
पहली शताब्दिमें जैनी लोग सुदूर दक्षिणमें पहुँचे थे और वहाँकी देशभाषा में उन्होंने अपने धर्मका प्रचार प्रारम्भ कर दिया था । इस प्रकार ईसाके अनन्तर प्रथम दो शताब्दियों में तामिल प्रदेशोंमें एक नये मतका प्रचार हुआ, जो बाह्याडम्बरोंसे रहित और नैतिक सिद्धान्त होनेके कारण द्राविडियोंके लिए मनोमुग्धकारी हुआ । आगे चलकर इस धर्मने दक्षिण भारतपर बहुत प्रभाव डाला । देशी भाषाओंकी उन्नति करते हुए जैनियोंने दाक्षिणात्योंमें आर्य विचारों और आर्य-विद्या पर पूर्व प्रभाव डाला, जिसका परिणाम यह हुआ कि द्राविड़ी साहित्यने उत्तर भारतसे प्राप्त नवीन संदेशकी घोषणा की। मि० फ्रेज़रने अपनी "A Literary History of India" (भारतीय साहित्यिक इतिहास) नामक पुस्तक में कहा है कि "यह जैनियों हीके प्रयत्नोंका फल था कि दक्षिणमें नये आदर्शों, नये साहित्य और नये भावका सञ्चार हुआ ।" उस समयके द्राविड़ोंकी उपासना के विधानों पर विचार करनेसे यह अच्छी तरह से समझमें श्रा जायगा कि जैनधर्मने उस देश में जड़ कैसे जमा ली । द्राविड़ोंने अनोखी सभ्यताकी उन्नति की थी । स्वर्गीय श्रीयुत कनकसबाई पिल्ले के अनुसार, उनके धर्ममें बलिदान, भविष्यवाणी और श्रानन्दोत्पादक नृत्य प्रधान अंग थे । जब ब्राह्मणोंके प्रथम दलने दक्षिणमें प्रवेश किया और मदुरा या अन्य नगरोंमें वास किया तो उन्होंने इन श्राचारोंका विरोध किया और अपनी वर्ण-व्यवस्था और संस्कारोंका उनमें प्रचार करना चाहा, परन्तु वहाँके निवासियोंने इसका घोर विरोध किया। उस समय वर्ण-व्यवस्था पूर्ण रूपसे परिपुष्ट और संगठित नहीं हो पाई थी । परन्तु जैनियोंकी उपासना श्रादिके विधान ब्राह्मणोंकी
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अङ्क १-२] तामिल प्रदेशोंमें जैनधर्मावलम्बी । अपेक्षा सीधे सादे ढंगके थे और उनके दक्षिणमें अपना धर्म-प्रचार करने आये थे। कतिपय सिद्धान्त सर्वोच्च और सर्वोत्कृष्ट यह निश्चय है कि पाण्ड्य राजाओंने थे। इसी लिए द्राविड़ोंने उन्हें पसन्द किया उन्हें सब प्रकारसे अपनाया। लगभग और उनको अपने मध्यमें स्थान दिया; इसी समय प्रसिद्ध 'नलदियार' नामक यहाँ तक कि अपने धार्मिक-जीवनमें उन्हें ग्रन्थकी रचना हुई और ठीक इसी समयअत्यन्त आदर और विश्वासका स्थान में ब्राह्मणों और जैनियोंमें परस्पर प्रतिप्रदान किया।
स्पर्धाकी मात्रा उत्पन्न हुई। __ कुरलके अनन्तरके युगमें प्रधानतः इस प्रकार इस 'संघ-काल' में रचित जैनियोंकी संरक्षतामें तामिल-साहित्य ग्रन्थोंके आधारपर निम्नलिखित विवरण अपनी चरम सीमा तक पहुँचा । तामिल- तामिल-स्थित जैनियोंका मिलता है। साहित्यकी उन्नतिका वह सर्वश्रेष्ठ काल (१) थोलकपियरके समयमै, जो ईसाथा। वह जैनियों की भी विद्या और प्रतिभा- के ३५० वर्ष पूर्व विद्यमान् था, कदाचित् का समय था, यद्यपि राजनैतिक-सामर्थ्य- जैनी सुदूर दक्षिण-देशोंमें न पहुँच पाये हों। का समय अभी नहीं पाया था। इसी (२) जैनियोंने सुदूर-दक्षिणमें ईसाके समय (द्वितीय शताब्दी) चिरस्मरणीय अनन्तर प्रथम शताब्दिमें प्रवेश किया। 'शिलप्यदिकारम्' नामक काव्यकी रचना (३) ईसाकी दूसरी और तीसरी हुई। इसका कर्ता चेर-राज सेंगुत्तवनका शताब्दिमें, जिसे तामिल-साहित्यका भाई इलंगोव दिगाल था। इस ग्रन्थमें सर्वोत्तम-काल कहते हैं, जैनियोंने भी जैन-सिद्धान्तों, उपदेशों और जैनसमाज- अनुपम उन्नति की। के विद्यालयों और प्राचारों आदिका (४) ईसाकी पाँचवीं और छठी शताविस्तृत वर्णन है। इससे यह निस्सन्देह ब्दियों में जैनधर्म इतना उन्नत और प्रभावसिद्ध है कि उस समय तक अनेक द्राविड़ों- युक्त हो चुका था कि वह पाराड्य-राज्यने जैनधर्मको स्वीकार कर लिया था। का राजधर्म हो गया। .
ईसाकी तीसरी और चौथी शता. शैव-नयनार और वैष्णव-अलवार ब्दियों में तामिल-देशमें जैनधर्मकी दशा जाननेके लिये हमारे पास काफ़ी सामग्री
काल। नहीं है। परन्तु इस बातके यथेष्ट प्रमाण ___ इस कालमें वैदिक धर्मकी विशिष्ट प्रस्तुत हैं कि ५ वीं शताब्दिके प्रारम्भमें उन्नति होनेके कारण बौद्ध और जैनधर्मोंजैनियोंने अपने धर्मप्रचारके लिये बड़ा का श्रासन डगमगा गया। सम्भव है कि ही उत्साहपूर्ण कार्य किया। ‘दिगम्बर- जैनधर्मके सिद्धान्तोंका द्राविड़ी विचारोंदर्शन' (दर्शनसार ?) नामक एक जैन- से मिश्रण होनेसे एक ऐसा विचित्र ग्रन्थमें इस सम्बन्धका एक उपयोगी दुरंगा मत बन गया हो जिस पर चतुर प्रमाण मिलता है। उक्त ग्रन्थमें लिखा है ब्राह्मण आचार्योंने अपनी वाण-वर्षा की कि सम्वत् ५२६ विक्रमी (४७० ईसवी) • होगी। कट्टर जैन राजाओंके आदेशामें पूज्यपादके एक शिष्य वज्रनन्दी द्वारा नुसार, लम्भव है, राजकर्मचारियोंने दक्षिण मदुरामें एक द्राविड़-संघकी धार्मिक अत्याचार भी किये हों। रचना हुई है और यह भी लिखा है कि किसी मतका प्रचार और उसकी उक्त संघ दिगम्बर जैनियोका था जो उन्नति विशेषतः शासकोंकी सहायतापर
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निर्भर है। जब उनकी सहायताका द्वार बन्द हो जाता है तो अनेक पुरुष उस मतसे अपना सम्बन्ध तोड़ लेते हैं और पल्लव और पाण्ड्य साम्राज्यों में जैनधर्मकी भी ठीक यही दशा हुई ।
जैनहितैषी ।
इस काल (५वीं शताब्दि के उपरान्त) के जैनियोंका वृत्तान्त सेकिल्लार नामक लेखकके ग्रन्थ पेरियपुराणम्में मिलता है। उक्त पुस्तक में शैवनयनार और नवी अन्दर नम्बीके जीवनका वर्णन है, जिन्होंने शैव गान और स्तोत्रोंकी रचना की है । तिरुज्ञान-संभाण्डकी जीवनी पढ़ते हुए एक उपयोगी ऐतिहासिक बात ज्ञात होती है कि उसने जैनधर्मा वलम्बी कुन्पाण्ड्यको शैवमतानुयायी किया । यह बात ध्यान रखने योग्य है । क्योंकि इस घटनाके अनन्तर पाण्ड्यनृपति जैनधर्म के अनुयायी न रहे। इसके अतिरिक्त जैनी लोगों के प्रति ऐसी निष्ठु रता और निर्दयताका व्यवहार किया गया, जैसा दक्षिण भारत के इतिहास में और कभी नहीं हुआ । संभाण्डके घृणा - अनक भजनोंसे, जिनके प्रत्येक दसवें पद्यमें जैनधर्म की भर्त्सना थी, यह स्पष्ट है कि वैमनस्यकी मात्रा कितनी बढ़ी हुई थी ।
श्रतएव कुन्पाण्ड्य का समय ऐतिहासिक दृष्टिसे ध्यान रखने योग्य है, क्योंकि उसी समय से दक्षिण भारतमें जैनधर्म की अवनति प्रारंभ होती है । मि० टेलर के अनुसार कुन्पाण्ड्यका समय १३२० ईसवीके लगभग है, परन्तु डा० काल्डवेल १२६२ ई० बताते हैं । परन्तु शिलालेखों से इस प्रश्नका निश्चय हो गया है । 'स्वर्गीय श्रीयुत वैकट्याने यह अनुसन्धान किया था कि सन् ६४२ ई० में पल्लवराज नरसिंह वर्मा प्रथम 'वातापी' का विनाश किया। इसके आधार पर तिरुज्ञानसंभाण्डका समय ७वीं शताब्दिके मध्य में
भाग १५ ] निश्चित किया जा सकता है। क्योंकि संभाण्ड एक दूसरे शैवाचार्य 'तिरुनत्रु करसार' अथवा लोकप्रसिद्ध श्रय्यारका समकालीन था, परन्तु संभाण्ड 'श्रय्यार' से कुछ छोटा था । और अय्यारने नरसिंह वर्मा पुत्रको जैनीसे शैव बनाया । स्वयं अय्यार पहले जैनधर्मकी शरण में श्राया था और उसने अपने जीवनका पूर्व भाग प्रसिद्ध जैन विद्याके केन्द्र तिरुपि प्युलियारके विहारोंमें व्यतीत किया । इस प्रकार प्रसिद्ध ब्राह्मण श्राचार्य संभाण्ड और अय्यारके प्रयत्नोंसे, जिन्होंने कुछ समय श्रनन्तर अपने स्वामी तिलकवथिको प्रसन्न करनेके हेतु शैव-मतकी दीक्षा ले ली थी, पाण्ड्य और पल्लव राज्यों में जैनधर्मकी उन्नतिको बड़ा धक्का पहुँचा । इस धार्मिक संग्राम में शैवोंको वैष्णव अलवारोंसे विशेष कर 'तिरुमलिसैप्पिरन् ' और 'तिरुमंगई' अलवार से बहुत सहायता मिली, जिनके भजनों और गीतों में जैन-मत पर घोर कटाक्ष हैं । इस प्रकार तामिल - देशों में नम्मलवार के समयमें (१० वीं शताब्दि ए० डी०) जैनधर्मका अस्तित्व
सङ्कटमय रहा 1
३- अर्वाचीन काल |
नम्मलवार के अनन्तर हिन्दूधर्म के उन्नायक प्रसिद्ध श्राचार्योंका समय है । सबसे प्रथम शंकराचार्य हुए, जिनका उत्तरकी ओर ध्यान गया । इससे यह प्रकट है कि दक्षिण भारतमें उनके समय तक जैनधर्मकी पूर्ण अवनति हो चुकी थी। जब उन्हें कष्ट मिला तो वे प्रसिद्ध जैम-स्थानों श्रवणबेलगोल (मैसूर) टिण्डिवानम् (दक्षिण अरकाट) 'जा बसे । कुछने गंग राजाओंकी शरण ली जिन्होंने उनका पालन किया । यद्यपि श्रव जैनियोंका राजनैतिक प्रभाव नहीं रहा, और यद्यपि उन्हें
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तामिल प्रदेशों में जैनर्मावलम्बी। सब ओरसे .पल्लव, पाण्ड्य और चोल दक्षिण भारतके भी साहित्यमें राजनैतिक राज्यवाले तंग करते थे, तथापि विद्यामें इतिहासका बहुत कम उल्लेख है। उनकी प्रभुता न्यून नहीं हुई। 'चिन्ता- हमें जो कुछ शान उस समयके जैनमणि' नामक प्रसिद्ध महाकाव्यकी रचना इतिहास का है वह अधिकतर पुरातत्त्वतिरुलकतेवर द्वारा नवीं शताब्दीमें हुई। वेत्ताओं और यात्रियोंके लेखोसे प्राप्त प्रसिद्ध तामिल-वैयाकरण पविनन्दि जैन- हुश्रा है, जो प्रायः यूरोपियन हैं। इसके ने अपने 'नन्नूल' की रचना १२२५ ई० अतिरिक्त ब्राह्मणों के ग्रन्थोंसे भी जैनमें की। 'जैन गजट में जैनियोंकी साहित्य- इतिहासका कुछ पता लगता है, परन्तु सेवाका विस्तृत विवरण छप चुका है। वे सम्भवतः जैनियोंका वर्णन पक्षपातके इन ग्रन्थोके अध्ययनसे यह पता लगता साथ करते हैं। है कि जैनी लोग विशेषतः मैलापुर, निदु- इस लेखका यह उद्देश नहीं कि जैनम्बई (?) थिपंगुदी (तिरुवलूरके निकट समाज के प्राचार-विचारों और प्रथाओंएक ग्राम) और टिण्डिवानम्में बहुत का वर्णन किया जाय और न एक लेखसंख्यामें निवास करते थे।
में जैन-गृह निर्माण-कलाका ही वर्णन हो
सकता है। परन्तु इस लेखमें इस प्रश्न अन्तिम श्राचार्य श्रीमाधवाचार्यके
पर विचार करनेका प्रयत्न किया गया है जीवनकालमें मुसलमानोंने दक्षिण पर कि जैनधर्मके चिर-सम्पर्कसे.हिन्दु-समाजविजय प्राप्त की जिसका परिणाम यह
पर क्या प्रभाव पड़ा है। हा कि दक्षिणमें साहित्यिक, मानसिक जैनी लोग बड़े विद्वान् और पुस्तकोऔर धार्मिक उन्नतिको बड़ा धक्का पहुँचा
के लेखक हो गये हैं। वे साहित्य और और मूर्ति विध्वंसकोंके अत्याचारोंमें अन्य।
कलासे प्रेम रखते थे। जैनियोंकी तामिलमतावलम्बियोंके साथ जैनियोको भी कष्ट की सेवा तामिलियों के लिये अमल्य है। मिला। उस समय जैनियोंकी दशा वर्णन तामिल-भाषामें संस्कृतके शब्दोंका उपकरते हुए श्रीयुत वार्थ सा० लिखते हैं कि योग पहलेपहल सबसे अधिक जैनियों"मुसल्मान-साम्राज्य तक जैनमतका कुछ ही ने किया। उन्होंने संस्कृत शब्दोको कुछ प्रचार रहा । मुसलिम साम्राज्यका
तामिल-भाषामें उच्चारणकी सुगमताके प्रभाव यह पड़ा कि हिन्दूधर्मका प्रचार हेत यथेष्ट रूपसे बदल डाला। कनड़ीरुक गया, और यद्यपि उसके कारण साहित्यकी उन्नतिमें भी जैनियोंका उत्तम समस्त राष्ट्र की धार्मिक, राजनैतिक और
र भाग है । वास्तवमें वे ही इसके जन्मदाता सामाजिक अवस्था अस्तव्यस्त हो गई,
थे। 'बारहवीं शताब्दिके मध्य तक उसमें तथापि साधारण लघु संस्थाओ, समाजो जैनियोहीकी सम्पत्ति थी और उसके और मतोंकी रक्षा हुई ।”
अनन्तर बहुत समय तक जैनियोहीकी दक्षिण भारतमें जैनधर्मकी उन्नति उसमें प्रधानता रही। सर्व प्राचीन और और अवनतिके इस साधारण वर्णनका बहुतसे प्रसिद्ध कनड़ी-ग्रन्थ जैनियोंहीयह उद्देश नहीं कि सुदूर दक्षिण-भारतमें के रचे हैं।" (लुइस राइस )। श्रीमान् प्रसिद्ध जैनधर्मका इतिहास वर्णन हो। पादरी एफ० किटेल सा० कहते हैं कि ऐसे इतिहास लिखनेके लिये यथेष्ठ 'जैनियोंने केवल धार्मिक-भावनाओसे सामग्रीका अभाव है। उत्तरकी भाँति नहीं, किन्तु साहित्य-प्रेमके विचारसे भी
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जैनहितैषी।
[भाग १५
कनड़ी भाषाकी बहुत सेवाकी है और उक्त विस्मृतिके पटलमें लुप्त हो गया, उसके भाषामें अनेक संस्कृत ग्रन्थोंका अनुवाद सिद्धान्तोंपर गहरी चोट लगी; परन्तु किया है।"
दक्षिणमें जैनधर्म और वैदिक-धर्मके मध्य . अहिंसाके उच्च श्रादर्शका वैदिक- जो कराल-संग्राम और रक्तपात हुआ, वह संस्कारोंपर प्रभाव पड़ा है । जैन-उप- मदुरामें मीनाक्षी-मन्दिरके स्वर्णकुमुद-सरो देशोंके कारण ब्राह्मणोंने जीव-बलिप्रदान वरके मण्डपकी दीवारों पर अंकित चित्रों बिल्कुल बन्द कर दिया और यज्ञोंमें के देखनेसे अब भी स्मरण हो पाता है। जीवित पशुओंके स्थानमें श्राटेकी बनी इन चित्रों में जैनियोंके विकराल-शत्रु मर्तियाँ काम में लाई जाने लगी। तिरुशान संभाण्डके द्वारा जैनियोंके
दक्षिण-भारतमें मूर्तिपूजा और देव. प्रति अत्याचारों और रोमाञ्चकारी यातमन्दिर निर्माणकी 'प्रचुरताका भी कारण नाओका चित्रण है। इस करुणाकाण्डका जैनधर्मका प्रभाव है। शैव-मन्दिरोंमें यहीं अन्त नहीं होता है। मड्यूरा मन्दिरमहात्माओंको पूजाका विधान जैनियों के बारह वार्षिक त्योहारों से पाँचमें यह हीका अनुकरण हैं। द्राविडोकी नैतिक हृदय-विदारक दृश्य प्रति वर्ष दिखलाया एवं मानसिक उन्नतिका मुख्य कारण जाता है । यह सोचकर शोक होता है कि पाठशालाका स्थापन था, जिनका एकान्त और जनशून्य स्थानों में कतिपय उद्देश जैन विद्यालयों और प्रचारक- जैन-महात्माओं और जैनधर्मको वेदीपर मण्डलोंका रोकना था (?)।
बलिदान हुए महापुरुषोंकी मूर्तियों और मदरास प्रान्तमें जैन-समाजकी वर्त- जनश्रुतियोंके अतिरिक्त, दक्षिण-भारतमें मान दशापरभी एक दो शब्द कहना उचित अब जैनमतावलम्बियोंके उच्च-उद्देशों, होगा। गत मनुष्य-गणनाके अनुसार सर्वाङ्गव्यापी उत्साह और राजनैतिकसब मिलाकर २७००० जैनी इस प्रान्तमें प्रभावके प्रमाणस्वरूप कोई अन्य चिह्न थे, जिनमेंसे दक्षिण- कनारा, उत्तर और विद्यमान नहीं है ।* दक्षिण-अरकाटके जिलों में २३००० हैं। इनमेंसे अधिकतर इधर उधर फैले हुए हैं और माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला। गरीब किसान और अशिक्षित हैं। उन्हें इस समय ग्रन्थमालाका काम कुछ विशेष प्रयत्नसे अपने पूर्वजोंके अनुपम इतिहासका तनिक हो रहा है । मूलाचार प्राचार्य वसुनन्दिकी संस्कृत टीकाभी बोध नहीं है। उनके उत्तर-भारतवाले सहित, षट्याहुड़, श्रीश्रुतसागर सूरिकृत संस्कृत टीकासहित, भाई जो आदिम जैनधर्मके अवशिष्ट-चिह्न भावसंग्रह संस्कृत और प्राकृत, नीतिवाक्यामृत संस्कृत
टीकासहित । इनके सिवाय न्यायकुमुदचन्द्रोदय और हैं, उनसे अपेक्षाकृत अच्छा जीवन व्यतीत
न्यायविनिश्चयालंकार इन दो महान् ग्रन्थोंकी भी प्रेसकरते हैं। उनमेसे अधिकांश धनवान्, कापियाँ हो रही हैं। अब इस कार्य में धर्मात्माओंको विशेष व्यापारी और महाजन हैं । दक्षिण-भारत- सहायता करनी चाहिए। में जैनियोंकी विनष्ट-प्रतिमाएँ, परित्यक्तगुफाएँ और भग्न-मन्दिर इस बातके स्मारक हैं कि प्राचीन-कालमें जैन-समाज
* नोट-अनुवादकने अँगरेज़ी जैनगजटके जिस लेख
परसे यह अनुवाद किया है उसमें ऐतिहासिक व्यक्तियों का वहाँ कितना विशाल-विस्तार था और
तथा ग्रन्थों आदिके नामोंको ऐसे बुरे ढंगसे छापा है कि किस प्रकार ब्राह्मणोंकी धार्मिक-स्पर्धाने
उनमें भ्रम होना सम्भव है। हम साधन और समयाभावसे उनको मृतप्राय कर दिया। जैन-समाज उनकी जाँच नहीं कर सके।-सम्पादक ।
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श्रङ्क १-२] जैनधर्मकी अनेकान्तात्मक प्रभुता । जैनधर्मकी अनेकान्तात्मक
इसी प्रकार उक्त प्रथमानुयोगके
ग्रन्थों में उन सत्पुरुषोंकी कथाएँ देकर प्रभुता।
उन्हें जैनधर्मानुयायी बतलाया गया है
जो हिन्दधर्मके पुराण ग्रन्थोंके अनुसार (ले०-सरस्वतीसहोदर, अमरावती।)
ईश्वरके अवतार माने जाते हैं और जैनधर्मके पौराणिक साहित्य (प्रथमा- जिनकी वर्तमान हिन्दूधर्मानुयायी पूजा, नुयोग) का सूक्ष्मतया निरीक्षण और भक्ति तथा उपासना करते हैं। उदाहरणजैनधर्मके स्याद्वादकी दुर्भध सार्वभौमि के लिये श्रीरामचन्द्रजी तथा श्रीकृष्णजी कता पर विचार करनेसे प्रतीत होता है आदिको लीजिये। जैनशास्त्रोंमें, अनेक कि यह प्राचीन समयमें आजकलकी तरह कथाओं द्वारा, इन महानुभावोंको और इने गिने वैश्य समुदायके लिये रजिस्टर्ड इनके मित्र तथा प्रतिस्पर्धी हनुमान, नहीं था और न किसी वर्ण विशेषमें पाण्डव, रावण, कंस और जरासंधामर्यादाकी जंजीरोंसे ही जकड़ा हुआ था; दिकको उनके कतिपय परिवारों सहित बल्कि प्राचीन समयके प्रायः सर्व देशोंकी जैनधर्मानुयायी प्रकट किया गया है। जनतामें जैनधर्मके सार्वभौमिक सिद्धान्त इस विषयमें कुछ ऐतिहासिक विद्वान् व्यापक रूपमें फैल चुके थे। मूर्ख व्यक्तिसे . तथा अन्य विचारक जन भले ही जैनकथालेकर बड़े बड़े दिग्गज विद्वानोंतकके कारों पर कुछ दोषारोपण करें-उनकी हृदयमें और रंकसे लेकर चक्रवर्ती रचनाओं में कतिपय ऐसे दोष दिखलाएँ सम्राट्तकके मानसमें जैनधर्मने अपना जिनसे अजैन कथाकार भी मुक्त नहीं हैं, स्थान जमा लिया था। इतना ही नहीं, किन्तु अथवा यह कहें कि उनका लिखना अक्षर चक्री, अर्द्ध चक्री,महामंडलेश्वर,मंडलेश्व- अक्षर रूपसे सत्य नहीं है, परन्तु इसमें रादिक, प्रजापालक और उनके राज्यके संदेह नहीं, कि जैनधर्मकी (मोक्षमार्गप्रायः सम्पूर्ण प्रजाजन (ब्राह्मण, क्षत्रिय, की) अनेकान्तात्मक प्रभुताकी दृष्टिसे वैश्य, शूद्र और म्लेच्छ आदि सभी प्रकार- विचार करने पर जैन कथाकारोंका उक्त के उच्च, नीच मनुष्य) द्रव्य, क्षेत्र, काल, व्यक्तियोंको जैनधर्मानुयायी लिखना भावके अनुसार अपनी अपनी परिस्थितिके निर्हेतुक नहीं है। वे अनेकान्तात्मक वस्तुअनुरूप जैनधर्मको धारण कर (मोक्षमार्ग स्वभावी जैनधर्मको विश्वव्यापी और स्वीकार कर) अपना कल्याण किया सार्वभौमिक समझते थे और उनका यह करते थे।
समझना बहुत कुछ ठीक जान पड़ता है। पौराणिक साहित्यमें ऐसी अनेक हमारे ख़यालमें श्रीरामचन्द्र तथा कथाएँ वर्णित हैं जिनसे जाना जाता है कि श्रीकृष्णादिक महान् व्यक्तियोंको जैनसप्त व्यसनोका सेवन करनेवाले अथवा धर्मानुयायी माननेमें शंका करना जैनउनमेंसे किसी एक व्यसनमें आसक्त धर्मको संकुचित और अनुदार बनाना है बहुतसे जुआरी (द्यूतक्रीडक), मांसभक्षक, जो कि उसकी प्रकृतिके विरुद्ध है। उन मद्यपायी, वेश्याभक्त, शिकारी, चोर और महान् व्यक्तियोंके सम्यग्दृष्टि होने में संदेह परस्त्रीलंपट अपने अपने राग परिणामों- करना मानो उन्हें अज्ञानी समझना है। को मन्द कर सम्यग्दृष्टि हो गये और सारा भारतवर्ष चिरकालसे जिनके नामअन्तमें उन्हें स्वर्गादिककी प्राप्ति हुई। काप्रातःस्मरण अभीतक करता आ रहा है
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ફર
उनको अज्ञानी या मिथ्यावादी समझना बड़ी भूल है । उक्त महान् व्यक्तियोंकी नस नस अनेकान्तात्मक वस्तुस्वभावी धर्म भरा हुआ था । प्राचीन समय में वीर व्यक्ति ही जैनधर्मका सम्पूर्णतया पालन करते थे । श्रीकृष्णके नामसे जो गीता प्रसिद्ध है उसमें जैनधर्मके सिद्धान्त का प्रतिपादक निम्नलिखित पद्य ध्यानसे पढ़े जाने योग्य है
जैनहितैषी ।
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । न. कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्त्तते ॥ नादत्ते कस्यचित्पापं न कस्य सुकृतं विभुः । अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥
इसमें श्रीकृष्णजी अर्जुनको बतलाते हैं कि, परमेश्वर जगत् के कर्तृत्व और कमको उत्पन्न नहीं करता और न कर्मफलकी योजना करता है; यह सब कुछ स्वभावसे ( अनेकान्तात्मक वस्तुस्वभावसे) हो रहा है। परमेश्वर न किसीका पाप अपने ऊपर लेता है और न किसीका पुण्य । श्रज्ञानके द्वारा ज्ञान पर परदा पड़ा हुआ है और उसके कारण संसारी जीव मोहित हो रहे हैं-तरह तरहकी कल्पनाएँ कर रहे हैं ।
इन जैन सिद्धान्तानुकूल भावों पर विचार करनेसे, जो कि जैन ग्रन्थोंमें पाये जाते हैं, श्रीकृष्णजीको जैनकथाग्रन्थोंके कथनानुसार, जैन धर्मानुयायी माननेमें कुछ सङ्कोच नहीं होता ।
'वास्तव में श्राजकल जैनधर्मके अनेक तत्त्व संसारके सभी मत और सम्प्रदायों
इसी भाँति सूक्ष्म रीतिसे छिपे हुए हैं । उनको अनेकान्तरूपी दैदीप्यमान प्रकाशके सहारे खोजकर प्रकट करना जैनधर्मकी उन्नति और उसके प्रवारका एक मार्ग है।
[ भाग १५
भट्टाकलंकदेवने अपने साहित्य में जैनधर्मकी अनेकान्तात्मक प्रभुताको बड़े ही स्पष्ट रूप से झलकाया है । श्राप नामादि विशेषको प्रायः कुछ भी प्रधानता नहीं देते थे । आपके प्रतिपाद्य साहित्य में सर्वत्र परीक्षाप्रधानताकी ध्वनि गूँजती है । श्रापके जीवनचरित्रसे विदित होता है कि आपका अध्ययन बौद्धोंके विद्यापीठमें भी हुआ था । श्राप अपने समयमें प्रचलित अनेक दर्शनोंके पारङ्गत विद्वान् थे । आपको जैनदर्शनके अतिरिक्त अन्य दर्शनसाहित्यके पढ़ने में तथा सत्यांशको खोजने में मिथ्यात्वका भय नहीं रहता था । यही सबब है कि आप इतने बड़े दिग्गज विद्वान् हो सके । आपकी परीक्षाप्रधानता और युक्तिपूर्ण अनेकान्त प्रभुता निम्नलिखित एक ही श्लोकले प्रकट होती है
-
यो विश्व वेद वेद्यं जननजल निधेर्माङ्गिनः पारदृश्वा | पौर्वापर्याविरुद्धं वचनमनुपमं निष्कलङ्कं यदीयम् ॥ तं वन्दे साधुवन्द्यं सकलगुणनिधि ध्वस्तदोषद्विषन्तम् । बुद्धं वा वर्द्धमानं शतदल
निलयं केशवं वा शिवं वा ॥
आपको ऐसे ही वचन मान्य थे जो परस्पर अविरुद्ध, अनुपम और निर्दोष हों, चाहे वे किसी मतके हो। इसी प्रकार आपको वर्द्धमान नामसे ही विशेष अनुराग न था और न बुद्ध, ब्रह्मा, विष्णु, महेश श्रदिक नामोंसे कोई घृणा थी; किन्तु जो सम्पूर्ण विश्व को देखने जाननेवाला, दोषों से रहित, सकल गुणका श्रागार और साधुओं करके वन्दनीय हो
जैनधर्मके धुरन्धर आचार्य श्रीमद् उसीको श्राप परमदेव मानते थे । फिर
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अङ्क १-२) जैनधर्मकी अनेकान्तात्मक प्रभुता। वह चाहे बुद्ध हो, वर्द्धमान हो, ब्रह्मा हो, व्यवहार करना अप्रशस्त मालूम होने लगा, विष्णु हो या महेश ही क्यों न हो। बड़े बड़े राजाओमे अपार विद्वेष फैला
ऊपरके इस कथनसे हमारा अभि- और परस्पर युद्ध होकर उनकी शक्तियाँ प्रायः यह सूचित करनेका है कि प्राचीन निर्बल होने लगी। जिनकी शक्ति अत्यन्त समयमें जैनधर्म जातिवाचक या सम्प्र- निर्बल हो चुकी वे दूसरोंका उत्कर्ष देखनेदाय-विशेष नहीं था किन्तु अन्यान्य मतों में राज़ी न हुए, किन्तु विदेशियोंको तथा सिद्धान्तोंकी पारस्परिक विरुद्धता निमंत्रण देकर उनकी सहायतासे अपनी मिटाकर उन सबको एकताके सूत्र में सञ्चा- तथा समस्त भारतवर्ष को स्वतंत्रता पर लित करनेवाला और प्राकृतिक सत्यका आघात पहुँचाने में उन्हें खुशी हुई, जिसका प्रतिपादक एक वैज्ञानिक मार्ग था, जिसे फल हम अाज देख रहे हैं । विशेष प्राश्चर्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, म्लेच्छ आदि और अत्यन्त खेदकी बात यह है कि जैनप्रत्येक उच्च-नीच वर्ण और प्रत्येक धर्म- धर्मानुयायियोंने भी अनेकान्तकी सार्वपन्थके मनुष्यमात्रको अपनानेका समान भौमिकतासे अपरिचित होकर अनैक्य अधिकार था। उस समयके विद्वानों में बढ़ाने में ही उसका उपयोग किया है। प्रायः अपने अपने मतका विशेष दुराग्रह उसीका फल यह है कि वर्तमानमें दिगम्बर, नहीं था। वे सत्य सिद्धान्त और सत्य श्वेताम्बर, स्थानकवासी और फिर उसीमार्गको विवेककी कसौटी पर परखकर के अन्तर्गत अनेक संघ और पन्थ देख शीघ्र ही स्वीकार कर लेते थे।
पड़ते हैं । अपने धर्मरूपी शरीरके एक परन्तु खेदकी बात है कि जैसे धर्म- एक अंगको ही सत्य मान और बाकी का अनेकान्तात्मक प्रभुत्त्व भारतवर्ष में अंगोंको मिथ्या जान अथवा शरीरके एक कम होता गया वैसे ही मत, पंथ, वर्ण अंगको ही उपादेय और दूसरे अंगोंको और जातिभेद बढ़ता गया और परस्पर हेय जानकर एकांती बन अनेकांतवादिताउच्च-नीच, निंदा-स्तुति, तथा ईर्ष्याके भाव का जो शोर अभी तक मचाया गया है वह फैल गये जिन सबके कारण पक्षपात, कहाँ तक प्रशस्त है, इसपर सभी जैनी दुराग्रह, मिथ्याभिमानं और अनैक्यकी कहलानेवाली जनताको विचार करना वृद्धि हो गई। यहाँ तक कि. एक ही धर्म- चाहिये। मनुष्य शरीरके एक छोटेसे में अनेक सम्प्रदाय और पन्थ उत्पन्न हो छोटे अंगद्वारा भी, जो कभी कभी व्यर्थ गये और प्रत्येक पन्थवाले अपने अपनेको अँचने लगता है, कोई न कोई कार्य सत्यवादी और दूसरोंको मिथ्यावादी शरीरकी रक्षा और पोषणका अवश्य समझने लगे। परस्पर खूब मार काट हुश्रा करता है। पैरमें ज़रासा काँटा लग
और झगड़े होने लगे, एकको दूसरेका जाने पर समस्त शरीरमें एक प्रकारकी उत्कर्ष अच्छा नहीं मालूम होता था, इस. हलचल मच जाती है और काँटा लगनेके लिये दूसरेका उत्कर्ष घटानेके उपाय सोचे स्थानमें शरीरका दूसरा अंग उसके सहाजाने लगे।अन्तमें ईर्ष्या, मत्सर और द्वेषका यतार्थ पहुँचता है और यह कार्य हाथके प्रभाव धार्मिक भावोंके बाहर सामाजिक द्वारा मस्तिष्क कराता है। यदि मस्तिष्क और राजनैतिक क्षेत्रमें और भी तेजीसे अपने पैरको हेय जान या मिथ्या मानकर फैल गया। एक एक वर्णमें अनेक जातियाँ हाथों द्वारा उसीपर शस्त्र प्रहार करने निर्मित हुई, परस्पर खान पान, बेटी लगे तो उसका दुःख केवल पैर हीको
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नहीं होता बल्कि समस्त शरीर वेदनाके arry स्वस्थ रहता है । यदि ज्यादा प्रहार करने पर पैरको सर्वथा ही शरीर से अलग कर दिया जाता है तो कुछ समय में समस्त शरीर चैतन्यरहित हो जाता है । इसी प्रकार धर्मरूपी शरीरका मस्तिष्क जैनधर्म है और उसकी वर्तमान शाखा प्रशाखायें मस्तिष्क के ही विभाग हैं। बाकी संसार के समस्त भिन्न भिन्न धर्म उस शरीर के अन्यान्य हस्त पादादिक अंग और श्रवयव हैं । यही श्रनेकान्तका वास्त विक रहस्य है । परन्तु श्राजकल एक तो जैन समाज में अनेकान्तको समझनेवाले ही कम हैं और जो थोड़े बहुत विद्वान् अनेकान्तको जाननेवाले हैं भी उनकी प्रायः यही धारणा है कि अनेकान्त किसीके खंडन करनेका ब्रह्मास्त्र है; उसका उपयोग सिर्फ़ अन्य धर्मोका खंडन करनेके लिये और वस्तु स्वभावकी असलियत परखने तथा उसके अनुभव करनेमें कुछ गड़बड़ी मचानेके लिये ही है । ऐसा मानना बड़ी भूल है । इसी भूलसे समाजका अधःपतन हो गया और होता जा रहा है।
जैनहितैषी ।
पूज्य श्रमृतचन्द्राचार्यजीने अपने " पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय" ग्रन्थ में सत्य लिखा है कि
" अत्यन्त निशित धारं
दुरासदं जिनवरस्य नयचक्रम् | खण्डयतिधार्यमाणं
मूर्धानंझटिति दुर्विदग्धानाम्" ॥ "श्रीजिनेन्द्र भगवान के अति तीक्ष्ण धारवाले और कठिनतासे सिद्ध होनेवाले मयचक्र को अज्ञानी पुरुष धारण करे तो वह उनके मस्तक को शीघ्र ही खण्डन कर देता है ।" अर्थात् अनेकांतरूपी नयचक्रको समझना बड़ा कठिन है; जो कोई
[ भाग १५
बिना समझे इसमें प्रवेश करते हैं वे अपने ही हाथोंसे धर्मरूपी शरीरका मस्तक शरीर से अलग कर देते हैं । फिर शरीरके दूसरे श्रंगावयवोंको नष्ट करनेकी तो बात ही अलग है । मनुष्य मात्रको अपने हृदयमें यह गाँठ बाँध लेना चाहिए कि, अनेकांत ( स्याद्वाद ) पथका उद्देश विरोध और भेदभाव बढ़ानेका नहीं, बल्कि विरोध और भेदभाव दूर करनेका है । इसी लिये उक्त श्राचार्य प्रवरने अनेकांतको परमागम का जीव - सत्य सिद्धान्तकी जान-सकल नयोंसे विलसित तथा विरोधका दूर करनेवाला माना है और अनेकांतकी इस सार्वभौमिक प्रभुताके उत्कृष्ट महत्वको समझकर उसे नमस्कार किया है । यथा
परमागमस्य जीवं निषिद्ध जात्यन्धसिन्धुर विधानम् । सकल नय विलसितानां
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विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ श्रीविनयविजयजी उपाध्यायने 'नयकर्णिका' नामकी एक अत्यन्त सुबोध, सरल और लघु पुस्तक, स्याद्वाद में प्रवेश करनेवाले व्यक्तियोंके लिये, निर्मित की है, जिसकी श्लोक संख्या २३ है । इसे गुजराती अनुवाद, प्रस्तावना, उपोद्घात, कर्ताके जीवनचरित्र और स्फुट विवेचन सहित पण्डित लालनने प्रसिद्ध किया है। उक्त पुस्तक में उपाध्यायजीने वर्द्धमान स्वामीकी स्तुति के रूपमें सप्तनयोंका बहुत सुन्दरतापूर्वक वर्णन किया है । उपाध्यायजी कहते हैं
"वर्धमानं स्तुमः सर्वनयनद्यर्णवागमम् । संक्षेपतस्त दुन्नीतनयभेदानुवादतः || १ || " "श्रीवर्द्धमान स्वामीका श्रागम सब नयरूपी नदियोंके लिये समुद्रके समान है; उनके द्वारा प्ररूपित नयभेदोंका संक्षेपमें
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अङ्क १-२ ]
अनुवाद कर हम उनकी स्तुति करते हैं । अर्थात् जिस प्रकार शब्दसमूह असंख्य है और वैयाकरणोंने व्याकरणमें शब्दसमूहके संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, किया पद, क्रिया विशेषण अव्यय श्रादि श्रावश्यक भेद नियोजित कर अभ्यासियोंका मार्ग सुगम बना दिया है, उसी प्रकार नय समूहकी संख्या भी गणनातीत होनेसे कुशाग्र-बुद्धि जैनाचार्योंने दीर्घ मननके बाद नयके महान् समूहको सिर्फ सात ही नयों में विभक्त कर दिया। इन सात ही में यावन्मात्र नय भेदोंका श्राविर्भूत हो, ऐसा पृथक्करण किया गया है। ऐसा कोई नय बाकी नहीं रहा जिसका समावेश इन सात नयोंके भीतर न हुआ हो । जिस प्रकार शब्दसमूहके किसी शब्दको संज्ञा श्रादिक उपनाम देने पर व्याकरणके वर्गीकरणोंमेंसे एक अंगका ज्ञान होता है, उसी प्रकार असंख्य विचारोंमेंसे किसी विचारका सात नयोंमेंसे एकाध नयमें समावेश होनेपर उस नय विशेषका ज्ञान होता है । शब्द- समूह के व्याकरणोक्त सम्पूर्ण आठ अंगों का ज्ञान होने पर जिस प्रकार उन अंगों का यथावत् उपयोग करनेमें . कठिनता नहीं होती, उसी प्रकार विचारोद्गार किस नयसे प्रकट किये गये, इसका भली भाँति ज्ञान प्राप्त करनेमें स्याद्वादरूपी विचार व्याकरणके जाननेसे कठिनता नहीं रहती । नयशास्त्र (स्याद्वादअनेकांतवाद) विचारोंका अन्तर्गत रहस्य समझने के लिये एक प्रकारका व्याकरण है। एक ही वस्तुका भिन्न भिन्न अपेक्षा (दृष्टि) से भिन्न भिन्न आभास होता है; क्योंकि वस्तु अनन्त धर्मविशिष्ट होती है । उसके अनन्त धर्मोसे ( गुणों में से ) किसी ख़ास गुणकी मुख्यता लेकर कथन करना जय (अपेक्षा-विवक्षा-दृष्टि- हेतु - Point) कहलाता है । सम्पूर्ण नयों के भिन्न भिन्न
जैनधर्मकी अनेकान्तात्मक प्रभुता ।
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कथनको एकत्र करनेसे उस वस्तुका परिपूर्ण ज्ञान होता है । जगत् के समस्त धर्म, जगत् की सब प्रकारकी प्रकृतियाँ -- चाहे वे पारमार्थिक हो, राजनैतिक हों, सामाजिक हो या व्यक्तिगत हों - जुदी जुदी अपेक्षाओं के अवलम्बित मार्ग हैं । सम्पूर्ण अपेक्षाओं को जाननेवाला सर्वश कहलाता है और सामान्य बुद्धिवाले जन जितनी जितनी अपेक्षाओं को ( नयको ) समझें उतने ही उतने श्रंशोंमें, विशेषज्ञ कहलाते हैं । इसी अपेक्षा ज्ञानकी प्रशंसा करते समय श्रार्यशास्त्र कहते हैं "ज्ञानमेव परं बलम्" 'ज्ञान ही परम बल है" । पश्चिमी तत्त्वज्ञ लार्ड बेकन भी कहता है“Knowledge is Power. "ज्ञान ही परम वीर्य-बल-सामर्थ्य पराक्रम है ।" यही समस्त भूमण्डल के तत्त्वशके कथनका सार है । यह ज्ञान वही नयज्ञान, न्यायज्ञान अथवा अपेक्षाज्ञान है । हम ऊपर लिख चुके हैं। कि जिस प्रकार शब्द समूह असंख्य है उसी प्रकार नय समूह भी श्रसंख्य है । साथ ही यह भी लिख चुके हैं कि व्याकरण के सदृश उक्त श्रसंख्य नय समूह, सामान्य रूपसे, भिन्न भिन्न सात नयोंमें गर्भित किया गया है और जगत् के समस्त विचार और प्रवृत्तियाँ भिन्न भिन्न नयोंके प्रवलम्बित मार्ग हैं। नय समूहके समस्त अंशों को संपूर्ण जाननेवाला सर्वश कहलाता है और नय समूहके जितने जितने अंशको जो जाने वह उतने ही अंशमें विशेषज्ञ कहलाता है ।
तीर्थंकर प्रभृति असंख्य नय भेदोंके समूहको सम्पूर्णतया जाननेवाले सर्वश थे । इसलिये उनके श्रागमरूपी महासागरमें समस्त विशेषज्ञोंकी नय रूपी भिन्न भिन्न सरिताएँ अवश्यमेव श्राकर मिल जाती हैं । अन्तमें उक्त उपाध्यायजी ग्रन्थका उपसंहार करते हुए लिखते हैं
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जैनहितैषी।
[ भाग १५ "सर्वे नया अपि विरोध भृतो मिथस्ते, प्रचार ही है। परन्तु हमारे अधिकांश सम्भूय साधुसमयं भगवन् भजाते। जैनधर्मानुयायी जो अपनेको अनेकान्तभूपा इव प्रतिभा भुवि सार्वभौम
वादी कहते हैं, कट्टर एकान्ती बने हुए हैं पादाम्बुजं प्रधनयुक्ति पराजिता द्राक् ॥"
और अपनी कृपमण्डूक वृत्तिसे अनेका
न्तके वास्तविक प्रभुत्वको जो दीर्घकालसे "हे भगवन् ! ये सब नय परस्पर
लुप्तप्राय हो रहा है, प्रकाशमें लानेकी विरोधी होने पर भी एकत्र होकर श्रापके अपेक्षा नामशेष करनेकी चेष्टामें ही लगे परमागमकी इस प्रकार सेवा करते हैं,
हुए हैं, यह जानकर किसे खेद न होगा ! जिस प्रकार कि राजागण परस्पर विराधा ऐसे लोगोंको अपने अपने सम्प्रदायहोते हुए भी पराजित होकर सावभाम के अतिरिक्त अन्य साहित्यका माध्यस्थसम्राट् (चक्रवर्ती) की चरणसेवामें शीघ्र ।
___ रूपसे अवलोकन करना भी महान ही प्रवृत्त हो जाते हैं।"
मिथ्यात्व और साम्प्रदायिक सिद्धान्तों पाठकगण, सोचिए, जैनधर्मकी अने तथा नियमोंके विपरीत अँचता है; ऐसी कान्तात्मक प्रभुताका उपाध्यायजीने अवस्थामें यदि कोई साहस कर निर्भीक कितना सुन्दरतापूर्वक स्पष्ट उल्लेख किया विचार प्रकट भी करना चाहे तो चारों है। प्राचीन कालमें चक्रवर्ती सम्राट भी तरफसे उसके प्रति अनेक प्रकारके आक्रजैनधर्मके अनेकान्त तत्त्वका अनुसरण कर मण होने लगते हैं। धर्मके ठेकेदार समाजमें पृथ्वीके समस्त राजाओं को अपनी सार्व- शीघ्र ही यह घोषणा कर देते हैं कि भौमिकताके एक सूत्र में सङ्कलित करते अमुक अमुक व्यक्ति धर्मका शत्रु है, उसके थे। जैनधर्मका अनेकान्त सम्राट तुल्य है विचार कोई न माने न सुने और ऐसे और संसारके समस्त धर्मपन्थ जो एका- विचार जिन पत्रों में प्रकाशित होते हों म्तरूप हैं उसकी छत्र-छायामें सङ्कलित उन पत्रोंको भी कोई जैनी न खरीदे । पर राजाओंके समान हैं। संसारके समस्त वास्तव में देखा जाय तो ये धर्मके ठेकेधर्मपन्थ जैनधर्मके ही भिन्न भिन्न नय विशेष दार ही धर्मके हित-शत्रु हैं जो भोली हैं। उनका परस्पर मतविरोध भले ही जनताको अपने पूर्वजोंके धर्मरहस्यका हो और उनके अनुयायी परस्परमें विरोध- विपरीत अर्थ समझाकर और पूर्वजोंके भाव और घृणा रखते हों किन्तु जैनधर्म नामकी दुहाई देकर जैनधर्मके रहे उन सब धर्मपन्थोके भिन्न भिन्न नयोका प्रभुत्वको भी नष्ट भ्रष्ट करना चाहते हैं। वे सङ्कलित समुदाय है। अतएव जैनधर्मानु. लोग अपने दिलमें तो शायद यही सोचते यायियोंको, जो सच्चे अनेकान्ती हैं, हैं कि हम अपने धर्मकी रक्षाका उपाय प्रत्येक धर्मपन्थरूपी नयसे विरोध और कर रहे हैं, परन्तु धर्मकी असलियत घृणाके भाव न रखकर माध्यस्थरूपसे उन्हींकी कृतियोंसे दिन पर दिन नष्ट होती प्रत्येक धर्मपन्थके सिद्धान्त, विचार और जा रही है। प्रवृत्तियोंका अपने नयज्ञानमें स्पष्टीकरण अन्तमें श्रीमद् रायचन्द्रजी काव्यकरना चाहिए । बड़े हर्षकी बात है कि मालाके प्रथम गुच्छकसे, अध्यात्मप्रेमी जगत्के विद्वानोंमें मतान्तर-क्षमता या श्रीश्रानन्दघनजीकी स्तुत्यात्मक एक पद्य परमत-सहिष्णुता बढ़ रही है। इसका रचना उद्धृत करके हम पाठकोंसे प्रेरणा कारण अनेकान्त तत्त्वका अव्यक्त रूपसे करते हैं कि वे उस पर विचार करें।
De
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जैनधर्मकी प्रकान्तात्मक प्रभुता। . गुजराती पद्य
अर्थात् सुगत (बुद्ध) प्रणीत बौद्धदर्शन षड्दर्शन जिन भंग भणिजे,
और जैमिनि प्रणीत पूर्व और व्यास न्यास षडंग जो साघरे । प्रणीत उत्तर मीमांसा (वेदान्त ) मिलानमि जिनना चरण उपासक,
कर मीमांसा दर्शन जिनेश्वरके दो हाथ षड्दर्शन आराधेरे ॥ षड़.॥
हैं । क्योंकि जैनसिद्धान्त में वस्तुकी
स्वभावरूप और विभावरूप ऐसी दो जिन सुर पादप पाय वखाणु,
प्रकारकी पर्याय मानी हैं और पर्यायमें सांख्य योग दोय भेदेरे ।
सदैव उत्पाद व्यय हुआ करता है । आत्मसत्ता विवरण करतां,
इस दृष्टिसे पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा लहो दुग अंग अखेदेरे ॥षड़.॥
बौद्धदर्शन भी जिनेश्वरका एक अंग कहा भेद अभेद सुगत मिमांसक,
है। पर्यायसे आत्मा क्षण क्षण बदलती जिनवर दोय कर भारी रे । रहती है, यह कहना सर्वथा असत्य नहीं, लोकालोक अवलम्बन भजिये,
पर कई अंशों में सत्य है। व्यवहार नयसे गुरुमग थी अवधारी रे ॥षड़॥
भी.पर्यायान्तर कालसे श्रात्माको देखते लोकायत कूख जिन वरनी,
हुए बौद्धदर्शन तथ्य रूप है। मीमांसक अंश विचार जो कीजे रे ।
आत्माको एक, नित्य, अबद्ध, त्रिगुण
अबाधित ऐसा मानते हैं । वस्तु स्वभावतत्त्व विचार सुधारस धारा,
की दृष्टिसे निश्चय नयकी अपेक्षा यह बात गुरुगम विण किम पीजे रे॥षड़॥
ठीक है। क्योंकि सब आत्माएँ सत्तामें जैन जिनेश्वर उत्तम,
एक समान होनेके कारण प्रात्मा एक ही . अंग रंग बहिरंग रे ।
गिना जाता है। आत्माको बन्ध नहीं, इस .. अक्षर न्यास धरा आराधक,
दृष्टिसे शुद्ध निश्चय नयकी अपेक्षा मीमांसाआराधे धरी संगे रे ॥षड़.॥ दर्शनको भी जिनेश्वरका एक अंग कहा भावार्थ-षडदर्शन जिनेन्द्र भगवान्- है। बौद्धदर्शन व्यवहार नयपूर्वक सिद्ध के भिन्न भिन्न अङ्ग हैं। जो लोग जिनेन्द्र है इसलिये बायाँ हाथ और मीमांसा दर्शन भगवान् श्रीनेमिप्रभुके चरण-उपासक हैं निश्चय नयसे योग्य है, इसलिये दाहिना अर्थात् सच्चे जैन हैं वे जैन शासनमें षड़- हाथ कहलाता है। दर्शनका आविर्भाव देखते हैं और जिनेन्द्र श्रीश्रानन्दधनजीने भिन्न भिन्न दर्शनोंभगवान्की आकृतिमें-छः अंगोंमें-छः के प्रति समदृष्टि रखते हुए जिनेश्वरके दर्शनोंकी स्थापना घटित होती है। जिने- अंग मान अपनी मतान्तर-रहितता प्रकट श्वरके कल्पतरु समान दो पैर सांख्य की है। परन्तु विशेष बात तो यही है कि और योग ये दो अंग हैं। ये दोनों अंग चार्वाक अथवा नास्तिकवादियोंका भी आत्माकी सत्ता मानते हैं । इस अपेक्षासे खण्डन न करते हुए जिन दर्शनमें मिलाने. सांख्य और योग दो पैर रूप कहे हैं। की परम गम्भीर शैली स्वीकार की है। इससे स्वयं तो मतान्तर-रहितता प्रकट श्रापने चार्वाक मतको श्रीजिनेश्वरका पेट होती है किन्तु पाठकोंको भी रचयिता (उदर ) माना है, वह इस हेतुसे कि .आदेश करते हैं कि इस बातको नेदरहित चार्वाक जगत्का कोई कर्ता नहीं मानते, होकर ग्रहण करो । भेदवादी, अभेदवादी वस्तु-स्वभावके अनुसार अनादि कालसे
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महितपी।
[भाग १५ जगत्में उत्पत्ति, स्थिति और लय हुआ जैनधर्मका महत्व । करता है। यह बात जैनसिद्धान्तके अविरुद्ध है। जैनदर्शनको उत्तम अंग अर्थात् (ले० बाबू सूरजभानजी वकील ।) मस्तक (सिर) माना है। इस प्रकार षड़ संसारमें जितने धर्म इस समय दर्शन जैनधर्मके भिन्न भिन्न अंग प्रतीत प्रचलित हैं वे चाहे और कुछ भी गीत गावे, होते हैं । यही जैनधर्मकी अनेकान्तात्मक कैसे ही खेल बनावें और तमाशे दिखावें प्रभुता है ।*
किन्तु उन सबमें त्याग-वैराग्य ही सबसे उत्कृष्ट माना जाता है और वह मनुष्य
संसार भर के वास्ते पूजनीय हो जाता पक्षपात-दृष्टि गुण दोषोंका विवेक है जो संसारसे मुँह मोड़कर उसके सर्व नहीं होने देती। वह मनुष्यको हठग्राही प्रकारके विषय भोगोंको लात मार साधु बना देती है। उसमें श्रद्धाके न होते हुए या संन्यासी बन जाता है और मान, भी, कषायवश, किसी बात पर व्यर्थका माया, लोभ, क्रोध आदि कषायों को दबाआग्रह किया जाता है और प्राग्रही मनुष्य कर अपनी आत्मामें लीनता प्राप्त कर युक्तियोंको खींच खाँचकर उस ओर ले लेता है वा परम पिता परमात्माका ध्यान जानेकी चेष्टा किया करता है जिधर लगाता है। यही सर्वमान्य वैराग्य धर्म जैन उसकी मति ठहरी हुई होती है। धर्मका प्रधान लक्षण है और इसमें अन्य
इसके विपरीत, अपक्षपात-दृष्टि गण धर्मोसे यह विशेषता है कि वह साधु दोषों के विवेकमें प्रधान सहायक है। वह और गृहस्थ, गुरु और शिष्य, मुनि और मनुष्यको न्यायी, नम्र और गुणग्राहक श्रावक अर्थात् उन सभी मनुष्योको, जो बनाती है। उसके कारण सत्परुषको. धर्मके मार्ग पर कदम रखना चाहे और परीक्षा द्वारा सुनिर्णीत होनेपर, अपनी किचित् मात्र भी धर्म साधन करना चाहें, पूर्वश्रद्धा तथा प्रवृत्तिको बदलने में कळ त्याग-वैराग्यका ही उपदेश देता है और भी संकोच नहीं होता। वे अपनी बद्धिको अव्वल से आखिर तक अपने सम्पूर्ण वहाँ तक ले जाकर स्थिर करते हैं जहाँ स्वरूपके भीतर त्याग या वैराग्यकी ही नीव तक युक्ति पहुँचती है-अर्थात, उनकी पर खड़ी करता है; त्याग-वैराग्यको ही मति प्रायः युक्त्यानुगामिनी होती है। यामिती तो वह अपना असली उद्देश्य बताता है और
इसीको धार्मिक मनुष्यका लक्ष्य ठहराकर --खंड विचार।
इसीका साधन उसके योग्यतानुसार उसको सिखाता है और आहिस्ता आहिस्ता उसे आगे बढ़ाकर परम वैराग्य की ही तरफ़ ले जाता है । इसी एक उद्देश्य
की पूर्तिके लिये जैनधर्मने गृहस्थी श्रावक
- के ग्यारह दर्जे नियत किये हैं, मानों परम * इस लेख के उत्तरार्द्ध में न्यायकर्णिका नामकी गुजराती पुस्तकसे बहुत कुछ सहायता ली गई है अतएव
वैरागी मुनी अवस्था तक पहुँचने के वास्ते न्यायकर्णिकाके गुजराती अनुवादक तथा प्रकाशक प्रसिद्ध
धर्मकी सीढ़ी (नसैनी) में ११ डंडे लगाये पं० लालन और मि० मोहनलाल देसाई बी० ए० एल० हैं, जिन पर कदम रखते रखते गृहस्थ . एल० बी० इन दोनों महाशोका लेखक अत्यन्त कृतज्ञ है। बड़ी आसानीसे ऊपरको चढ़ा चला जा
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अङ्क १-२ ]
जैनधर्मका महत्त्व। सकता है और परम वैराग्यको प्राप्त कर बनाकर और उनके अनन्तानन्त रूप सकता है।
दिखाकर इस संसारचक्रको चलाता है; __ यद्यपि संसारके सभी धर्मों में वैराग्य- वही क्षण क्षण में लाखों और करोड़ो जीवोंको परम पूज्य माना है परन्तु यह महत्त्व को मृत्युका ग्रास बनाता है और लाखों जैनधर्मको ही प्राप्त है कि वह गृहस्थोके करोड़ोंको नवीन जीवन धारण कराता है, सब प्रकारके धर्मसाधनको भी वैराग्य- वही किसीको सुखी और किसीको दुःखी प्राप्तिके उद्देश्यसे अंकित करता है और बनाता है, हैज़ा, प्लेग और महामारी आदि ऐसे ऐसे नियम बताता है जो उसको फैलाकर महा हाहाकार मचवाता है, वैराग्यके ही मार्ग पर ले जायँ और वैराग्य लाखों और करोड़ों प्रकारके पौधे उगाता ही की प्राप्तिका उत्साह बढ़ावें । वह है, तरह तरह के फल फूल लगाता है और गृहस्थोंके सब प्रकारके जप, तप, पूजा, फिर नाश करके उनको मिट्टीमें मिला पाठ, नियम, धर्म, शील, संयम और दूसरी देता है; वही कहीं परवा और कहीं पछवा अनेक धर्म-क्रियाओंको वैराग्यमार्गकी ही हवा चलाता है, आकाशके अनन्तानन्त प्राप्तिका हेतु बनाता है और ऐसी रीति- तारोंको भिन्न भिन्न प्रकारकीचाल चलाकर से उनका साधन सिखाता है जिससे कहीं अँधेरा और कहीं चाँदनी कराता है, साधकके चित्तकी वृत्ति वैराग्यकी ही कहीं अधिक पानी बरसाकर गाँवके गाँव तरफ़ जाय और उसीके अभ्यासमें लगे। बहाता है और कहीं एक भी बूंद न बरसाजैनधर्म अपने परमात्माका स्वरूप भी कर त्राहि त्राहि कराता है। गरज़, परपरम वैरामी बताता है और परम वैरागी मेश्वरको इतने भारी बखेड़े में फँसा हुआ होने के कारण उसको पूज्य ठहराता है, बतलाते हैं कि संसारके सब जीव मिल. अर्थात् जैनधर्म परमात्माके परम वैराग्य कर भी इतने भारी बखेड़े में फंसे हुए न रूप गुणोंको ही पूज्य बताता है और पर- होंगे। जैनधर्मके सिवाय, संसार के अन्य मात्माके पूजने की प्रायः यही एक ग़रज़ सभी धर्मों में यह पूर्वापर विरोध और सिखाता है कि उनके पूजनेसे हमारे हृदय- आश्चर्यकी बात देखनेमें आती है कि में भी वैराग्यकी भावना उत्पन्न हो और संसारके सब जीवोंको वे इन सब बखेड़ोंउत्साहित होकर हम भी वैराग्यकी प्राप्ति- को त्यागकर एक ईश्वरमें ही लौ लगानेके मार्ग पर लगें, और संसारके मोह- का उपदेश देते हैं, परन्तु जब उस ईश्वरकी जालको तोड़कर उसके फंदेसे निकल स्तुति सुनाते हैं और उसके गुण गाते हैं भागनेका उपाय करें।
तब प्रशंसारूपसे संसारके ये सब बखेड़े __ संसारके अन्य सभी धर्म, यद्यपि उसीके सिर मढ़ देते हैं और उसको महामनष्यके वास्ते इस संसारको मायाजाल दीर्घ संसारी बताकर ही कृतकृत्य होते और दुःखदायी बताकर उसके त्यागनेका हैं। ऐसे पूर्वापर विरोधकी हालतमें हम उपदेश देते हैं और एकमात्र परमेश्वरसे नहीं समझते कि किस प्रकार ये संसारी ही लौ लगानेकी आज्ञा देते हैं । परन्तु जीव परम संसारी ईश्वर से लौ लगाकर इसके विपरीत उस परमेश्वरका ऐसा संसारसे मुँह मोड़ सकते हैं और परम ही स्वरूप बताने लग जाते हैं कि वही वैराग्य धारण कर सकते हैं। . इस संसाररूपी मायाजालको रचता है; संसारके अन्य सब धर्मोकी अपेक्षा घही संसारकी अनन्तानन्त वस्तुओको जैनधर्ममें यही एक खास खूबी है और
सायको
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जैनहितैषी।
[भाग १५ यही उसकी उत्कृष्ट महिमा है कि उसमें हमारे हृदयमें प्रवेश कर जाय और हमें किंचित् मात्र भी पूर्वापर विरोध नहीं भी वैराग्य मार्ग पर चलनेकी प्रेरणा हो है। उसने जिस परम वैराग्यको धर्मका जाय। इसीसे जैनधर्म में अपने परमात्माकी उद्देश्य बताया है उसीको अव्वलसे मूर्ति भी परम वैराग्यरूप ही बताते हैं आखिर तक निबाहा है । उसीको और उसके दर्शनोंसे प्रायः वैराग्यका अपने परम पूज्य परमात्माका स्वरूप ही लाभ उठाना चाहते हैं। जैनधर्मके बताया है और वही एक मार्ग गृहस्थीको साधु सब प्रकार के परिग्रहोंसे रहित भी सिखाया है। जैनधर्ममें ऐसा नहीं है होते हैं और लँगोटीतक भी रखने नहीं कि साधुका मार्ग तो पूर्वको जाता हो पाते। वे आत्मध्यानमें लीन होकर देहऔर गृहस्थका पश्चिमको, साधुको तो से भी ममत्व त्याग देते हैं, यहाँतक कि वैराग्य सिखाया जाता हो और गृहस्थ- यदि कोई दुष्ट उनके शरीरको किसी को संसारके पकड़नेका पाठ पढ़ाया प्रकारकी पीड़ा पहुँचावे, काटे, छेदे, के, जाता हो, पूजकका धर्म तो वैराग्य ठह- जलावे तो भी वे कुछ पर्वाह नहीं करते राया जाता हो और पूज्यको महासंसारी और न अपने ध्यानसे डिगते हैं। ऐसी बताया जाता हो; दयाधर्मकी डींग मारी ही ध्यानारूढ़ परम वैराग्य अवस्थाकी जाती हो और साथ ही हिंसाके द्वारा नग्न दिगम्बर मूर्ति जैनी लोग बनाते हैं अपने पूज्य देवताओं तथा परमपिता पर- और उसके दर्शनोसे वैराग्यकी प्रेरणा मात्माका प्रसन्न होना माना जाता हो। अपने हृदयमें लाते हैं। ये सब पातें जैनधर्मकी प्रकृतिके विरुद्ध संसारके प्रायः सभी मनुष्योंका ऐसा हैं। जैनधर्म तो साफ और सीधा वैराग्य- कायदा है कि जिसको जो पसन्द होता धर्म है। धर्मका पक्ष मात्र करनेवाले सबसे है और जो स्वयं जैसा होना चाहता है, घटिया जैनी (पाक्षिक श्रावक) से वह वैसे ही मनुष्योंकी प्रशंसा अपने मुखलेकर सबसे ऊँचे दर्जेके साधु-संन्या- से किया करता है, उनकी जीवनी पढ़ा सियोतकको वह वैराग्यका ही पाठ पढ़ाता तथा सुना करता है, उन्हींके गुणानुवाद है और उनकी अवस्था तथा शक्तिके योग्य गा गाकर अपने जीको खुश किया करता थोड़ा थोड़ा वैराग्य सिखाकर उनको है और उन्हीं की मूर्तियोंसे अपने घरको ऊँचे चढ़ाता है, यहाँतक कि अन्तमें राग सजाता है। इसीलिये पोलिटिकल आन्दोद्वषसे सर्वथा रहित हो जाने पर उनको लनमें रुचि रखनेवाले मनुष्य लोकमान्य ही परमात्मा ठहराता है और उनके राग- तिलक, महात्मा गान्धी, और लाला द्वेषरहित होनेके कारण ही उन्हें पूज्य लाजपतराय आदि पोलिटिकल लीडरोंकी बताता है।
मृतियां अपने कमरेमें लगाते है: युद्धके जैनधर्मकी स्तुति, भक्ति, पूजापाठ, इच्छुक बड़े बड़े योद्धाओंकी मूर्तियाँ जप करना और नाम लेना आदि सब खरीदकर लाते हैं और विषयी पुरुष ही धर्मक्रियायें इसी एक सिद्धान्त पर अपने कमरों में सुन्दर सुन्दर वेश्याओंकी अवलम्बित रहती हैं और उनका लक्ष्य मूर्तियाँ (चित्र) लटकाते हैं और नित्य यही होता है कि परम वैरागी महान् उन मूर्तियोंको देख देखकर वैसा ही भाव श्रात्माओंके गुणगान, पूजा, भक्ति और अपने हृदयमें पैदा किया करते हैं । इसी स्मरणसे उनका वह वैराग्यरूपी गुण प्रकार वैराग्यके इच्छुक भी परम वैराग्य
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जैनधर्मका महत्त्व। रूप नग्न मूर्तियोंके दर्शनसे वैराग्यकी बताते हो और वैरागियोंको ही धर्मकी प्रेरणा पा सकते हैं। जब सभी धर्मों में ऊँची चोटी पर चढ़ा हुआ ठहराते हो, एकमात्र वैराग्य परम धर्म माना जाता इतना ही नहीं किन्तु, बात बातमें संसारहै और वैरागी साधुओंके दर्शनमात्रसे को अस्थिर और नाशवान् बताकर उसकी संसारी मनुष्यों का बहुत कुछ कल्याण तरफ़ मन न लगानेका ही राग गाते हो होना समझा जा सकता है तब परम वे यदि ऐसी महाराग रूप मूर्तियाँ बनावें औसपनयमतियाँ तो सभी मतोंके और परम वैराग्य रूप नग्न मर्तियोके धर्ममन्दिरों में विराजमान होनी चाहिएँ दर्शनसे फायदा न उठावें तो यह बड़े ही थीं, जिनके दर्शनोंसे संसारी जीवोंका श्राश्चर्यकी बात है। जान पड़ता है, ऐसे मोह कम होकर उनका माया-जाल टूटता लोगोंने धर्मको अभी तक पहचाना ही
और संसारकी नाशवान् वस्तुप्रोसे स्नेह नहीं। किन्तु एकमात्र पक्षपातके वश कम होकर अपनी आत्माके कल्याणकी होकर ही वे धर्म धर्म चिल्ला रहे हैं और बातें उन्हें सूझती । परन्तु नहीं मालूम पक्षपातके कारण ही किसी एक धर्मका क्यों हमारे अन्य मतवाले भाई परम अनुयायी होना उन्होंने स्वीकार किया है। वैराग्य रूप नग्न मूर्तियोंसे लाभ नहीं जन्म जन्मान्तर और लोक परलोकके उठाते और उनके स्थानमें शस्त्रधारी माननेके विषयमें इस समय मतमतान्तरोंयोद्धाओंकी मूर्तियाँ बनाकर, स्त्रीपुरुषों में बहुत ज्यादा भेद चल रहा है । मुसलके प्रेमकी मूर्तियाँ संजाकर, अथवा काली, मान और ईसाई तो कहते हैं कि जीवोंचण्डी आदि देवियोंकी भयङ्कर मूर्तियाँ का न तो कोई पहला जन्म था और स्थापित करके धर्मसे क्या लाभ उठाना न उनके भले या बुरे पहले कोई कर्म ही चाहते हैं और दर्शकोंके हृदयमें क्या भाव थे जिनके फलस्वरूप उनको इस जन्म में उत्पन्न करानेकी उनकी इच्छा है। सुखी, दुखी, अमीर, गरीब, बली, निर्बल, ___ यदि कोई ऐसा मत हो जो युद्धको रोगी, निरोगी बनाया गया हो, किन्तु ही धर्म बताता हो और अपने अनुया- एक सर्वशक्तिमान ईश्वर ही सब जीवोंयियोंमें युद्धका ही जोश फैलाना चाहता को, अपनी स्वतन्त्र इच्छाके अनुसार, हो, तो उस मतमें बेशक योद्धाओकी सुखी, दुखी, राव और रक नाना कप मूर्तियाँ बनाई जानी चाहिएँ और नाना बनाता रहता है और उसका ऐसा ही प्रकारके शस्त्रोंके द्वारा उन मूर्तियोंको दृष्टान्त है जैसा कि मनुष्य कपड़ा बुनकर सजाना चाहिए। इसी प्रकार जो मत अपने स्वच्छन्द इच्छानुसार उसके एककी मोह और मायाको ही धर्म बताता हो टुकड़े की तो टोपी बना लेता है और एक उसको बेशक ऐसी ही मूर्तियाँ बनानी लँगोटी; अथवा पहाड़से पत्थर लाकर या चाहिएँ जिनके देखनेसे माया तथा मोह मिट्टीकी इंटें पकाकर अपने इच्छानुसार ही उत्पन्न हो और हृदयमें स्त्रीपुरुषके कुछ पत्थर और इंटोंसे तो पूजाकी पवित्र आपसके प्रेमका ही सञ्चार हो। और जो वेदी बनाता है और कुछ पत्थर तथा लोग मनुष्यको महा भयङ्कर बनाना ही इंटोसे मलमूत्रके त्यागनेका संडास बनधर्मका उद्देश्य समझते हों उन्हें भयङ्कर वाता है । इस प्रकार ये मुसलमान और रूपवाली मूर्तियोंके ही दर्शन करने ईसाई लोग जीवोंके पिछले कर्मोंके बगैर चाहिएँ । परन्तु जो धर्मवैराग्यको ही मुख्य ही ईश्वरके इच्छानुसार उनकी नाना
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प्रकारकी भली बुरी अवस्थाका होना मानते हैं । परन्तु शोक है कि वे अपनी मान्यता पर दृढ़ता के साथ कायम नहीं रहते । वे श्रागे चलकर स्वयं यह कहने लगते हैं कि जीवोंके इस जन्मकी अवस्था उनके पिछले कर्मोंका फल नहीं है तो भी इस जन्म में वे जैसा कर्म करेंगे, आगामी जन्ममें उनको उसका वैसा फल अवश्य भोगना पड़ेगा । अर्थात्, इन जीवोंका दूसरा जन्म बनाते समय ईश्वर अपनी स्वच्छन्द इच्छाके अनुसार नहीं प्रवर्तेगा; किन्तु इन जीवोंके इस जन्म के कर्मानुसार ही उनको सुखी दुखो बनावेगा; और वह आगामी जन्म ऐसा विलक्षण होगा जो अनन्तानन्त काल तक एक ही समान रहेगा; अर्थात् उस दूसरे जन्मके पश्चात् फिर कोई जन्म ही न हो सकेगा। भावार्थ यह कि, न तो उस दूसरे जन्मका कोई अन्त ही होगा और न उस दूसरे जन्मके कमका कभी कोई फल ही मिलेगा; वहाँ तो उनको सदाके लिये एक ही अवस्था में पड़ा रहना होगा ।
जैनहितैषी ।
पाठक यह बात भली भाँति जानते हैं कि अपराधीको जो दंड दिया जाता है वह इसी कारण दिया जाता है कि जिससे फिर वह ऐसा अपराध न करे और अन्य मनुष्यों को भी वैसा अपराध करनेका हौसला न हो। और प्रशंसनीय कार्य करनेवालेको जो इनाम दिया जाता है वह भी इसी वास्ते दिया जाता है जिससे उसका उत्साह बढ़े और श्रागेको वह ऐसे प्रशंसनीय कार्य करता रहे। साथ ही दूसरों को भी ऐसे ही ऐसे कार्य करनेकी प्रेरणा होती रहे । परन्तु मुसलमान और ईसाई मतके अनुसार यदि जीवोंको आगामी जन्ममें अर्थात् स्वर्ग वा नरकमें सदाके लिये सुखी वा दुःखी रूप एक ही अवस्थामें रहना होगा तो वह किसी प्रकार भी दंड
[ भाग १५
या इनाम नहीं माना जा सकता; क्योंकि दंड भुगतनेके बाद उसे ऐसा कोई अवसर नहीं दिया जायगा जिससे वह दंडसे भय खाकर श्रागेको बुरे कामोंसे बचने लग जाय और सीधी चाल चलकर दिखावे, किन्तु उसको तो अनन्तानन्त काल तक दंड ही भुगतना पड़ेगा और नरकमें ही पड़ा रहना होगा । इसी तरह इनाम पानेवालोंको भी ऐसा कोई अवसर नहीं मिलेगा जिसमें वे और भी अधिक अधिक प्रशंसनीय काम करके दिखावें; किन्तु उनको भी अनन्तानन्त काल तक इनाम ही भोगना होगा और स्वर्गमें ही रहना होगा । इसलिये मुसलमान और ईसाई मतका दंड विधान तथा कर्मफल सिद्धान्त भी ऐसा ही विलक्षण है जैसा कि पहले जन्मके कर्मोंके बगैर ही इस जन्मकी नानारूप अवस्थाका पाना । मालूम नहीं इन दोनों मतोंमें जीवोंके इस जन्मकी नाना रूप अवस्थाके वास्ते ईश्वर की स्वच्छन्द इच्छा और स्वतन्त्र अधिकार को वर्णन करके आगामी जन्मके वास्ते क्यों उसकी इस स्वच्छन्दता और स्वतंत्रताको छीन लिया है, क्यों जीवोंके इस जन्मके कर्मोंके अधीनं ही प्रवर्तनेके लिये उसे बाध्य कर दिया है और क्यों ऐसा अद्भुत सिद्धान्त बना दिया है जिसमें न तो ईश्वरकी स्वच्छन्द इच्छा ही रही और न दंडका ही विधान कायम रह सका । बल्कि एक बिल्कुल बेतुकी सी बात बन कर कहींकी ईंट कहीं का रोड़ावाली कहावत चरितार्थ हो गई ।
इसके सिवाय इनके इस कथनमें सबसे बड़ी आपत्ति यह श्राती है कि जब कि ईश्वरने जीवोंके कर्मोंके बगैर ही अपनी स्वच्छन्द इच्छासे उन्हें बुद्धिमान् या कुबुद्धि, धनवान् या दरिद्र, रोगी या निरोगी श्रादि नाना रूप बनाया है और
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श्रङ्क १-२] जैनधर्मका महत्त्व। .
४३ किसीको ठगोंके यहाँ पैदा करके ठगीकी हमारे ख़यालमें हिन्दुओं तथा जैनियोंविद्या सिखाई, किसीको महामिथ्यावादी का सिद्धान्त ही इस विषयमें ठीक लागू और अधर्मी काफिरोके यहाँ जन्म देकर होता है जोकि यह सभाता है कि जन्मसे अधर्मकी शिक्षा दिलाई, किसीको धर्म ही जीवोंकी जो नाना रूप अवस्थाएँ देखी की तरफ लगनेका और किसीको अधर्म- जाती हैं वे स्पष्ट तौर पर उनके पूर्व जन्मकी तरफ झुकनेका अवसर दिया और का ही नतीजा हैं । कारणसे कार्यकी इस तरह प्रत्येक जीवके वास्ते भिन्न भिन्न उत्पत्तिका होना और भिन्न भिन्न कार्यों के रुपका सामान उपस्थित किया। तब यह कारण भी भिन्न भिन्न होना ये ऐसे अटल कैसे हो सकता है कि उन सबके कर्मोको सिद्धान्त हैं जो सभीको मानने पड़ते हैं। एक ही तराजूसे तौला जाय और एक ही इसलिये जन्मसे ही जीवोंकी भिन्न भिन्न कानूनसे उनका न्याय किया जाय । ऐसी अवस्थाका होना इस बातका स्पष्ट प्रमाण दशामें तो प्रत्येक जीवके वास्ते उसकी है कि इस जन्मसे पहले भी उनका अवस्था, योग्यता, शक्ति और परिस्थिति अस्तित्व अवश्य था जहाँसे उनके साथ आदिके अनुसार ही अलग अलग कानून ऐसे भिन्न भिन्न कारण लग गये हैं जिनसे बनाना चाहिए था और सब ही जीवोंको इस जन्ममें उनकी विभिन्न अवस्थाएँ हो उनका अलग अलग कानून सिखाया जाना गई हैं । अर्थात् इससे पहले जन्म में उन्होंने चाहिए था। परन्तु हो रहा है यह कि . भिन्न भिन्न रूपसे कर्म किये हैं जिनके एक ही धर्मपुस्तक सभी अवस्थाके जीवोंके फल-स्वरूप ही इस जन्ममें उनकी भिन्न वास्ते कानून स्वरूप बताई जाती है और भिन्न रूप अवस्थाएँ हुई हैं और उस पहले उसके वास्ते भी ईश्वरका कोई ऐसा जन्ममें भी उनकी भिन्न भिन्न रूप अवस्था प्रबन्ध नहीं दिखाई पड़ता जिससे उस रही होगी जिसके कारण वे भिन्न भिन्न एक ही कानूनकी भी सब आज्ञाएँ सबको प्रकारके कर्म कर सके होंगे। इसी तरह मालूम हो जायँ। किन्तु इस विषयमें और उनके पहले जन्मकी विभिन्न अवस्था भी ऐसा भारी अंधेर नज़र आता है कि उनके उससे पहले जन्मके कर्मोका फल संसारके बहुतसे मनुष्योंको तो इन धर्म- होगी; और इससे यही सिद्ध होता है कि पुस्तकोंका नाम भी मालूम नहीं होता; संसारके जीव जन्मजन्मान्तरसे अपने चुनाँचे गाँवके अनपढ़ हिन्दुओं और उन- अपने कर्मों के अनुसार ही भिन्न भिन्न की स्त्रियोंसे पूछनेसे यह बात आसानीसे अवस्था धारण करते चले आते हैं और जानी जा सकती है कि उनमेंसे बहुतोंने आगेको भी अपने कर्मों के अनुसार ही मुसलमानों और ईसाइयोंकी धर्म-पुस्तक- भिन्न भिन्न अवस्थारूप अनेक जन्म धारण का नाम तक नहीं सुना। तब उनके करते रहेंगे। सिद्धान्तों और आशाओंको तो वे कैसे हिन्दुओं और जैनियों का यह सिद्धान्त जान सकते हैं। ऐसी अवस्थामें यह कहनम ऐसा सीधा सादा और न्यायसङ्गत है कि कि उनको उनके कर्मानुसार दंड या इसमें कोई आपत्ति ही नहीं आती और इनाम दिया जायगा और सदाके लिये सभीको उत्तम कर्म करनेकी प्रेरणा हो नरक या स्वर्गमें डाल दिया जायगा, जाती है । इसके विपरीत, जीवोंके कर्मोंनिरी धींगा-धींगी और ज़बरदस्ती नहीं के बगैर अपनी स्वच्छन्द इच्छाके अनुतो क्या है?
सार ही उनको नानारूप सुखी दुखी
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जैनहितैषी।
[भाग १५ बना देनेवाले एक ईश्वरके माननेकी कुल ही निष्फल हो जाता है और दण्ड देनेहालतमें यही सन्देह बराबर बना रहता वाला न्यायाधीश भी मूर्ख ठहराया जाता है कि न जाने हमको अपने कर्मोंका ही है। इनाम देनेकी भी ऐसी ही बात है। फल मिलेगा या वह सर्वशक्तिमान ईश्वर जब तक इनाम मिलनेबालेको यह नहीं अपने इच्छानुसार ही प्रवर्तेगा। ऐसी बताया जाता कि तेरे अमुक उत्तम कार्यसन्दिग्ध अवस्थामें संसारके जीव निश्चित से प्रसन्न होकर तुझे यह इनाम दिया रुपले धर्मके ऊपर आरूढ़ नहीं हो सकते जाता है तब तक वह इनाम भी कुछ कार्यकिन्तु ईश्वरके इच्छानुसार आकस्मिक कारी नहीं होता और उसका देनेवाला घटनाओंका ही श्रद्धान कर के उद्यमहीन भी मूर्ख समझा जाता है । इसी लिये यदि या स्वच्छन्द हो जाते हैं।
परमेश्वरने जीवोंकी यह नानारूपअवस्थाएँ ___ कर्मोंका फल मिलते रहने और उनके पहले जन्मके कर्मोके फलस्वरूप सदासे जन्म जन्मान्तर धारण करते रहने- ही बनाई होती तो उन सबको ज़रूर यह . . के इस अटल सिद्धान्तके विषयमें हिन्दुओं भी स्पष्ट तौर पर बताया जाता कि तुम्हारे और जैनियों में एक मतभेद ऐसा भारी अमुक अमुक बुरे कर्मोके दण्डस्वरूप . पड़ गया है जिसने मुसलमानों और ईसा- तुम्हारी यह यह बुरी दशा बनाई गई है इयोंको मुँह खोलनेका हौसला दे दिया और अमुक अमुक अच्छे कर्मोके इनामके है। जैनी तो यह मानते हैं कि वस्तु- तौर पर तुम्हारी यह अच्छी दशा की गई खभावानुसार जीवके कर्म ही उसको है; परन्तु यहाँ तो किसी जीवको यह सुख और दुःख पहुँचाते हैं और उसकी सब बातें मालूम नहीं हैं, बल्कि संसारके नानारूप अवस्था बनाते हैं । परन्तु हिन्दू जीवोंको यह भी मालूम नहीं है कि हमारा लोग इसके विपरीत ऐसा मानते हैं कि कोई पहला जन्म था भी या नहीं: यदि एक न्यायकारी ईश्वर ही जीवोंको उनके था तो उसमें हमारी क्या क्या पर्याय थी कर्मोका फल देता है और दण्डस्वरूप या और उस पर्यायमें हमने क्या क्या कर्म इनाम स्वरूप उनको सुखी तथा दुखी किये थे । संसारके जीव तो इन सब बनाता है। हिन्दुओंकी इस मान्यता पर बातोसे बिलकुल ही अनजान मालूम होते मुसलमान और ईसाई यह आपत्ति लाते हैं, जिससे स्पष्ट सिद्ध है कि ईश्वरने हैं कि जब किसी अपराधीको न्यायालय. जीवोंके कर्मोके दण्डस्वरूप या इनामसे कोई दण्ड दिया जाता है तो अन्धेके रूप उनकी यह दशा नहीं बनाई। किन्तु समान उसको अचानक ही दुःख देना विचित्ररूप संसार रचनेके वास्ते अपनी शुरू नहीं कर दिया जाता बल्कि स्पष्ट स्वतन्त्र इच्छाके अनुसार ही उनकी भिन्न रूपसे यह बताना ज़रूरी होता है कि भिन्न रूप दशा बना दी है। तुम्हारे अमुक अपराधका ही यह दण्ड इसी प्रकार ईश्वरवादी हिन्दुओं पर तुमको दिया गया है जिससे आगेके लिये हमारे मुसलमान और ईसाई भाई यह वह उस प्रकारका अपराध करनेसे डरे भी आपत्ति लाते हैं कि ऐसा कोई न्याया
और दूसरोंको भी उसके दण्डसे शिक्षा धीश नहीं हो सकता जो अपराधीको मिले । यदि अपराधीको इस प्रकार ऐसी सज़ा दे जिससे उसको अपराध उसका अपराध न बताया जाकर वैसे ही करने में और भी ज्यादा सुबिधा हो जाय, दएड दे दिया जाय तो वह दण्ड बिल- वह अधिक अधिक अपराध करना सीख
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अंङ्क १-२ ] जैनधर्मका महत्त्व।
४५ जाय अथवा अपराध करनेके वास्ते ही मिलना माननेकी अवस्थामें, हमारे हिन्दू बाध्य हो जाय । इसलिये जो बच्चे ठगोंके भाइयोंसे नहीं दिया जा सकता; एक घर पैदा होकर ठगीकी शिक्षा पाते हैं मात्र जैनधर्मकी ही यह महत्ता है कि और ठग बन जाते हैं, जो कन्याएँ वेश्या- उस पर इस प्रकारका कोई आक्षेप ही ओंके यहाँ जन्म लेकर व्यभिचारकी नहीं हो सकता, क्योंकि जैनधर्म न्यायाशिक्षा पाती हैं और व्यभिचारिणी बन धीशके समान ईश्वरको न्यायकर्ता मानजाती हैं, जो बच्चे अधर्मियों तथा पापियों- कर उसके द्वारा दण्ड और इनामका विधान के यहाँ पैदा होकर अधर्म और पापके होना नहीं मानता, किन्तु प्रकृत रीतिसे काम करने लग जाते हैं, मुसलमान और वस्तुस्वभावके अनुसार ही प्रत्येक कारणईसाइयोंके यहाँ जन्म लेकर मुसलमान से उसके अनुरूप कार्यका हो जाना तथा ईसाई बन जाते हैं और हिन्दूधर्मके बताता है। उदाहरणके लिये यदि हम विरुद्ध कार्योंको भी धर्म मानने लग जाते अागमें उँगली देते हैं तो वह जल जाती हैं, जैनीके घर पैदा होकर जगत्कर्ता है, इसमें किसी न्यायाधीशके सामने ईश्वरके अस्तित्वसे भी इनकार करने लरा मुक़दमा पेश होने और वहाँसे उँगलीके जाते हैं; इसी प्रकार शेर, चीते और जलाये जानेकी आज्ञा निकलनेकी श्रावभेड़िये आदि वे पशु जो मांसके सिवाय श्यकता नहीं होती। किन्तु अागका स्वभाव और कुछ भी नहीं खा सकते और अपनी ही जलानेका है, इस कारण जब कभी सारी उमर घोर हिंसामें ही बिता जाते हमारी उँगली आगसे भिड़ जाती है तब हैं, उन सबकी बाबत यह कैसे मान लिया वह जल जाती है। यहाँ तक कि यदि कोई जाय कि किसी न्यायकारी बुद्धिमान् हमारी इच्छाके विरुद्ध ज़बरदस्ती भी ईश्वरने उनके पिछले जन्मके कर्मोंके दण्ड- हमारी उँगली आगके अन्दर कर दे स्वरूप ही उनकी यह दशा बनाई है, जिसमें हमारा कुछ भी दोष नहीं होता है दण्डस्वरूप ही अपराध करनेकी उन्हें तब भी वह आग हमारी उँगलीको जला शिक्षा दिलाई है, दण्डस्वरूप ही अपराध देती है क्योंकि आगको कोई न्याय करना करनेकी उनकी आदत बनाई है अथवा नहीं होता, उसे तो अपने स्वभावानुसार प्रकृति ठहराई है। इससे तो यही नतीजा जलानेका ही काम करते रहना होता है। निकलता है कि न तो कोई पिछला जन्म इसी लिये यदि किसी स्थान पर आग है और न कोई उस जन्मके कर्म हैं जिनके हो और उस पर राख होनेके कारण. फलस्वरूप जीवोंकी यह दशा बनाई गई हमको यह बात मालूम न हो और हो; किन्तु यहां जान पड़ता है कि सर्व- हम अनजानमें वहाँ हाथ दे दें तो भी शक्तिमान् ईश्वरने जीवोंके पहले कर्मोंके हमारा हाथ जल जायगा। अर्थात् वह बगैर ही अपने इच्छानुसार किसीकी आग हमारी जानकारी वा अनजानपन कुछ अवस्था बना दी है और किसीकी आदिका कुछ भी विचार न करेगी और कुछ, और इस तरह इस संसारकी अपने स्वभावानुसार जलानेका कार्य कर. विचित्ररूप रचना करके दिखाई है। डालेगी। यदि किसीका कोई वैरी उसके - मुसलमानों और ईसाइयोंके इन मकानमें आग लगा देता है या हवाकी आक्षेपोका कुछ भी समुचित उत्तर, ईश्वर- तेज़ीके कारण प्रागका कोई कण उड़कर को कर्ता मानकर उसके द्वारा कर्मफल किसीके मकान पर आ पड़ता है. तो भी.
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जैनहितैषी।
[भाग १५ वह आग सारे मकानको भस्मीभूत कर कारी बुद्धिमान ईश्वर ही हमको यह सब देती है और यह नहीं बताती कि उसके कष्ट पहुँचानेवाला और हमारे शरीर में किस अपराधके कारण उसकी यह दशा रोगोंको उत्पन्न करनेवाला होता तब तो बनाई गई है; क्योंकि वह आग तो न्याया- बेशक उसको यह बता देना ज़रूरी होता -धीश बनकर दण्डस्वरूप उसका मकान कि तुम्हारे अमुक अपराधके कारण ही नहीं जलाती किन्तु पूँकना और जलाना तुमको यह कष्ट दिया गया है, और ऐसी ही अपना स्वभाव होनेके कारण उन सब दशामें हमारा ओषधि करना भी बिलकुल वस्तुओको फूंक डालती है जो उससे व्यर्थ ही होता । परन्तु ये शारीरिक कष्ट भिड़ जाती हैं और जो श्रागसे जल तो प्रतिकूल पदार्थों के ही मेलसे पैदा सकती हैं।
__ होते हैं जो सब अपने अपने स्वभावानु___यदि हम कोई ऐसी वस्तु खा लेते हैं सार कार्य करते हैं और हमारे शरीरके जिसको हम हज़म नहीं कर सकते तो परमाणुओंसे मिलकर हमको कष्ट पहुँहमारे पेटमें दर्द होने लग जाता है और चाते हैं। इसलिये ओषधियोंके द्वारा इन पाचन ओषधि खा लेनेसे वह दर्द दूर प्रतिकूल पदाथाको दूर कर देनेसे रोग हो जाता है। और भी अनेक प्रकारकी भी दूर हो जाते हैं और इन प्रतिकूल बीमारियाँ हमारे शरीरकी अवस्थाके प्रति- पदार्थीको, कष्ट देते समय, यह बताना कूल पदार्थोके मिलनेसे वा कम बढ़ती भी नहीं पड़ता कि मनुष्य अथवा पशुको पदार्थों के मिलनेसे उत्पन्न हो जाया करती उसके अमुक अपराधके कारण ही यह हैं और ओषधिके द्वारा उन प्रतिकूल कष्ट दिया जा रहा है। पदार्थोंको हटा देनेसे वा कमीको पूरा स्वभावानुसार एक पदार्थका दूसरे कर देनेसे दूर हो जाया करती हैं। वे पदार्थों पर असर पड़नेके कारण उन प्रतिकूल पदार्थ हमारे शरीरमें घुसकर पदार्थों को यह भी देखना नहीं होता कि नाना प्रकारके रोग तो उत्पन्न कर दिया जिस पदार्थ पर मैं असर डाल रहा करते हैं और अनेक प्रकारके कष्ट भी देने हूँ, मेरे असर डालनेसे उसकी वृद्धि होगी लग जाते हैं परन्तु यह नहीं बताया करते या हानि, वह बिगड़ेगा या सुधरेगा, कि तुम्हारे अमुक अपराधके कारण ही सीधे मार्ग पर चलने लग जायगा या हम तुमको यह कष्ट दे रहे हैं, बल्कि उलटे पर। संसारके पदार्थों को इन बातोकभी कभी तो ये प्रतिकूल पदार्थ इस से क्या मतलब ? वे कोई जगत्कर्ता प्रकार चुपके ही चुपके हमारे शरीरमें ईश्वर, हाकिम या न्यायधीश तो हैं ही नहीं घुस जाते हैं कि हमको पता भी नहीं जो उनको इन बातोंके विचारने की ज़रू-. होता कि कब कौन प्रतिकूल पदार्थ घुस रत हो। वे तो बेचारे अपने स्वभावानुसार गया और किस प्रतिकूल पदार्थने हमको काम करते हैं और इस बातके ज़रा भी पीड़ा देना शुरू कर दिया है और वह ज़िम्मेदार नहीं होते कि उनसे किसीको किस तरह निकाला जा सकता है । इसी हानि होगी या लाभ । उदाहरणके लिये कारण हम वैद्यों और डाकृरोसे अपने यदि कोई पुरुष शराब पीकर उन्मत्त हो शरीरकी परीक्षा कराया करते हैं और जाय और अधिक अधिक तेज शराब माँगने उनके द्वारा अपने रोगका कारण मालूम लग जाय तो शराब पर यह दोष नहीं लंग करना चाहते हैं । यदि कोई न्याय- सकता कि तूने उसकी दशा ऐसी क्यों
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जैनधर्मका महत्त्व। बिगाड़ दीजिससे वह और भी ज्यादा तेज़ दण्ड देना शोभा देता है जिससे वह जीव शराब पीने लग गया और अधिक फिर क्रोध न करने पावे। परन्तु यदि अधिक पागल होता चला गया। हाँ, यदि न्यायकारी ईश्वरके द्वारा कर्मोका फल शराब स्वयं तो किसी पर किसी प्रकारका मिलना न माना जाय बल्कि जैन सिद्धाकोई असर पैदा न कर सकती बल्कि न्तानुसार वस्तुस्वभावसे ही संसारका . कोई न्यायकारी संसारका प्रबन्धकर्ता सब कार्य होता हुआ स्वीकार किया जाय ईश्वर ही शराब पीनेवालेकी दुर्गति दण्ड- तब तो क्रोध करनेका यही फल होगा कि स्वरूप बनाया करता तो वह ज़रूर उसको क्रोधका अधिक अभ्यास हो जायगा और ऐसी ही सज़ा देता जिससे वह आगेको जितना जितना अधिक क्रोधं किया जायगा शराबका नाम भी न लेता और उससे और जितनी जितनी बार किया जायगा कोसों दूर भागता फिरता। न्यायकारी उतना ही उतना अधिक अभ्यास और ईश्वरके द्वारा शराब पीनेके दण्डस्वरूप संस्कार पड़ता चला जायगा; इसी शराब पीनेवालेकी यह दशा कभी नहीं कारण जो जीव इस जन्ममें स्वभावसे बनाई जा सकती कि वह और भी ही अधिक क्रोधी हैं अर्थात् जन्मसे ही ज्यादा तेज़ शराब पीने लग जाय और क्रोध करनेका स्वभाव लेकर आये हैं अधिक अधिक शराब पीनेके अलावा उनकी बाबत यही सिद्धान्त निश्चित होता अन्य अनेक अपराध भी करने लगे और है कि पूर्व जन्ममें उन्होंने अधिक क्रोध उलटी ही उलटी चाल चलने लग जाय। किया है जिससे उनको क्रोध करनेका परन्तु होता ऐसा ही है, जिससे स्पष्ट ऐसा भारी अभ्यास हो गया है कि इस सिद्ध है कि कोई न्यायकारी जगदीश जन्ममें भी वह संस्कार उनके साथ श्राया शराबका असर नहीं कराता है किन्तु है। इसी प्रकार मान, माया, लोभ आदिक शराब ही अपने स्वभावानुसार पीनेवाले अन्य सब प्रकारके भावोंकी बाबत भी को पागल बनाती है जिससे उसकी बुद्धि ऐसा ही निश्चय किया जाता है। और जिन भ्रष्ट होकर वह अपने ही हाथों अपना जीवोंके चित्तकी वृत्ति इस समय पापों सत्यानाश करने लग जाता है और हानि- तथा अपराधोंकी ही तरफ़ जाती है, उनकी लाभके विचारको छोड़ बैठता है। बाबत यही मानना पड़ता है कि पिछले
किसीन्यायकारी ईश्वरके द्वारा कौं- जन्म में उन्होंने अपनी ऐसी ही आदत बनाई का फल मिलना जैनधर्म नहीं मानता, है जो उनको पापोंकी ही तरफ़ ले जाती है इसलिये उपर्युक्त प्रकारका कोई आक्षेप और अपराध करनेकी ही रुचि उत्पन्न उस पर नहीं पड़ सकता; बल्कि उसके करती है । इस प्रकार कारण और कार्यके वस्तुस्वभावी प्राकृतिक सिद्धान्तोंके अनु- सम्बन्धको माननेसे और कारणके अनुसार सभी बातें ठीक बैठ जाती हैं और सार ही कार्यकी उत्पत्ति जाननेसे जीवकोई आपत्ति नहीं आने पाती। यदि की प्रत्येक दशाकी बाबत उसके पूर्वजन्मयह माना जाय कि कोई न्यायकारी ईश्वर के कृत्योंका अनुमान करना होता है और ही कर्मोका फल देता है तब तो किसी प्रागेको अच्छे अच्छे कारणोंके बनाने जीवके क्रोधरूपी अपराधका वह यह फल और अच्छा ही अच्छा अभ्यास डालनेका नहीं दे सकता कि वह अधिक अधिक उत्साह बढ़ता है। क्रोधी हो जाय किन्तु उसको तो ऐसा ही . इस तरह एक न्यायकारी ईश्वर
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.. जैनतिषी। ........ [भाग १५ माननेकी अवस्थामें जो जो बातें आपत्तिरूप हो जाती हैं वे ही जैनधर्मके वस्त- समाज शास्त्रका नवीन स्वभावी सिद्धान्तके अनुसार ज़रूरी
सिद्धान्त । नतीजा बन जाती हैं और आपसे आप सिद्ध होती चली जाती हैं। यह सब जैन--
[श्रीयुक्त निहालकरण सेठी, एम. एस. सो.] धर्मका महत्त्व है जो उसके वस्तुस्वभावी जब सारे संसारमें दिन रात उन्नति- . होनेके कारण ही उसमें पाया जाता है का प्रयत्न हो रहा है और भारतवर्ष के और बुद्धि तथा विचारसे काम लेने पर सामाजिक तथा राजनैतिक नेतागण, व्यक्त होता जाता है । विस्तारभयसे हम देशभक्त कवि और लेखक गला फाड़ अपने इस लेखको यहीं समाप्त करते हैं। फाड़कर 'जागो जागो' की ध्वनिसे आशा है कि पाठकगण इसको ध्यानके आकाशको गुंजा रहे हैं और इस अभागे साथ पढ़ेंगे और यदि यह लेख उनको देशकी कुंभकर्णी नींदके न टूटने पर आँसू पसन्द हुआ तो अपनी अपनी सम्मति बहा बहाकर पुनः द्विगुणित बलपूर्वक प्रकट करके हमको उत्साहित करेंगे, 'उठो उठो अब तो उठो' आदि शब्दोंजिससे हम इस प्रकारके अनेक लेखों के द्वारा अपनी सोई हुई जन्मभूमिको द्वारा जैनधर्मका पूरा पूरा महत्त्व प्रकट जगानेका प्रयत्न कर रहे हैं, यहाँ तक करके दिखावे और जगतके लोगोंका भ्रम कि जैन समाजके मतप्राय लोग मिटावें। शोक है कि जैनधर्मके ये सब कभी इस प्रबल ध्वनिके कारण सहसा तात्त्विक रत्न अनेक प्रकारकी रूढ़ियों और बोल उठते हैं 'जागो' उस समय यह प्रश्न प्रवृत्तियोंके परदेमें छिपे पड़े हैं; वे रूढ़ियाँ उपस्थित करना कि जनताका यह प्रयत्न तथा प्रवृत्तियाँ ही सामने दिखाई दे रही उचित है या नहीं वास्तवमें बड़ी हिम्मतहैं और वे ही एक मात्र जैनधर्म मानी का काम है। जैनसमाजके भाग्यसे इस जाने लग गई हैं। इसीसे इस सर्वोत्कृष्ट कठिन कर्त्तव्यको पूर्ण करनेका साहस जैनधर्मकी कुछ भी प्रभावना नहीं होने उसीके एक मासिकपत्र (पद्मावती पुरपाती और संसार भर में इस धर्मके वाल) को हुआ है। उसमें निम्नलिखित माननेवाले मुट्ठी भर जैनियोंकी संख्या शब्दों द्वारा इस महत्त्वपूर्ण किन्तु श्राजदिन पर दिन और भी घटती चली जाती कलके मनुष्योंके अगम्य सिद्धान्तकी है, जब कि अन्य सभी धर्मोंकी संख्या व्याखा की गई है। वृद्धि पर है।
____ 'जीवमात्रमें जैसी जाग्रत और निद्रित
अवस्थाएँ हैं समाजको भी वैसी ही संशोधन ।
जाग्रत और निद्रित अवस्थाएँ हैं। वैशाइस अंकके पृष्ठ ३ पर दूसरे कालम- निकोका कहना है कि जाग्रत अवस्थामें की २६ वीं पंक्तिमें 'नहीं है' शब्दोंके बाद जीव मस्तिष्कसे काम लेते हैं इससे और डैश (-) से पहले निम्नलिखित मस्तिष्कमें थकावट आती है। निद्राके वाक्य छपनेसे रह गया है ; पाठक उसे द्वारा वह थकावट दूर होती है। जिस सुधार ले:-"प्रात्माकी परम विशुद्ध प्रकार शारीरिक परिश्रम करनेसे शरीरका अवस्थाका नाम ही परमात्मा है।"
* पद्मावती पुरवाल-श्रावण २४४६-पृष्ठ १३८,
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नह १-२ ] पेशीसमूह क्षयको प्राप्त होता है और आहार ग्रहण तथा विश्राम द्वारा वही पेशी समूह पूर्णता प्राप्त करता है, निद्राके द्वारा चिन्ताक्लिष्ट मस्तिष्ककी भी हूबहू उसी प्रकार पूर्ति होती है । इस लिये शरीर धारण वा रक्षाके लिये निद्रा जीवमात्रको अत्यावश्यक है। हमेशा जागते रहने शरीरका अवश्य विनाश होगा ।
'
'समाजरक्षा और उसकी पुष्टिके लिये भी निद्रा वा विश्राम अत्यन्त श्रावश्यक है । आर्यसमूह दीर्घ कालके जागरण के बाद अब निद्रा वा विश्राम ले रहा है । यह समाजकी मृत्यु नहीं है, निद्रा वा विश्राम मात्र है । विश्रामकें बाद जब समाजकी थकावट दूर हो जायगी तब स्वाभाविक नियमानुसार समाजकी निद्रा भंग हो जायगी । इस निद्राभंगके बाद समाज फिर नूतन उत्साहसे नूतन शक्तिके साथ कार्यक्षेत्र में प्रवेश करेगा। जिस प्रकार पूरी थकावट दूर होने से पहले, अर्थात् कच्ची नींदमें यदि किसीको जगा दिया जाय तो वह फिर सोनेकी बारंबार चेष्टा करता है, उसी प्रकार यदि श्रस्वाभाविक रूपसे समाजकी निद्रा भंग की जाय तो वह साधारण स्वस्थ समाजकी तरह कार्य परं तत्परं महीं रह सकती; वह बराबर निश्चेष्ट होकर विश्राम लेना चाहती है ।'
जैन समाज ! खूब खुर्राटे ले लेकर सो, क्योंकि तेरे इस सुपुत्रकी रायमें तेरे स्वास्थ्य के लिये इस समय जाग जाना 'अत्यन्त हानिकारक है !!! किन्तु पद्मावतीपुरवाल ! अब तुम भी सो जाओ क्योंकि 'हमेशा जागते रहने से शरीरका अवश्य विनाश होगा' और तब बेचारा जैन समाज तुम्हारे जैसा सच्चा हितैषी कहाँ पावेगा ! इसके अतिरिक्त इस समय अधिक प्रलाप करनेसे समाजकी लाभदायक नींदके भी असमय टूट जानेका डर है !
जैनेन्द्र व्याकरण और प्राचार्य देवनन्दी |
जैनेन्द्र व्याकरण और आचार्य देवनन्दी |
[ लेखक – श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमी । ] ( गतांक से आगे । )
२- शब्दार्णव प्रक्रिया । यह जैनेन्द्र प्रक्रियाके नामसे छुपी है; परन्तु हमारा अनुमान है कि इसका नाम शब्दार्णवप्रक्रिया* ही होगा। हमें इसकी कोई हस्त लिखित प्रति नहीं मिल सकी। जिस तरह अभयनन्दिकी वृत्तिके बाद उसीके: श्राधारसे प्रक्रियारूप पंचवस्तु टीका बनी है, उसी प्रकार सोमदेवकी शब्दार्णवचन्द्रिकाके बाद उसीके श्राधारसे यह प्रक्रिया बनी है । प्रकाश कौने इसके कर्ता का नाम गुणनन्दि प्रकट किया है; परन्तु जान पड़ता है कि इसके अन्तिम ठोकौमें गुणनन्दिका नाम देखकर ही भ्रमवश इसके कर्ताका नाम गुणनन्दि समझ लिया गया है । वे श्लोक नीचे दिये जाते हैं। :-- सत्संधिं दधते समासमभितः ख्यातार्थनाभोन्नतं निर्ज्ञातं बहुतद्धितं कृतमहाख्यातं यशः शाकिनम् । सैषा श्रीगुणनन्दितानितवपुः शब्दार्णवं निर्णयं नावत्याश्रयतां विविक्षुमनसां साक्षात्स्वयं प्रक्रिया १ दुरितमदेभनिशुंभकुम्भस्थल भेदनक्षमोग्रनखैः । राजन्मृगाधिराजो गुणनन्दी भुवि चिरं जीयात् ॥ १ सन्मार्गे सकलसुखप्रियकरे संज्ञापिते सने प्रा (दि) ग्वासस्सुचरित्रवानमलक: कांतो विवेकी प्रियः । सोयं यः श्रुतकीर्तिदेवयतिपो भट्टारकोत्तंसको म्यान्मम मानसे कविपतिः सद्राजहंसश्चिरम् ॥ ३
छपी हुई प्रतिके अन्त में " इति प्रक्रियावतारे कृद्विषिः षष्ठः समाप्तः । समाप्तेयं प्रक्रिया" इस तरह छपा है। इससे भी इसका नाम जैनेन्द्र प्रक्रिया नहीं जान पड़ता ।
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अमाहितची।
[भाग १५ इनमेंसे पहले पद्यका प्राशय पहले में इनका जिंकर है और इनकी बहुत ही लिखा जा चुका है। उससे यह स्पष्ट प्रशंसा की गई है। लिखा है-- होता है कि गुणनन्दिके शब्दावके लिए तत्र सर्वशरिरक्षाकृतमतिर्विजितेन्द्रियः । यह प्रक्रिया नावके समान है। और दूसरे सिद्धशासनवर्द्धनप्रतिलब्धकीर्तिकालापकः ॥२२॥ पद्यमें कहा है कि सिंहके समान गुणनन्दि विभुतश्रुतकीर्तिमष्टारकयतिस्समजायत । पृथ्वी पर सदा जयवन्त रहें। न मालूम प्रस्फरद्वचनामृतांशुविनाशिताखिलहत्तमाः॥२३॥ इन पोसे इस प्रक्रियाका कर्तृत्व गुण- प्रक्रियाके कर्ताने इन्हें भट्टारकोत्तंस मन्दिको कैसे प्राप्त होता है। यदि इसके पी
और श्रुतकीर्तिदेवयतिप लिखा है और कर्ता स्वयं गुणनन्दि होते तो वे स्वयं ही
इस लेखमें भी भट्टारकयति लिखा है। अपने लिए यह कैसे कहते कि वे गुण
अतः ये दोनों एकमालूम होते हैं । आश्चर्य नान्द सदा जयवन्त रह। इससता साफ नहीं जो इनके पुत्र और शिष्य चारुकीर्ति प्रकट होता है कि गुणनन्दि ग्रन्थकर्तासे
पण्डिताचार्य ही इस प्रक्रियाके कर्ता हो। कोई पृथक् ही व्यक्ति है जिसे वह श्रद्धास्पद समझता है। अर्थात् यह निस्सन्देह
समय-निर्णय ।। है कि इसके कर्ता गुणनन्दिके अतिरिक्त
१--शाकटायन व्याकरण और उसकी कोई दूसरे ही हैं।
अमोघवृत्ति नामकी टीका दोनों हीके * तीसरे पद्य भट्टारकशिरोमणि श्रुत
‘कर्ता शाकटायन नामके प्राचार्य हैं, इस कीर्ति देवकी प्रशंसा करता हुआ कवि
बातको प्रो० के. वी. पाठकने अनेक कहता है कि वे मेरे मनरूप मानससरो
प्रमाण देकर सिद्ध किया है। और उन्होंने परमें राजहंसके समान चिरकाल तक
यह भी बतलाया है कि अमोघवृत्ति राष्ट्रविराजमान रहें। इसमें भी ग्रन्थकर्ता कूट राजा अमोघवर्षके समयमें उसीके अपना नाम प्रकट नहीं करते हैं। परन्तु
" नामसे बनाई गई है। इससे यह सिद्ध अनुमानसे ऐसा जान पड़ता है कि वे हाता है कि शाकटायन व्याकरण ( सूत्र) श्रुतिकीर्तिदेवके कोई शिष्य होगे और अमोघवर्षके समयमें अथवा उससे कुछ संभवतः उन श्रुतिकीर्तिके नहीं जो पंच- पहले बनाया गया होगा। अमोघवर्षने वस्तुके कर्ता हैं । ये श्रुतिकीर्ति पंचवस्तुके शक संवत् ७३७ से ८०० तक (वि० सं० कर्तासे पृथक् जान पड़ते हैं। क्योंकि उन्हें ८७२ से ६३५ तक) राज्य किया है। अतः प्रक्रिया कर्ताने 'कविपतिः बतलाया हैयदि हम शाकटायन सूत्रोके बननेका व्याकरणश नहीं। ये वे ही श्रतकीर्ति समय वि० सं० ८५० के लगभग मान लें. मालम होते है जिनका समय प्रोपाठक- तो वह वास्तविकताके निकट ही रहेगा। मे शक संवत् १०४५ या वि० सं० ११० : शाकटायन व्याकरणको बारीकीके बतलाया है। श्रवणवेल्गोलके जैन गुरुप्रो- साथ देखनेसे मालूम होता है कि वह ने 'चारुकीर्ति पंडिताचार्य का पद शक जैनेन्द्रसे पीछेका बना हुआ है। क्योंकि संवत् १०३६ के बाद धारण किया है और उसके अनेक सूत्र जैनेन्द्रका अनुकरण पहले चारुकीर्ति इन्हीं श्रुतकीर्तिके पत्र करके रचे गये हैं। उदाहरणके लिए थे। श्रवणवेल्गोलके १० वें शिलालेख
देखो, जैनसिद्धान्तभास्कर, किरण २-३, पृष्ठ ११८ । •देखो 'सिस्टम्स भाफ संस्कृत ग्रामर' पृष्ठ ६७। +देखो, इंडियन एण्टिक्वेरी, जिल्द ४३, पृष्ठ २०५+देखो मेरा लिखा 'कर्नाटक जैन कवि' पृष्ठ २०। १२ में प्रो० पाठकका लेख।
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अङ्क १-२ ] जैनेन्द्रके “वस्तेर्ढञ्” (४-१-१५४), “शिलायाढः”, (४-१-१५५ ) "ढच" (४-१-२०६) आदि सूत्रोंको शाकटायनने थोड़ा बहुत फेरफार करके अथवा ज्योंका त्यों ले लिया है । जैनेन्द्रका एक सूत्र है“टिदादिः” (१-१-५३) शाकटायनने इसे ज्योंका त्यों रखकर अपना पहले अध्याय, पहले पादका ५२ वाँ सूत्र बना लिया है। इस सूत्रको लक्ष्य करके भट्टाकलंकदेव अपने राजवार्तिक (१-५-१, पृष्ठ ३७) में लिखते हैं — “क्वचिदवयवे दिदादिरिति ।" और भट्टाकलंकदेव शाकटायन तथा अमोघवर्षसे पहले राष्ट्रकूट राजा साहसतुंगके समयमें हुए हैं, अतएव यह निश्चय है कि कलंकदेवने जो 'टिदादि' सूत्रका प्रमाण दिया है, वह जैनेन्द्रके सूत्रको ही लक्ष्य करके दिया है, शाकटायन के सूत्र - को लक्ष्य करके नहीं । इससे यह सिद्ध हुआ कि शाकटायन जैनेन्द्रसे पीछेका बना हुआ है । अर्थात् जैनेन्द्र वि० सं० ८५० से भी पहले बन चुका था ।
जैनेन्द्र व्याकरण और प्राचार्य देवनन्दी ।
२ – वामनप्रणीत लिङ्गानुशासन नामका एक ग्रन्थ अभी हालमें ही गायकवाड़ ओरिएंटल सीरीजमें प्रकाशित हुआ है । इसका कर्ता पं० वामन राष्ट्रकूट राजा जगत्तुंग या गोविन्द तृतीयके समय में हुआ है और इस राजाने शक ७१६ से ७३६ (वि० ८५१–८७१) तक राज्य किया है। यह ग्रन्थकर्ता नीचे लिखे पद्यमें जैनेन्द्रका उल्लेख करता है ।
व्याडिप्रणतिमथ वाररुचं सचान्द्रं जैनेन्द्रलक्षणगतं विविधं तथान्यत् । किङ्गस्य लक्ष्म ही समस्य विशेषयुक्तमुक्तं मया परिमितं त्रिदशा इहार्याः ॥ ३१ ॥
इससे भी सिद्ध होता है कि वि० सं० ८५० के लगभग जैनेन्द्र प्रख्यात व्याकरणोंमें गिना जाता था। अतएव
3
यह इस समयसे भी पहलेका बना हुआ होना चाहिए ।
३ - हरिवंशपुराण शक सं० ७०५ (वि० सं० ८४०) का बना हुआ है । इस समय यह समाप्त हुआ है । उस समय दक्षिण में राष्ट्रकूट राजा कृष्ण ( शुभतुंग या साहसतुंग ) का पुत्र श्रीवल्लभ (गोविन्दराज द्वितीय ) राज्य करता था । इस राजाने शक ६६७ से ७०५ तक ( कि० =३२ से ८४०) तक राज्य किया है। इस हरिवंशपुराणमें पूज्यपाद या देवनन्दिकी प्रशंसा इस प्रकार की गई है:रुं(इं)द्रचन्द्रार्कजैनेन्द्रव्यापि (डि) व्याकरणक्षिणः । देवस्य देववन्द्यस्य न वदते गिरः कथम् ॥३१॥
यह बात निस्सन्देह होकर कही जा सकती है कि जैनेन्द्रव्याकरणके कर्ता देवनन्दि वि० सं० ८०० से भी पहलेके हैं ।
तत्त्वार्थराजवार्तिकमें जैनेन्द्र व्याकरण के ४ - ऊपर बतलाया जा चुका है कि एक सूत्रका हवाला दिया गया है । इसी तरह “सर्वादिः सर्वनाम" (१-१-३५) सूत्र भी जैनेन्द्रका है, और उसका उल्लेख राजवार्तिक अध्याय १ सूत्र ११ की व्याख्यामें किया गया है । इससे सिद्ध है कि जैनेन्द्र व्याकरण राजवार्तिक से पहलेका बना हुआ है । राजवार्तिक के कर्ता अकलंकदेव राष्ट्रकूट राजा साहसतुंग - जिसका दूसरा नाम शुभतुंग और कृष्ण भी है-की सभामें गये थे, इसका उल्लेख श्रवणवेल्गोलकी मल्लिषेणप्रशस्ति में किया गया है और साहसतुंगने शक संवत् ६७५ से ६६० (वि० सं० ८१० से ८३२) तक राज्य किया है। यदि राजवार्तिकको हम इस राजाके ही समयका बना हुआ मानें, तो भी जैनेन्द्र
* देव देवनन्दिका ही संक्षिप्त नाम है । शब्दार्णव चन्द्रिकामे १ -४ -११४ सूत्रकी व्याख्या में लिखा है- "देवोप कमनेकशेष व्याकरणम् ।"
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जैनहितैषी । .
भीग १५ वि० सं० ८०० से पहलेका बना हुआ होगा, अतएव उसका जो राज्यकाल बतसिद्ध होता है।
लाया गया है, वह अवश्य ठीक होगा। उक्त प्रमाणोंसे यह निश्चय होगया कि और जिन वदननन्दिके समय उक्त ताम्रजैनेन्द्र के कर्ता विक्रम सं०:०० से पहले पत्र लिखा गया है, संभवतः उन्हीं की हुए हैं। परन्तु यह निश्चय नहीं हुआ कि शिष्य-परम्परामें बल्कि उन्हींके शिष्य या कितने पहले हुए हैं। इसके लिए आगेके प्रशिष्य जैनेन्द्र के कर्ता देवनन्दि या पूज्यप्रमाण देखिए।
पाद होंगे । क्योंकि ताम्रपत्रकी मुनिमर्करा (कुर्ग) में एक बहुत ही
परम्परामें नन्द्यन्त नाम ही अधिक हैं, प्राचीन ताम्र-पत्र* मिला है। यह शक
और इनका भी नाम नन्द्यन्त है। इतना संवत् ३८- (वि० सं०५२३) का लिखा
ही नहीं बल्कि इनके शिष्य वज्रनन्दिका हुआ है। उस समय गंगवंशीय राजा
नाम भी नन्वन्त है; अतः जबतक कोई अविनीत राज्य करता था । अविनीत
- प्रमाण इसका विरोधी न मिले, तबतक.*.. राजाका नाम भी इस लेखमें है। इसमें हमे देवनन्दिको कुन्दकुन्दानाय और कुन्दकुन्दान्वय और देशीयगणके मनियो- देशीयगणके प्राचार्य वदननन्दिका शिष्य की परम्परा इस प्रकार दी हुई है:-गुण- या प्रशिष्य माननेमें कोई दोष नहीं चन्द्र-अभयनन्दि--शीलभद्र--शाननन्दि
- दिखता। उनका समय विक्रमकी छठी गुणनन्दि और वदननन्दि । पूर्वोक्त अवि- शताब्दिका प्रारम्भ भी प्रायः निश्चित मीत राजाके बाद उसका पत्र दार्विनीत समझना चाहिए। राजा हुआ है । हिस्ट्रीश्राफ कनड़ी लिट
६-इस समयकी पुष्टि में एक और भी रेचर नामक अँगरेजी ग्रन्थ और 'कर्ना- अच्छा प्रमाण मिलता है। वि० सं०880
___ में बने हुए 'दर्शनसार' नामक प्राकृत टककविचरित्र' नामक कनड़ी ग्रन्धके । अनुसार इस राजाका राज्यकाल ई० सन्।
__ ग्रन्थमें लिखा है कि पूज्यपादके शिष्य ४२ से ५१२ (वि० ५३६-६६) तक है।
- वज्रनन्दिने वि० सं०५२६ में दक्षिण मथुरा यह कनड़ी भाषाका कवि था। भारविक या मदुराम द्राविडसंघकी स्थापना कीःकिरातार्जुनीय काव्यके १५ वें सर्गकी सिरिपुज्जपादसीसो दाविसंघस्स कारगो दुहो। कनडी टीका इसने लिखी है। कर्नाटक- णामेण वज्जणंदी पाहुवेदी महासत्थ्यो । कविचरित्रके कर्ता लिखते हैं कि यह राजा पंचसए छब्ब से विक्कमरायस्स मरणपत्स्सा । पूज्यपाद यतीन्द्रका शिष्य था । अतः दक्षिणमहुराजादो दाविडसंघो महामाहो ॥ पंज्यपादको हमें विक्रमकी छठी शताब्दि- इससे भी पूज्यपादका समय वही के प्रारंभका प्रन्थकर्ता मानना चाहिए। छठी शताब्दिका प्रारंभ निश्चित होता है। मर्कराके उक्त ताम्रपत्रसे भी यह बात प्रष्ट होती है। वि० संवत ५२३ में अविनीत प्रो० पाठकके प्रमाण । राजा था। इसके १६ वर्ष बाद वि० सं० सुप्रसिद्ध इतिहास पं० काशीनाथ ५३६ में उसका पुत्र दुर्बिनीत राजा हुआ बापूजी पाठकने अपने शाकटायन ग्याक.इंडियन 'एण्टिग्वेरी जिल्द १, पृष्ठ ३६३-६५ हैं जिनसे ऐसा भास होता है कि जैनेन्द्रके
रणसम्बन्धी लेखमें* कुछ प्रमाण ऐसे दिये और एपिग्राफिका कर्नाटिका, जिल्द १ का पहला लेख। पारनरसिंहाचार्य एम० ए० कृत।
देखो इंडियन एएिटक्वेरी जिन्द ४३,१४२०५-१२। For Personal & Private Use Only
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अङ्क २-२ ]
समयका मानो अन्तिम निर्णय हो गया । इन प्रमाणोंको भी हम अपने पाठकोंके सम्मुख उपस्थित कर देना चाहते हैं: परन्तु साथ ही यह भी कह देना चाहते हैं कि ये प्रमाण जिस नीवपर खड़े किये गये हैं, उसमें कुछ भी दम नहीं है। जैसा कि हम पहले सिद्ध कर चुके हैं, जैनेन्द्रका असली सूत्रपाठ वही है जिसपर अभयनन्दिकी महावृत्ति रची गई है; परन्तु पाठक महोदयने जितने प्रमाण दिये हैं, वे सब शब्दावचन्द्रिकाके सूत्रपाठको असली जैनेन्द्रसूत्र मानकर दिये हैं; इस कारण वे तबतक ग्राह्य नहीं हो सकते जबतक कि पुष्ट प्रमाणसे यह सिद्ध नहीं कर दिया जाय कि शब्दार्णवचन्द्रिकाका पाठ ही ठीक है और इसके विरुद्धमें दिये हुए हमारे प्रमाणका पूरा पूरा खण्डन न कर दिया जाय ।
१ -- जैनेन्द्रका एक सूत्र है --- 'हस्तादेयेनुद्यस्तेये चे:' [२-३ - ३६ ] । इस सूत्र के अनुसार 'चि' का 'चाय' हो जाता है, उस अवस्थामें जब कि हाथ से ग्रहण करने योग्य हो, उत् उपसर्गके बाद न हो और चोरी करके न लिया गया हो। जैसे 'पुष्प प्रचायः । हस्तादेय न होनेसे पुष्पप्रचय, उत् उपसर्ग होनेसे 'पुष्पोश्चय' और चोरी होने से 'पुष्पप्रचय' होता है। । इस सूत्र में उत् उपसर्गके बाद जो 'चाय' होनेका निषेध किया गया है, वह पाणिनिमें, †
जैनेन्द्र व्याकरण और श्राचार्य देवनन्दी |
• इन प्रमाणोंमें जहाँ जहाँ जैनेन्द्रका उल्लेख हो वहाँ वहाँ शब्दार्णव- चन्द्रिकाका सूत्रपाठ समझना चाहिए। सूत्रों के नम्बर भी उसीके अनुसार दिये गये हैं ।
+ 'हस्तादेये' हस्तेनादानेऽनुदि वाचि चिञो घञ भवत्यस्तेये । पुष्पप्रचायः । वस्तादेय इति किं ? पुष्पप्रचयं करोति तरुशिखरे । अनुदं ति किं ? फलोच्चयः । श्रस्तेय इति किं ? फलप्रचयं करोति चौर्येण (शब्दाव- चन्द्रिका पृष्ठ ५६)
+ पाणिनिका सूत्र इस प्रकार है- 'हस्तादाने चेरस्तेवे' ( ३-३-४० )
પૂ
उसके वार्तिक में और भाष्य में भी नहीं है । परन्तु पाणिनिकी काशिकावृत्ति में ३-३४० सूत्रके व्याख्यानमें है -- 'उच्चयस्य प्रतिषेधो वक्तव्यः । इससे सिद्ध होता है कि काशिका के कर्त्ता वामन और जयादित्यने इसे जैनेन्द्रपरसे ही लिया है और जयादिव्यकी मृत्यु वि० सं० ७१७ में हो चुकी थी ऐसा चीनी यात्री इत्सिंगने अपने यात्रा विवरण में लिखा है । अतः जैनेन्द्रव्याकरण वि० सं० ७१७ से भी पहलेका बना हुआ होना चाहिए ।
२-- पाणिनि व्याकरण में नीचे लिखा. हुश्रा एक सूत्र है:'शरद्वच्छुनकदर्भाद् भृगुवत्साग्रायणेषु ।'
--
४-१-१०२ इसके स्थान में जैनेन्द्रका सूत्र इस प्रकार है-
'शरद्वच्छुनकदर्भाग्निशर्मकृष्णरणात् भृगुवत्सामायणवृषगणत्र ह्मणवसिष्ठ ।'३-१-१३४ । इसीका अनुकरणकारी सूत्र शाकटानमें इस तरह का हैः
-
'शरद्वच्छुनकरणाग्निशर्मकृष्णदर्भाद् भृगुवत्सवसिष्ठवृषगणब्राह्मणामायणे' २-४-३६
इस सूत्र की श्रमोधवृत्तीमें
' आमिशर्मा यणो वार्षगण्यः । आभिशर्मिरन्यः । इस तरह व्याख्या की है।
इन सूत्रोंसे यह बात मालूम होती है कि पाणिनिमें 'वार्षगण्य' शब्द सिद्ध नहीं किया गया है जब कि जैनेन्द्रमें किया गया है । 'वार्षगण्य' सांख्य कारिकाके कर्त्ता ईश्वरकृष्णका दूसरा नाम है और सुप्रसिद्ध चीनी विद्वान् डा० टक्कुसुकै मतानुसार ईश्वरकृष्ण वि० सं० ५०७ के लगभग विद्यमान थे। इससे निश्चय हुआ कि जैनेन्द्रव्याकरण ईश्वरकृष्णके बादवि० सं० ५०७ के बाद और काशिकाले
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पहले--वि.सं. १७ से पहले-किसी ईसवी सनकी पाँचवीं शताब्दिक उत्तरार्ध समय बना है।
(विक्रमकी छठी शताब्दीके पूर्वार्ध) के ३--जैनेन्द्रका और एक सूत्र है-- लगभग होना चाहिए । यह तो पहले ही 'गुरूदयाद्भाधुक्तेऽब्द। (३-२-२५)। शाक- बताया जा चुका है कि जैनेन्द्रकी रचना टायनने भी इसे अपना २-४-२२४ वाँ सूत्र ईश्वरकृष्णके पहले अर्थात् वि० सं०५०७ बना लिया है। हेमचन्द्र ने थोड़ासा परि- के पहले नहीं हो सकती, क्योंकि उसमें वर्तन करके 'उदितगुरोर्भायुक्तेऽब्दे' (६-२- वार्षगण्यका उल्लेख है। २५)बनाया है। इस सूत्रमें द्वादशवर्षात्मक पाठक महाशयने इन प्रमाणों में हस्ताबार्हस्पत्य संवत्सरपद्धतिका*उल्लेख किया देयेनुद्यस्तेये चेः', 'शरद्वच्छुनकदर्भाग्निगया है । यह पद्धति प्राचीन गुप्त और शर्मकृष्णरणोत् भृगुवत्साग्रायणवृषगणकदम्बवंशी राजाओंके समय तक प्रचलित ब्राह्मणवसिष्ठे' और 'गुरुदयाद् भाधुक्ते थी, इसके कई प्रमाण पाये गये हैं। ऽब्दे' सूत्र दिये हैं; परन्तु ये तीनों ही प्राचीन गुप्तोंके शक संवत् ३६७ से ४५० जैनेन्द्र के असली सूत्रपाठमें इन रूपोंमें नहीं [वि० सं०४५४ से ५८५] तक के पाँच हैं, अतएव इनसे जैनेन्द्रका समय किसी ताम्रपत्र पाये गये हैं । उनमें चैत्रादि तरह भी निश्चत नहीं हो सकता है। संवत्सरोका उपयोग किया गया है और हाँ, यदि जैनेन्द्रकी कोई स्वयं देवइन्हीं गुप्तोके समकालीन कदम्बवंशी राजा नन्दिकृत वृत्ति उपलब्ध हो जाय, जिसके मृगेशवर्माके ताम्रपत्रमें भी पौष संवत्सर- कि होनेका हमने अनुमान किया है, और का उल्लेख है। इससे मालूम होता है कि उसमें इन सूत्रोंके विषयको प्रतिपादन इस बृहस्पति संवत्सरका सबसे पहले करनेवाले वार्तिक आदि मिल जायेंगोख करनेवाले जैनेन्द्रव्याकरणके कर्ता मिल जानेकी संभावना भी बहुत है तो हैं और इसलिए जैनेन्द्रकी रचनाका समय अवश्य ही पाठक महाशयके ये प्रमाण
• इस संवत्सरकी उत्पत्ति बृहस्पितिकी गति परसे बहुत ही उपयोगी सिद्ध होंगे। हुई है, इस कारण इसे बार्हस्पत्य संवत्सर कहते हैं। पाठक महाशयके इन प्रमाणोंके ठीक जिस समय यह मालूम हुआ कि नक्षत्रमण्डलमेंसे बृह- न होने पर भी दर्शनसारके और मर्कराके स्पतिकी एक प्रदक्षिणा लगभग १२ वर्ष में होती है, उसी ताम्रपत्रके प्रमाणसे यह बात लगभग समय इस संवत्सरकी उत्पत्ति हुई होगी, ऐसा जान पड़ता निश्चित ही है कि जैनेन्द्र विक्रमकी छठी है। जिस तरह सर्यकी एक प्रदक्षिणाके कालको एक सौर
शताब्दीके प्रारंभकी रचना है। बर्ष और उसके १२३ भागको मास कहते हैं, उसी तरह इस पद्धतिमें गुरुके प्रदक्षिणा कालको एक गुरुवर्ष और जैनेन्द्रोक्त अन्य आचार्य । उसके लगभग १२ वें भागको गुरुमास कहते थे। सर्य
.. पाणिनि आदि वैयाकरणोंने जिस सानिध्यके कारण गुरु वर्षमें कुछ दिन अस्त रहकर जिस . नक्षत्र में उदय होता है, उसी नक्षत्रके नाम गुरुवर्ष के मासों. तरह अपनेसे पहलेके वैयाकरणोंके नामोके नाम रखे जाते थे। ये गुरुके मास वस्तुतः सौर वर्षोंके का नाम है, इस कारण इन्हें चैत्र संवत्सर, वैशाख संवत्सर सूत्रोंमें भी नीचे लिखे प्राचार्योंका उल्लेख मादि कहते थे। इस पद्धतिको अच्छी तरह समझनेके मिलता है:लिए स्वर्गीय पं. शंकर बालकृष्ण दीक्षितका 'भारतीय
-राद् भूतबलेः । ३.४.८३ । बीति शास्त्राचा इतिहास' और डा. फ्लीटके 'गुप्त इन्स्किप्शन्स में इन्हीं दीक्षित महाशयका अँगरेजी निबन्ध
२-गुणे श्रीदत्तस्यस्त्रियाम् | १.४.१४। पवना चाहिए।
३-वृषिमृजां यशोभद्रस्य । २.१-९९ ।
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- जैनेन्द्र व्याकरण और प्राचार्य देवनन्दी । .४-गः कतिप्रभाचन्द्रस्य । ४-३-१८.। क्रमसे हुए, या अक्रमसे, और उनके बीच१-बेः सिद्धसेनस्य । ५-१-७। में कितना कितना समय लगा, यह जानने ६-चतुष्टयं समन्तभद्रस्य । ५.४.१४.। का कोई भी साधन नहीं है। यदि हम जहाँ तक हम जानते हैं, उक्त छहों
इनके बीचका समय २५० वर्ष मान ले तो प्राचार्य प्रन्थकर्ता तो हो गये हैं, परन्तु
भूतबलिका समय वीरनिर्वाण संवत १३३ उन्होंने कोई व्याकरण ग्रन्थ भी बनाये होंगे,
(शक संवत् ३२- वि० सं० ४६३) के ऐसा विश्वास नहीं होता। जान पड़ता
लगभग निश्चित होता है । और इस है, पूर्वोक्त आचार्योंके ग्रन्थों में जो जुदा
हिसाबसे वे पूज्यपाद खामीसे कुछ ही जुदा प्रकारके शब्दप्रयोग पाये जाते होंगे
पहले हुए हैं, ऐसा अनुमान होता है। उन्हींको व्याकरणसिद्ध करनेके लिए ये
२ श्रीदत्त । विक्रमकी 8वीं शताब्दि
के सुप्रसिद्ध लेखक विद्यानन्दने अपने सब सूत्र रचे गये हैं। इन प्राचार्योमेसे जिन जिनके ग्रन्थ उपलब्ध हैं, उनके शब्द
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकमें श्रीदत्तके 'जल्पप्रयोगोंकी बारीकीके साथ जाँच करनेसे
निर्णय' नामक ग्रन्थका उल्लेख किया है:इस बातका निर्णय हो सकता है। प्राशा
द्विप्रकारं जगौ जल्पं तत्व-प्रातिभगोचरम् । है कि जैन समाजके परिडतगण इस त्रिषष्टादिनां जेता श्रीदतो जल्पनिर्णये ॥ विषयमें परिश्रम करनेकी कृपा करेंगे। इससे मालूम होता है कि ये ६३
१ भूतबलि । इनका परिचय इन्द्र- वादियोंके जीतनेवाले बड़े भारी तार्किक नन्दिकृत श्रुतावतार कथामें दिया गया थे। आदिपुराणके कर्ता जिनसेनसूरिने है। भगवान् महावीरके निर्वाणके ६८३ भी इनका स्मरण किया है और इन्हें वर्ष बाद तक अंगशानकी प्रवृत्ति रही। वादिगजोंका प्रभेदन करने के लिए सिंह इसके बाद विनयधर, श्रीदत्त, शिवदत्त, बतलाया है:-- और अहहत्त नामके चार श्रारातीय मुनि
श्रीदताय नमस्तस्मै तपः श्रीदीप्तमूर्तये । हुए जिन्हें अंग और पूर्वके अंशोका शान था। इनके बाद अर्हद्वलि और माघनन्दि
कण्ठीरवायितं येन प्रवादीभप्रभेदने ॥४५॥ आचार्य हुए । इन्हें उन अंशोका भी कुछ
वीरनिर्वाण संवत् ६-३ के बाद जो अंश शान था । इनके बाद धरसेन
४ारातीय मुनि हुए हैं, उनमें भी एक प्राचार्य हुए। इन्होंने भूतबलि और पुष्प
नाम श्रीदत्त है। उनका समय वीरनिर्वाण दन्त नामक दो मुनियों को विधिपूर्वक
सं० ७०० (शक सं०६५ वि० सं० २३०) अध्ययन कराया और इन दोनोंने महा- के लगभग होता है । यह भी संभव है कि कर्मप्रकृतिप्राभृतयाषट्खण्ड नामक शास्त्र- आरातीय श्रीदत्त दूसरे हों और जल्प की रचना की । यह ग्रन्थ* ३६ हजार निर्णयके कर्ता दूसरे। तथा इन्हीं दूसरेका श्लोक प्रमाण है। इसके प्रारभ्भका कुछ उल्लेख जैनेन्द्र में किया गया हो। भाग पुष्पदन्त आचार्यका और शेष भूत- ३ यशोभद्र । आदिपुराणमें संभवतः बलिका बनाया हुआ है। वीरनिर्वाण - संवत् ६३ के बाद पूर्वोक्त सब प्राचार्य .लोक्यसारके कर्ता 'नेमिचन्द्र' ने और हरिवंश
पुराणके कर्ताने वीरनिर्वाणसे ६०५ वर्ष बाद शककाल •संभवतः यह ग्रन्थ मूडबिद्री ( मेंगलोर ) के जैन- माना है। उन्हींकी गणनाके अनुसार हमने यहाँ शक भण्डारमें मौजूद है।
संवत् दिया है।
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जनहितधी।
[भाग १५ इन्ही यशोभद्रका स्मरण करते हुए ये फणिमण्डल (?) के उरगपुर-नरेशके कहा है
पुत्र थे । इनके बनाये हुए देवागम (माप्तविग्विणी मत Ra m मीमांसा), युक्त्यनुशासन, वृहत्स्वयंभू. निखर्वयति तद्र्व यशोभद्रः स पातु नः ॥४६॥
स्तोत्र, जिन-शतक और रत्नकरण्ड श्राव.
काचार, ये ग्रन्थ छप चुके हैं। हरिवंशइनके विषयमें और कोई उल्लेख नहीं
पक जीवसिद्धि' नामक मिला और न यही मालूम हुआ कि इनके ग्रन्थका उल्लेख मिलता है। षट्खण्डसूत्रो बनाये हुए कौन कौन ग्रन्थ हैं । आदि- के पहले पाँच खण्डों पर भी इनकी बनाई पुराणके उक्त श्लोकसे तो वे तार्किक ही
हजार श्लोक प्रमाण संस्कृत टीकाजान पड़ते हैं।
का उल्लेख मिला है। आवश्यकसूत्रकी ४ प्रभाचन्द्र । आदिपुराणमें न्याय- मलयगिरिकृत टीकामें 'श्राद्यस्तितिकारोकुमुन्दचन्द्रोदयके कर्ता जिन प्रभाचन्द्रका ऽप्याह' कहकर इनके स्वयंभू स्तोत्रका स्मरण किया है, उनसे ये पृथक् और पहले- एक पद्य उद्धत किया है। इससे मालूम के मालूम होते हैं । क्योंकि चन्द्रोदयके होता है कि ये सिद्धसेनसे भी पहलेके कर्ता प्रकलङ्कभट्टके समयमें हुए हैं, इस- ग्रन्थकर्ता हैं। क्योंकि सिद्धसेन भी स्तुतिलिए उनका जिक्र जैनेन्द्र में नहीं हो कारके नामसे प्रसिद्ध हैं। अभी तक इन सकता। मालूम नहीं, ये प्रभाचन्द्र किस दोनों ही प्राचार्यों का समय निति ग्रन्थके कर्ता हैं और कब हुए।
नहीं हुआ है। ५ सिद्धसेन । ये सिद्धसेन दिवाकरके नामसे प्रसिद्ध हैं। ये बड़े भारी तार्किक
पूज्यपादके अन्य ग्रन्थ । हुए हैं। स्वर्गीय डा० सतीशचन्द्र विद्या- जैनेन्द्रके सिवाय पूज्यपादस्वामीके भूषणका खयाल था कि विक्रमी सभाके बनाये हुए अबतक केवल तीन ही ग्रन्थ 'क्षपणक' नामक रत्न यही थे। श्रादि- उपलब्ध हुए हैं और ये तीनों ही छप पुराणमें इनका कवि और प्रवादिगज चुके हैं :केसरी कहकर और हरिवंश पुराणमें १–सर्वार्थसिद्धि । दिगम्बर सम्प्रसूक्तियोंका कर्ता कहकर स्मरण किया है। दायमें प्राचार्य उमास्वामिकृत तत्त्वार्थन्यायावतार, सम्मतितर्क, कल्याणमन्दिर- सुत्रकी यह सबसे पहली टीका है। अन्य स्तोत्र और २० द्वात्रिंशिकायें (स्तुतियाँ) सब टीकायें इसके बादकी हैं और वे सब इनकी उपलब्ध हैं। यदि विक्रमका समय इसको आगे रखकर लिखी गई हैं। ईसाकी छठी शताब्दी माना जाय-जैसा २-समाधितंत्र । इसमें लगभग १०० कि प्रो० मोक्षमूलर श्रादिका मत है--तो श्लोक हैं, इसलिए इसे समाधिशतक भी सिद्धसेन इसी समयमें हुए हैं। और लग- कहते हैं । यह अध्यात्मका बहुत ही भग सही समय जैनेन्द्र के बननेका है। गम्भीर और तात्त्विक ग्रन्थ है। इस पर
६ समन्तभद्र । दिगम्बर सम्प्रदाय कई संस्कत टीकायें लिखी गई हैं। ये बहुत ही प्रसिद्ध आचार्य हुए हैं। बीसो ३-इष्टोपदेश । यह केवल ५१ श्लोकदिगम्बर ग्रन्थकारोंने इनका उल्लेख प्रमाण छोटासा ग्रन्थ है और सुन्दर उपकिया है। ये बड़े भारी तार्किक और कवि देशपूर्ण है। पं० आशाधरने इस पर एक थे। इनका गृहस्थावस्थाका नाम वर्म था। संस्कृत निबन्ध लिखा है।
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अङ्क १-२] जैनेन्द्र व्याकरण और प्राचार्य देवनन्दी ।
इनके सिवाय कहा जाता है कि इनके कर्ताका ही बनाया हुआ समझकर उल्लेख बनाये हुए और भी कई ग्रन्थ हैं । सर्वार्थ- . कर दिया करते हैं। सिद्धिकी भूमिकामें श्रीयुत पं० कलापा. : वृत्तविलास कविकी कनडी धर्मनिटवेने लिखा है कि चिकित्साशास्त्र पर परीक्षाका जो पद्य पहले उद्धृत किया जा भी पूज्यपादस्वामीके दो ग्रन्थ उपलब्ध चुका है उसमें दो ग्रन्थोंका और भी होते हैं, जिनमेंसे एकमें चिकित्साका और उल्लेख है, एक पाणिनिव्याकरणकी टीकादूसरेमें औषधों तथा धान्योंका गुणनिरू- का और दूसरे यन्त्रमन्त्रविषयक शास्त्रपण है। परन्तु पण्डित श्रीमहाशयने न का । पूज्यपाद द्वारा पाणिनिकी टोकाका तो उक्त ग्रन्थोंका नाम ही लिखा है और लिखा जाना असम्भव नहीं है; परन्तु न यही लिखनेकी कृपा की है कि वे कहाँ साथ ही वृत्तविलासको पूज्यपादके जिनेउपलब्ध हैं। शुभचन्द्राचार्यकृत ज्ञाना- न्द्रबुद्धि' नामसे भी यह भ्रम हो गया हो गवके नीचे लिखे श्लोकके 'काय' शब्दसे तो आश्चर्य नहीं । क्योंकि पाणिनिकी भी यह बात ध्वनित होती है कि पूज्यपाद- काशिका वृत्तिपर जो न्यास है उसके स्वामीका कोई चिकित्सा ग्रन्थ है:- कर्ताका भी नाम 'जिनेन्द्रबुद्धि' है। इस अपाकुर्वन्ति यद्वाचः कायवाक्चित्तसंभवम् । नामसाम्यसे यह समझ लिया जा सकता कलङ्कमाङ्गिनां सोयं देवनन्दी नमस्यते ॥
है कि पूज्यपादने भी पाणिनिकी टीका
लिखी है।न्यासकार 'जिनेन्द्रबुद्धि' वास्तव- पूनेके भाण्डारकर रिसर्च इन्सटिट्यूट- में बौद्ध भिक्षु थे और वे अपने नामके में 'पूज्यपादकृत वैद्यक' नामका एक ग्रन्थ साथ श्रीबोधिसत्त्वदेशीयाचार्ययह बौद्ध है* । यह आधुनिक कनडीमें लिखा हुआ
है। कनडी भाषाका ग्रन्थ है। पर इसमें न
चरित्र-लेखकने लिखा है कि पाणिनि तो कहीं पूज्यपादका उल्लेख है और न
पूज्यपादके मामा थे और पाणिनिके यही मालूम होता है कि यह उनका बनाया
अधूरे ग्रन्थको उन्होंने ही पूर्ण किया था; हुआ होगा।
परन्तु इस समय ऐसी बातोपर विश्वास विजयनगरके हरिहर राजाके समयमें
नहीं किया जा सकता। - "मंगराज नामका एक कनडी कवि हुआ
'जैनाभिषेक' नामक एक और ग्रन्थहै। वि० सं० १४१६ के लगभग उसका
का जिकर 'जैनेन्द्रं निजशब्दभागमतुलं' अस्तित्व काल है। स्थावर विषोंकी
आदि श्लोकमें किया गया है। यह श्लोक प्रक्रिया और चिकित्सापर उसने खगेन्द्र
ऊपर पृष्ठ ६५ में दिया जा चुका है। मणिदर्पण नामका एक ग्रन्थ लिखा है।
जहाँ तक हमारा ख़याल है, जैनाभिषेक इसमें वह अपने आपको पूज्यपादका
और यन्त्रमन्त्रविषयक ग्रन्थ भी अन्य शिष्य बतलाता है और यह भी लिखता है
किसी पूज्यपादके बनाये हुए होंगे और कि यह प्रन्थ पूज्यपादके वैद्यक ग्रन्थसे
भ्रमसे इनके समझ लिये गये होंगे। संगृहीत है। इससे मालूम होता है कि पूज्य
__ कनडी पूज्यपादचरितमें पूज्यपादके पाद नामके एक विद्वान् विक्रमकी तेर
बनाये हुए अर्हत्प्रतिष्ठालक्षण और शान्त्यहवीं शताब्दिमें भी हो गये हैं और लोग
टक नामक स्तोत्रका भी जिकर है।. . भ्रमवश उन्हींके वैद्यक ग्रन्थको जैनेन्द्रके
-अपूर्ण। • नं० १०६६, सन् १८८७-६१ को रिपोर्ट ।
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[भाग १५ र सामाजिक, व्यापारिक और विविध कला
.. कौशलकी विद्यासे हरेक जातीय भाईको भाषणका कुछ सारभाग। तैयार करे, समाजका बच्चा बच्चा भी पढ़ा
दिगम्बर जैन खंडेलवाल महासभाके लिखा हो और अविद्यारूपी अन्धकारको जिस प्रथमाधिवेशनका शोरअर्सेसे समा- अपने निर्मल ज्ञानके प्रकाशसे विध्वंस कर चारपत्रों में सुनाई पड़ता था, वह कल- दे। उपाय ऐसे किये जावें कि जातिका कोई कत्तमें ता० २७,२८,२०, ३० नवम्बर और बच्चा भूखा न सोने पावे, क्योंकि भूखकी रली दिसम्बरको हो गया। अधिवेशनमें ज्वालासे लोगोंको अनेक अनर्थ करने में प्रतिनिधियोंकी संख्या बहुत कम थी। प्रवृत्त होना पड़ता है। बोलशेविस्म आदि जब पं० धन्नालालजीने यह देखा कि प्रति- भी इसीका परिणाम है। . ............ निधियोंकी संख्या बहुत कम है अर्थात् ऐसा करके भाइयो! यह लोक परलोक ऐसे लोग बहुत थोड़े हैं जो अपने अपने सुधारना होगा, ज़मानेकी रफ्तारका अवश्य नगर ग्रामोंकी पंचायतों तथा सभा विचार करना होगा और कोई भी बातसोसायटियोंकी तरफसे बाजाब्ता कायम का निश्चय द्रव्य, क्षेत्र, काल भावका मुकाम ( Representatives) बनकर विचार कर करना होगा। अगर सफलता
और उनकी ओरसे सम्मति प्रकाशित के लिये ऐसा न किया, अगर यह लोक करने आदिका अधिकार लेकर आये हो भी नहीं सुधारा और मनुष्यताके तौर पर तब उन्होंने उपस्थित खंडेलवालोको.सभा- न जिये तो परलोक सुधारना सपनेकी का संभासद प्रकट कर दिया और इस बात होगी।" तरह पर उक्त महासभाको अपना अधि- जातिकी दशाको सुधारनेकी प्रेरणा घेशन सार्थक करनेका अवसर प्राप्त करते हुए आपने कहा--'ऐसी कोई चीज़ दुमा । अधिवेशनके सभापति थे श्रीमान् दुनियाकी नहीं, जो मिल न सके। मगर सेठ लालचन्दजी सेठी, जो कि झालरा- ज़रूरत है परिश्रम, दृढ़ संकल्प, संगठन पाटनके सुप्रसिद्ध सेठ विनोदीराम बाल- और नियमसे काम करने की ।......... चन्दजीकी फर्मके मालिक हैं। आपने ......जब आप कहते हैं कि कलिकालका जलसेमें, सभापतिकी हैसियतसे जो प्रभाव है, तो इसके यह भी माने हो सकते भाषण दिया उसकी एक छपी हुई कापी हैं कि उस वक्त धर्ममें जो शक्ति थी वह हमें कल संध्या समय प्राप्त हुई । देखनेसे अब नहीं रही । मगर याद रखिये कि हम मालूम हुआ, भाषण अच्छा है और उसमें अपनी कायरताको ज़बरदस्ती धर्म पर बहुत कुछ समयोपयोगी तथा कामकी डालना चाहते हैं। हम दृढ़ संकल्पके साथ बातें कही गई हैं। इस भाषणका कुछ पुरुषार्थ करके देखें, तो मालूम हो जायगा सारभाग, अपने पाठकोंके अवलोकनार्थ कि कलिकालका प्रभाव हमें उन्नति करने
और सेठ साहबके विचारोंके परिचयार्थ से नहीं रोक सकता। क्योंकि कहा है'नीचे प्रकट किया जाता है :
'सदयं हृदयं यस्य भाषितं सत्य भूषितम् । - सभाओंके मुख्य कर्त्तव्यका उल्लेख काये सत्वहितो पाये काल:कुर्वीततस्य किम् ॥ करते हुए सेठजीने कहा-"कोई भी सभा -
• जिसका हृदय दयासे पूर्ण, वचन सत्यसे भूषित हो, उसका फर्ज होगा कि देशकी उन्नति- और शरीर जीवोंके हितसाधनमें लगा हुआ है उसका में सहायक होती हुई वह नैतिक, धार्मिक, कलिकाल क्या कर सकता है ?
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१-२ ]
जैन साहित्य के सम्बन्धमें अपने विचार प्रकट करते हुए आपने कहा-
" साहित्यके बिना कोई भी जाति, कोई भी देश और कोई भी ज्ञान कायम महीं रह सकता । हमारे जैन साहित्यकी दशा साहित्य - रसिक सज्जनोंसे छिपी नहीं है। हाय! हमारे साहित्यका लोप होते होते यहाँतक हो गया कि हमारे पुनीत पावन शास्त्र बरसों तक भण्डारों
बन्द रखे जाने लगे । चाहे उनको चूहे खायें, दीमक खायें, मगर भण्डारों के ताले खोलना भी कठिन हो गया । हमारे शास्त्र इस तरह मिट्टी में मिलें, बरबाद हो, क्षय हो और हम उनकी तरफ नज़र भी नहीं डालें, हमारे लिये यह कितने अफ़सोस श्रौर शर्म की बात है ! कहते कलेजा काँपता है कि इस बुरे ढङ्गसे हज़ारों शास्त्रोंका नाश हो गया । और अगर यही हालत रही तो जमाना बतावेगा कि जैनियोंका कोई अस्तित्व ही नहीं है। फिर भी अगर अभीतक इस विषय पर समाजका ध्यान थोड़ा बहुत नहीं जाता, तो जैन- साहित्यका अन्त बहुत जल्दी था जाता। मगर खुशीकी बात हैं कि अब कई जगह शास्त्रोंके भण्डार खुल गये हैं, उनको चूहों और दीमकों से बचाकर बाहर लाया गया है और यों जैनसाहित्यक थोड़ी बहुत रक्षा की गई है। मगर फिर भी कई जगहें ऐसी सुननेमें श्राती हैं कि जहाँके भण्डारोंमें बहुतसे शास्त्र वर्षोंसे भरे पड़े हैं और जिनको
हमारे जैनी भाई ताला खोलकर सँभालने तक नहीं देते । अफ़सोस और सख श्रफ़सोस ! क्या शास्त्रका विनय इसीका नाम है ?...
पुस्तक- परिचय |
पुस्तक- परिचय |
१ आत्मसिद्धि – यह मूल पुस्तक गुजराती भाषामें सरल और सुबोध पद्य द्वारा शतावधानी महात्मा श्रीमद् राजचन्द्रजी जैनकी बनाई हुई हैं। इसका विषय पुस्तकके नामसे ही प्रकट है । पण्डित बेहचरदासजी न्याय और व्याकरणतीर्थने संस्कृतमें इसका
पद्यानुवाद और हिन्दीमें पं० उदयलालजी काशीवालने गद्यानुवाद किया है । ये दोनों अनुवाद पुस्तक के साथ लगे हुए हैं। साथ ही, मूल कर्ताके हिन्दी परिचय द्वारा, जो कि १२३ पृष्ठ परिमाण है, इस पुस्तकको अलंकृत किया गया और उपयोगी बनाया गया है । सब सौके करीब है, मोटे पुष्ट कागज़पर निर्णयमिलाकर पुस्तककी पृष्ठ संख्या सवा दो सागर प्रेस द्वारा छपाई हुई है, सुवर्णाक्षरों को लिये हुए सुन्दर कपड़ेकी जिल्द बँधी है और तिसपर भी मूल्य एक रुपया है । ग्रन्थकर्ताके छोटे भाई श्रीयुत मनसुखलाल रवजी भाई मेहताने #महात्मा गांधीजीकी प्रेरणा से इसे लोकोपकारार्थं देवनागरी अक्षरोंमें प्रकाशित किया है।
यह पुस्तक बड़े कामकी है और इसमें ग्रन्थकर्ताका परिचय ख़ास तौर से पढ़ने योग्य है। उसके पढ़नेसे अनेक बातोंकी शिक्षाएँ मिलती हैं और बहुत कुछ धनुचन्द्रजीके जीवनके अनेक पत्रोंका भी भव बढ़ता है । परिचयमें श्रीमद् राजसंग्रह किया गया है और उसमें वे पत्र भी शामिल हैं जो महात्मा गांधीजीके पत्रके उत्तर में उन्हें नैटाल (अफ्रीका ) भेजे गये थे। गांधीजी के जीवनपर श्रीमद् राज- अपूर्ण | चन्द्रजीका गहरा प्रभाव पड़ा है, जिसे
• आपका पता 'संदहर्स्ट रोड, गिरगाँव - बम्बई' है ।
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जैनहितैषी ।
उन्होंने अनेक बार स्वमुखसे उद्घो षित किया है । श्रहमदाबादमें, 'राजचन्द्र जयन्ती' के समय पर सभापतिकी हैसि यतसे महात्मा गांधीने श्रीमद्राजचन्द्र और उनकी कृतियोंके सम्बन्धमें जो उद्गार निकाले थे उन्हें इस पुस्तकसे, हम अपने पाठकोंके अवलोकनार्थ नीचे उधृत करते हैं :
'मेरे जीवन पर श्रीमद् राजचन्द्र भाई का ऐसा स्थायी प्रभाव पड़ा कि मैं उसका वर्णन नहीं कर सकता । उनके विषयमें मेरे गहरे विचार हैं। मैं कितने ही वर्षोंसे भारतमें धार्मिक पुरुषकी खोजमें हूँ; परन्तु मैंने ऐसा धार्मिक पुरुष भारत में अबतक नहीं देखा जो श्रीमद् राजचन्द्र भाई के साथ प्रतिस्पर्द्धा में खड़ा हो सके। उनमें ज्ञान, वैराग्य और भक्ति थी; ढोंग, पक्ष पात या राग-द्वेष न थे । उनमें एक ऐसी महती शक्ति थी कि जिसके द्वारा वे प्राप्त हुए प्रसंगका पूर्ण लाभ उठा सकते थे । उनके लेख अँगरेज तत्वज्ञानियोंकी अपेक्षा भी विचक्षण, भावनामय और श्रात्मदर्शी हैं। मैं योरप के तत्त्वज्ञानियोंमें टालस्टायको पहली श्रेणीका और रस्किनको दूसरी श्रेणीका विद्वान् समझता हूँ; पर श्रीमद् राजचन्द्र भाईका अनुभव इन दोनोंसे भी बढ़ा चढ़ा था। इन महापुरुषके जीवन के लेखको आप अवकाश के समय पढ़ेंगे तो श्रापपर उनका बहुत अच्छा प्रभाव पड़ेगा। वे प्रायः कहा करते थे कि मैं किसी बाड़ेका नही हूँ; और न किसी बाड़े में रहना ही चाहता हूँ । ये सब तो उपधर्म- मर्यादित हैं और धर्म तो असीम है जिसकी व्याख्या ही नहीं हो सकती । वे अपने जवाहिरातके धन्धे से विरक्त होते कि तुरन्त पुस्तक हाथमें लेते । यदि उनकी इच्छा होती तो उनमें ऐसी शक्ति थी कि वे एक अच्छे प्रतिभाशाली बैरिस्टर,
[ भाग १५
अज या वाइसराय हो सकते। यह अतिशयोक्ति नहीं, किन्तु मेरे मन पर उनकी छाप है । इनकी विचक्षणता दूसरे पर अपनी छाप लगा देती थी ।"
महात्माजीके इन उद्गारोंसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि श्रीमद् राजचन्द्रजी कितने असाधारण धार्मिक पुरुष थे, उनका अनुभव कितना बढ़ा चढ़ा था और इसलिये उनकी वृत्तियाँ कितनी अधिक उत्तम तथा मनन किये जानेके योग्य हैं। इन उद्गारों के मौजूद होते हुए हमें इस पुस्तकका कुछ विशेष परिचय देनेकी ज़रूरत नहीं है। हाँ इतना ज़रूर कहना होगा कि हमें इस पुस्तकके पढ़नेसे बहुत कुछ संतोष और शांति-लाभ हुआ है; और इसलिये हमारा अनुरोध है कि प्रत्येक स्त्री पुरुषको इसे ज़रूर पढ़ना चाहिये । यह पुस्तक सभी लायब्रेरियों और पुस्तकालयोंमें संग्रह किये जानेके योग्य है । इस पुस्तकसे यह भी मालूम होता है कि ग्रन्थकर्ताकी कुछ दूसरी वृत्तियाँ भी ( जैसे कि 'श्रीमद्राजचन्द्र' नामका ग्रन्थ) गुजराती में प्रकाशित हुई हैं परन्तु अभी तक हमें उनके देखनेका सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ । यह पुस्तक हमें श्राराके कुमार देवेंद्रप्रसादजीले प्राप्त हुई थी, जिसके लिये हम उनके कृतज्ञ हैं । २ निबन्धरत्नमाला - लेखिका श्रीमती पण्डिता चन्दाबाई, श्रारा। प्रकाशक कुमार देवेन्द्रप्रसादजी, प्रेममन्दिर, श्रारा । पृष्ठसंख्या १२५ से ऊपर । मूल्य आठ श्राना । 'कन्या विद्यावलम्बिनी पुस्तकमाला' की यह तृतीय पुस्तक है । इससे पहले सौभाग्यरत्नमाला और उपदेशरत्नमाला नामकी दो पुस्तकें और भी उक्त लेखिकाकी लिखी हुई प्रकाशित हो चुकी हैं। इस पुस्तकमें ९ मानव हृदय, २ पवित्रता, ३ सद्ज्ञान, ४ सद्व्यवहार,
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भङ्क १-२]
पुस्तक-परिचय। ५प्रात्मपदार्थ, ६ खावलम्बन, ७ आत्म- है कि प्रचारकी गरजसे ऐसा किया गया गुण, : धनदशादर्शन, स्वदेशसेवा, १० हो, और इसलिए,प्रकाशकका यह उत्साह त्रियोंमें उपविधा, ११ मनुष्य-जन्मकी और भी प्रशंसनीय है। दुर्लभता और शानकी योग्यता, १२ समय- ३ भारतके प्राचीन राजवंशको उपयोगिता, १३ शिक्षा, १४ प्राचीन (प्रथम भाग)-लेखक, साहित्याचार्य प्रादर्श महिलाएँ, १५ स्त्री समाजमें समा- पण्डित विश्वेश्वरनाथ रेउ,सुपरिएटेण्डेण्ट चारपत्रोंकी आवश्यकता और १६ कन्या- 'सरदार म्यूजियम' और 'सुमेर पब्लिक महाविद्यालय नामके सोलह निबन्ध हैं। लायब्रेरी' जोधपुर । प्रकाशक, हिन्दी यद्यपि सभी निबन्ध अच्छे, प्रौढ़ और प्रन्थरत्नाकर कार्यालय, गिरगाँव-बम्बई । उच्च विचारोंसे भरे हुए हैं तो भी उनमें पृष्ठसंख्या, नकशों तथा वंशवृक्षोंसे अलब, मानव हृदय, खदेश सेवा और आत्म- ३६० मूल्य, कपड़ेकी जिल्द सहित तीन सम्बन्धी कुछ निबन्ध ऐसे हैं जो खास रुपये। तौरसे पढ़े जाने योग्य हैं; और इन यह पुस्तक अभी हालमें प्रकाशित हुई निबन्धोंसे स्त्रीजाति ही नहीं बल्कि पुरुष है और अपने ढङ्गकी पहली पुस्तक है। भी बहुत कुछ लाभ उठा सकते हैं। पुस्तक- इसमें संस्कृत पुस्तकों, शिलालेखो, ताम्रकी भाषा शुद्ध, परिमार्जित और लेखन- पत्रों, सिक्कों, ख्यातों और फारसी तवाशैली अभिनन्दनीय है। साथ ही प्रकाशक रीखों आदिके आधार पर १ क्षत्रप,२ हैहय, महाशयने इसे बढ़िया कागज पर, उत्तम ३ परमार, ४ पाल, ५ सेन और ६ चौहान टाइपमें और अच्छे ढङ्गसे छपवा-बँधवा- इन छः वंशोके राजाओं तथा इनसे कुछ कर इसकी शोभाको और भी ज्यादा बढ़ा सम्बन्ध रखनेवाले कुछ दूसरे राजाओं दिया है । हमें इस पुस्तकको देखकर और इतर विद्वानों श्रादिका संक्षिप्त इतिबहुत प्रसन्नता हुई। एक स्त्रीकी कलमसे हास तथा परिचय दिया है। इस तरह हिन्दीमें ऐसी अच्छी पुस्तकका लिखा यह पुस्तक सैकड़ो ऐतिहासिक व्यक्तियोजाना, निःसन्देह जैनसमाजके लिये बड़े के संक्षिप्त परिचय और बहुत सी पुरानी गौरवकी बात है। हमारे खयालमें यदि घटनाओंके उल्लेखको लिये हुए है। अनेक श्रीमतीका यह प्रयत्न बराबर जारी रहा नकशों, वंशवृक्षों और फुटनोटोंके द्वारा तो इसके द्वारा वे जैन स्त्रीसमाजका मुख इसे उपयोगी बनाया गया है। इसमें लिखी ही उज्वल नहीं कर सकेंगी, बल्कि देश मुंशी देवीप्रसादजी, सहकारी अध्यक्ष और समाजके उत्थानमें बहुत कुछ सहा- 'इतिहास कार्यालय जोधपुरकी लिखी हुई यक भी बन सकेंगी और हिन्दी संसार २६ पेजकी भूमिका भी बहुत कुछ उपआपकी कृतियोंसे उपकृत होगा। पुस्तक योगी है। इसमें सन्देह नहीं कि, पुस्तक
सबके पढ़ने और संग्रह किये जानेके बड़े परिश्रम और खोजके साथ लिखी - योग्य है।मूल्य लागत मात्र अथवा लागत- गई है और उसमें बहुतसे देशी-विदेशी से भी कुछ कम जान पड़ता है; सम्भव ग्रन्थोका सार खींचा गया है। ऐसी एक
पुस्तककी हिन्दी संसारको बड़ी ज़रूरत * इनके सिवाय, प्रकाशक द्वारा, एक लेख महात्मा
थी। इसके लिए लेखक और प्रकाशक गांधीका 'नवजीवन' से अनुवाद रूप उद्धृत किया गया है. और एक कविता गिरीशके 'रसाल वन' से उठाकर दाना हा धन्यवादक पात्र है। प्रत्येक रक्खी गई है।
इतिहासप्रेमी और पुरानी बातोंके जानने
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के इच्छुक द्वारा यह पुस्तक अवश्य पढ़ें और संग्रह किये जानेके योग्य है । हर एक लायब्रेरी और पुस्तकालय में इसकी एक एक प्रति रहनी चाहिए ।
अन्तमें हम यह भी प्रगट कर देना उचित समझते हैं कि, यद्यपि पुस्तकको बहुत कुछ उपयोगी बनानेका यत्न किया गया है तो भी उसमें एक खास त्रुटि रह गई है, और वह जनरल इण्डेक्स ( General Index) का अभाव है । अर्थात् पुस्तकमें ऐसी कोई साधारण अनुक्रमणिका नहीं लगाई गई जिसमें पुस्तक भरमें श्राये हुए सब प्रकार के नामोंको अकारादि क्रमसे, पृष्ठसंख्या के साथ, दर्ज किया होता । इस प्रकारकी पुस्तकों में ऐसी एक अनुक्रमणिकाकी बहुत बड़ी ज़रूरत होती है; और उससे अनुसन्धान करनेवालों तथा पुस्तक से कुछ काम लेने वालोंको बहुत कुछ लाभ पहुँचता है और उनका अधिकांश समय बच जाता है । ऐसी अनुक्रमणिकाके न होनेकी हालत में कभी कभी पुस्तक में कोई कामकी बात होते हुए भी वह काम नहीं श्राती । श्राशा है कि पुस्तकका दूसरा संस्करण निकालते समय और इसके दूसरे भागको प्रकाशित करते वक्त भी इस विषयकी और ख़ास तौर से ध्यान रक्खा जायगा और पुस्तकको और भी ज्यादह उपयोगी बनानेका यत्न किया
जायगा ।
1
[ भाग १५
सम्पादकीय वक्तव्य ।
इस श्रंकसे जैनहितैषीका नया वर्ष प्रारम्भ होता है - श्रर्थात्, हितैषी अपने जीवनके १४ वे वर्षको पारकर अब सहर्ष १५ वे वर्ष में प्रवेश करता है। पिछले साल इस पत्रने अपने vratat क्या कुछ सेवा की, यह बतलाने की ज़रू रत नहीं है; सहृदय पाठक उससे स्वयं परिचित हैं । हाँ, इतना ज़रूर कहना होगा कि गत वर्ष बीमारी, अस्वस्थता और प्रेसकी गड़बड़ श्रादि कई कारणोंसे हम हितैषीके अनेक अंकों को समय पर नहीं निकाल सके और इससे पाठकोंको कुछ प्रतीक्षाजन्य कष्ट ज़रूर उठाना पड़ा है, जिसके लिये हमें स्वयं खेद है; तो भी इस बात पर खास ध्यानं रक्खा गया है कि पाठकोंको वैसे कुछ लाभ न होने पावेमैटरकी दृष्टिसे वे घाटेमें न रहें - और इसलिये हितैषीका मैटर बराबर उसी ढङ्गसे पूरा किया जाता रहा है । वास्तवमें, जैनहितैषी कोई समाचारोंका पत्र भी नहीं है जिसके समयपर न निकलने से उसकी उपयोगिता नष्ट हो जाय, बल्कि यह एक प्रकारका निबन्धसंग्रह है जिसके अधिकांश लेखोंको, एक उपयोगी पुस्तकके तौर पर, बार बार पढ़ने, मनन करने और पास रखनेकी ज़रूरत होती है। गत वर्ष काग़ज़ और छपाईकी कितनी महँगाई रही, और जो अभी तक जारी है, इससे सभी परिचित हैं। अनेक पत्र इसी चक्करमें पड़कर बन्द हो गये और बहुतों को अपना मूल्य बढ़ाना तथा आकारादि परिवर्तन करना पड़ा। महात्मा गांधीके 'नवजीवन' जैसे पत्रोंकी भी - जिनकी बहुत कुछ ग्राहक संख्या है और जिन्हें हज़ार हज़ार रुपये तककी सहायता भी इसलिये प्राप्त है कि वे कुछ लोगोंको
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अङ्क १-२
सम्पादकीय पक्तन्यं । बिना मूल्य दिये जायँ-प्रायः ऐसी ही का नतीजा है । वास्तवमें जैनहितैषी. दशा हुई। महात्माजीको वर्ष के बीच में किसी स्वार्थबुद्धिसे प्रेरित होकर, निजी ही अपने पत्रका मूल्य बढ़ाना पड़ा और लाभके लिये नहीं निकाला जाता। इसमें, जब उससे भी काम न चला-घाटा संपादक और प्रकाशक दोनोकी ओरसे, होता देखा तो पत्रकी पृष्ठसंख्या भी कम जो कुछ शक्ति और समयका व्यय किया करनी पड़ी। परन्तु जैनहितैषीने, जिसकी जाता है वह सब समाजहितके लिये है-- प्राहक संख्या अल्प है, जिसे बाहरसे भी समाजमें ऊँचे विचारोंका प्रचार करके किसीकी कुछ आर्थिक सहायता प्राप्त नहीं उसे सन्मार्गकी अोर लगानेकी ग़रज़से है और जिसकी छपाईका चार्ज, दो एक है। देखते हैं, समाज कबतक चेतता और अंकोंके बादसे ही, १६ रुपयेके स्थानमें २२ अपने हितैषीको पहचानता है। हमारे रुपये हो गया था-वर्ष के बीचमें ही, एक मित्रका यह अनुभव, यद्यपि ठीक है अपना मूल्य बढ़ाना उचित नहीं समझा कि जैनियों में अच्छे साहित्यको पढ़नेवाले और न अपवे नियत फार्मोकी संख्या- नहीं हैं--उनका प्रायः अभाव है--तो भी अर्थात् पृष्ठ संख्याको ही कम किया। इतने अच्छे साहित्यके पढ़नेवालोको पैदा करनेपरभी समाजने इस पत्रके साथ जोसलूक के लिये उपाय भी यही है कि हानि किया है उसे देखकर दुःख होता है। उठाकर भी, उनमें अच्छे साहित्यका बहुतसे ग्राहक पाँच पाँच महीने तक प्रचार किया जाय । और इसी लिये जैन बराबर खुशीसे जैनहितैषी लेते रहे हितैषीका यह सब प्रयत्न है--वह अपनी
और जब छठा अंक उनके पास वी. पी. शक्तिभर आर्थिक हानि उठाकर भी द्वारा भेजा गया तो उन्होंने वापस कर . फिरसे सेवाके लिये तय्यार हुआ है -दिया; और इतनी भी प्रामाणिकता नहीं और जबतक शक्ति बनी रहेगी तबतक दिखलाई कि पाँच पाँच अंकोंकी बाबत . बराबर सेवा करता रहेगा। परन्तु उस मूल्यके पन्द्रह पन्द्रह आने ही भेज दिये शक्तिको बनाये रखना अधिक क्षीण जायँ । हम नहीं चाहते कि ऐसे भाइयोंके न होने देना-यह सब पाठकोंके अधीन नामोको प्रकट करके समाजमें उन्हें और है। और इसलिए जो लोग जैनहितैषीसे प्रेम भी ज्यादा लजित किया जाय--उनकी रखते हैं उन्हें उसके प्रचार का यत्न करना परिणति उनके अधीन है और हमारी चाहिए; ख़ासकर ऐसे समयमें जब कि चित्तवृत्ति हमारे अधीन-तो भी इतना कुछ उलूक प्रकृतिके अन्धकारप्रिय मनुष्योज़रूर बतलाना होगा कि ऐसे लोगोंकी की निर्बल और विकृत दृष्टिमें हितैषीका इस कृपासे जैनहितैषीको गतवर्ष ६००) सुमधुर और हितकर तेज भी नहीं समाता रुपयेके करीब घाटा रहा है; जैसा कि और इसलिए वे उसके अस्तकी भावना पिछले अंकमें प्रकाशक महोदयने ज़ाहिर कर रहे हैं । ऐसे समयमें जैनहितैषीके किया था। इतनी महती हानि उठाकर शुभचिन्तकोंका भी कुछ कर्तव्य ज़रूर भी जैनहितैषी इस वर्ष उसी उत्साहके होना चाहिए। . साथ अपने पाठकोंकी सेवामें उपस्थित पिछले सालके शुरूमें हमने अपने हो रहा है, यह सब प्रकाशक महोदयकी पाठकोसे यह प्रार्थना की थी कि वे इस उदारता, और समाजमें ऊँचे साहित्य बातकी पूरी कोशिश रक्खें कि जैनहितैषीतथा सद्विचारोंको फैलानेकी सत्कामना- के विचार यथावत् रूपसे, सब भाइयोंके
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अनाहती।
[भाग १५ कानों तक बराबर पहुँचते रहे और उन्हें रण करें और कराएँ, वे सब जैनहितैषीके पढ़ने को मिलते रहे। परन्तु जान पड़ता विचारोंको फैलानेमें सहायक हो सकते है, इस पर कुछ ध्यान नहीं दिया गया। हैं और समाजमें बहुत कुछ जाप्रति प्रतः हमें अपने पाठकोंका ध्यान फिरसे उत्पन्न कर सकते हैं। इस वर्ष हितैषीमें इस ओर आकर्षित करते हैं। आशा है, वे जैनतत्त्वोंके प्रतिपादक और जैनसिद्धान्तोंज़रूर इस बार ध्यान देंगे और उसे के रहस्यका उद्घाटन करनेवाले कुछ कार्यमें परिणत करनेका भरसक यत्न दूसरे महत्त्वके लेख भी निकालनेका हमारा करेंगे । जैनहितैषोको अपने ग्राहकोंके विचार है; और उसका प्रारम्भ इसी बढ़ानेकी इतनी चिन्ता नहीं हैं जितनी अंकसे, 'उपासना-तत्त्व' नामके लेख द्वारा चिन्ता अपने विचारोंकों फैलाकर किया गया है। आशा है, इन लेखोसे 'सद्विचारकोंके उत्पन्न करनेकी है। और जैन-अजैन सभीको यथार्थ वस्तुस्थितिके इसलिए, जो लोग स्थानीय सभा सोसा- समझने में बहुत कुछ सहायता मिलेगी। इटियोंमें जैनहितैषीको पढ़कर सुनावे, अन्तमें हम अपने सहदय पाठकोसे दूसरोंको उसके पढ़नेकी प्रेरणा करें, इतना और निवेदन कर देना ज़रूरी समउन्हें अपना अंक पढ़नेके लिए दें, जैन- झते हैं कि पिछले साल जैनहितैषीके हितैषीके सम्बन्धमें अपने सद्भाव प्रगट सम्पादन-कार्यमें उन्हें जो जो त्रुटियाँ करें, अपने इष्ट मित्रादिकोको उसका मालूम हुई हो अथवा जिन जिन गुणपरिचय करावे, असमर्थौके पास उसे दोषोंका अनुभव हुमा हो उन सबको वे अपनी ओरसे बिना मूल्य भिजवाएँ और कृपाकर हमारे पास.शीघ्र लिख भेजनेका इसी तरह उसके ख़ास ख़ास लेखों तथा कष्ट उठाएँ, जिससे हम उनपर विचार विचारोंको अलग पुस्तकाकार छपवाकर कर अपनी प्रवृत्तिमें यथोचित फेरफार उन्हें बिना मूल्य या अल्प मूल्यमें वित- कर सके।
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नये और अपूर्व ग्रन्थ । भारतके प्राचीन राजवंश ।
हिन्दों में इतिहासका एक अपूर्व ग्रन्थ इस देश में पहले जो अनेक वंशोंके बड़े बड़े प्रतापी, दानी और विद्याव्यवसनी राजा महाराजा हो गये हैं उनके सच्चे इतिहास हम लोग बिलकुल नहीं जानते । बहुतों के विषय में हमने तो झूठी, ऊटपटांग किम्बदन्तियाँ सुन रखी हैं और बहुतों को हम भूल ही गये हैं । इस ग्रन्थ में क्षत्रपवंश, हैहयवंश ( कलबुर) परमार वंश (जिसमें राजा भोज, मंज, सिन्धुल आदि हुए है), चौहानवंश (जिसमें प्रसिद्ध महाराज पृथ्वीराज हुए हैं), सेनवंश और पालवंश तथा इन वंशों की प्रायः सभी शाखाओंके राजाओंका सिलसिलेवार और सच्चा इतिहास प्रमाणसहित संग्रह किया गया है शिलालेखों, ताम्रपत्रों, प्रन्थ प्रशस्तियों, फारसी अरबी की तवारीख़ों तथा अन्य अनेक साधनोंसे बड़े परिश्रमपूर्वक यह ग्रन्थ रचा गया प्रत्येक इतिहासप्रेमीको इसकी एक एक प्रति मँगाकर रखनी चाहिए। इसमें अनेक जनविद्वानों तथा जैनधर्मप्रेमी राजाओंका भी उल्लेख है। लगभग ४०० पृष्ठों का कपड़े की जल्द सहित प्रन्थ है। मूल्य ३) २० अमेके भागोंने गुप्त, राष्ट्रकूट, आदि वंशों के इतिहास निकलेंगे ।
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नया सूचीपत्र |
उत्तमोत्तम हिन्दी पुस्तकोंका १२ पृष्ठों का नया सूचीपत्र छपकर तैयार है। पुस्तक प्रेमियों को इसकी एक एक कापी मँगाकर रखना चाहिये।
मैनेजर, हिन्दी-मन्थ-रत्नाकर कार्यालय,
हीराबाग, पो० गिरगाँव, बम्बई।
उत्तमोत्तम जैन ग्रन्थ
नीचे लिखी आलोचनात्मक पुस्तकें विचारशीलोंको अवश्य पढ़नी चाहिएँ साधारण बुद्धिके गतानुगतिक लोग इन्हें न मँगावें ।
१ प्रथपरीक्षा प्रथम भाग | इसमें कुन्दकुन्द । श्रावकाचार, उमास्वातिश्रावकाचार और जिनसेन त्रिवर्णाचार इन तीन ग्रन्थोंकी समालोचना है । अनेक प्रमाणोसे सिद्ध किया है कि वे असली जैनग्रन्थ नहीं हैं—मेषियों के बनाये हुए है
| मूल्य 17 )
२ ग्रंथपरीक्षा द्वितीय भाग । वह भद्रबाहु संहिता' नामक ग्रन्थकी विस्तृत समालोचना है। इसमें बत लाया है कि यह परमपूज्य भद्रबाहु केवलीका बनाया हुआ ग्रन्थ नहीं है, किन्तु ग्वालियर के किसी धूर्त भट्टारकने १६-१७वीं शताब्दिमें इस जाली ग्रन्थको उनके नामसे बनाया है और इसमें जैनधर्मसे विरुद्ध सैंकड़ों वाले लिखी गई है। इन दोनों पुस्तकों के लेखक श्रीयुक्त बाबू जुगुलकिशोरी मुस्तार हैं 1 मूल्य 1
३ दर्शनसार । आचार्य देवसेनका मूल प्राकृत ग्रन्थ संस्कृतच्छाया हिन्दी अनुवाद और विस्तृत विवेचन इतिहासका एक महत्त्वका ग्रन्थ है । इसमें श्वेताम्बर, याप नीय, काष्ठासंघ, माथुरसंघ, द्राविड़संघ, आजीवक (अज्ञानमत) और वैनेथिक आदि अनेक मतकी उत्पत्ति और उनका स्वरूप बतलाया गया है । बड़ी खोज और परिश्रम से इसकी रचना हुई है।
नकली और असली धर्मात्मा ।
श्रीयुत बाबू सूरजभानुजी वकीलका लिखा हुआ सर्व साधारणोपयोगी सरल उपन्यास । डोंगियों की बड़ी पोल खोली गई है। मूल्य II).
आत्मानुशासन ।
भगवान् गुणभद्राचार्य का बन या हुआ यह ग्रन्थ प्रत्येक जैनीके स्वाध्याय करने योग्य है। इसमें जैनधर्म के असली उद्देश्य शान्तिसुखकी ओर आकर्षित किया गया है। बहुत ही सुन्दर रचना है। आजकलको शुद्ध हिन्दीमें हमने न्यायतीर्थ न्यायणास्त्री पं० वंशीधरजी शास्त्री से इसकी टीका लिखवाई है और मूलसहित छपवाया है। जो जैनधर्म के जानने की इच्छा रखते हैं, उन अजैन मित्रोंको भेंट देने - योग्य भी यह ग्रन्थ है । मूल्य २)
युक्त्यनुशासन सटीक ।
माणिकचन्द्र जैन ग्रन्थमालाका १५वाँ ग्रन्थ छपकर तैयार हो गया। इसके मूलकर्ता भगवान् समन्तभद्र और संस्कृतटीका के कर्ता आचार्य 'विद्यानन्दि हैं । यह भी देवागमकी भाँति स्तुत्यात्मक है ओर युक्तियों का भागटार है। अभी तक यह ग्रन्थ दुर्लभ था । प्रत्येक भण्डार में इसकी एक एक प्रति अवश्य रहनी चाहिये । मूल्य III)
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________________ Reg. No. A. नियमसार। 4 क्षत्रचूड़ामणि, वादीभसिंहकृत / मू० 1) भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यका यह बिलकुल ही अप्रसिद्ध. 5 यशोधरचरित, वादिराजकृत / मू०॥) ग्रन्थ है। लोग इसका नाम भी नहीं जानते थे। बड़ी चरचा-समाधान / पं भूधर मिश्र कृत / भाषा मुश्किलसे प्राप्त करके यह छपाया गया है। नाटक समय- का नय ग्रन्थ / हालही में छपा है / मूल्य 2 / / ) सार आदिके समान ही इसका भी प्रचार होना चाहिए / ___ मैनेजर, जैनग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय, मूल प्राकृत, संस्कृतच्छाया, प्राचार्य पद्मप्रभमलधारि देवकी हाराबाग, बम्बई। संस्कृत टीका और श्रीयुत शीतलप्रसादजी ब्रह्मचारीकृत सरल भाषाटीकासहित यह छपाया गया है। अध्यात्मप्रेमियोंको अवश्य स्वाध्याय करना चाहिए / मूल्य 2) दो रु० / बम्बईका माल / नयचक्र संग्रह। बम्बईका सब तरहका माल-कपड़ा, किराना, स्टेशयह उक्त ग्रन्थमालाका १६वाँ ग्रन्थ है / इसमें देवसेन- नरी, पीतल, ताँबा, दवाइयाँ, तेल, सावुन आदि-- हमसे सरिकृत प्राकृत नयचक्र (संस्कृतच्छायासहित) और आला५ मँगाइए। भाल दस जगह जाँचकर बहुत सावधानी और पद्धति तथा माइल्ल धवलकृत द्रव्यस्वभावप्रकाश (छाया ईमानदारीके साथ भेजा जाता है। चौथाई रुपयेके लगभग सहित) ये तीन ग्रन्थ छपे हैं। भूमिका पड़ने योग्य है. पेशगी भेजना चाहिये / एक बार व्यवहार करको देखिये / तैयार हो गया / मूभ्य (14) नन्हेलाल हेमचन्द जैन, कमोशन एजेण्ट, पार्श्वपुराण भाषा। चन्दाबाड़ी, पो. गिरगाँव, बम्बई / कविवर भूधरदासजीका यह अपूर्व ग्रन्थ दूसरी का छपाया गया है। इसकी कविता बड़ी ही मनोहारिणी है। जरूरत / जैनियों के कथाग्रन्थों में इससे अच्छी और सुन्दर का। हमें 'जैनसिद्धान्तभवन' आराके लिये दो एक अच्छे आपको और कहीं न मिलेगी। विद्यार्थियों के लिये भी वहः / लेखकोंकी जरूरत है जो देवनागरी अक्षरों में सुन्दर, साफउपयोगी है। शास्त्रसभाओं में बाँचनेके योग्य है। बहु और शीघ्रताके साथ नकलका काम कर सकें। वेतन योरवसुन्दरतासे छपा है / मूल्य सिर्फ 1) रु० / तानुसार दिया जायगा; और वेतन न लेकर उजरत पर काम करनेवालोंको उजरत पर रक्खा जायगा। जो भाई - कथामें जैनसिद्धान्त। आना चाहें उन्हें अपनी योग्यता और लिखाईका परिचय एक मनोरंजक कथाकेद्वारा जैनधर्मकी गूढ़ कर्म-फिला ___ देते हुए हमसे शोघ्र पत्र व्यवहार करना चाहिये। साथ ही सफीको सरलतासे समझना हो और एक बढ़िया काव्यका गृह भी लिखना चाहिये कि वे कमसेकम किस वेतन पर आनन्द लेना हो तो आचार्य सिद्धर्षिके बनाये हुए 'उप - है और यदि उजरत पर काम करना चाहें तो मितिभवप्रपचाकथा, नामक संस्कृत ग्रन्थके हिन्दी उनकी लिखाईकी दर क्या होगी। अनुवादको अवश्य पढ़िये। अनुवादक श्रीयुत नथूराम जिन भाइयोको पं० सीतारामजी शास्त्री नामके प्रेमी। मूल्य प्रथम भागका ) और द्वितीय भागका / / लेखकका पता मालूम हो उन्हें कृपाकर हमें उससे सचित जैनसाहित्यमें अपने ढंगका यही एक ग्रन्थ है। करना चाहिये और उनतक भी यह समाचार पहुँचा देना संस्कृत ग्रन्थ / चाहिये। उन्होने पहले भी भवनमें काम किया है। 1 जीवन्धर चम्पू , कवि हरिचंद्रकृत / मू० 1 // निर्मलकुमार, 2 गद्यचिन्तामणि, वादीभसिंहकृत / मू०२) चक्रेश्वरकुमार, 3 जीवन्धरचरित, गुणभद्राचार्यकृत / मू०१) आरा। Printed & Published by G. K. Gurjar at Sri Lakshini Narayan Press, Jatanbar, Benares City, for the Proprietor Nathuram Premi of Bombay. For Personal & Private Use Only