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श्रीवर्द्धमानाय नमः।
भाग १५।
जैनहितैषी
अंक १, २. .
कार्तिक, अगहन सं०२४४७ । नवंबर, दिसंबर सन् १९२०
श्रावश्यक प्रार्थना। कई जरूरी कामों में फंसे रहनेके कारण हम हितैषीका यह युग्म अंक भी वी० पी० से न भेज.सके। इसे हम अपने सदाके प्रेमी और शुभचिन्तक ग्राहकोंकी सेवामें यही भेज रहे हैं। हमारी पिछले अंककी प्रार्थना पर ध्यान देकर बहुतसे ग्राहकोंने मनीआर्डरसे मूल्य भेज दिया है। जिन सज्जनोंने अभी तक नहीं भेजा हैं, उनसे बहुत ही नम्रतापूर्वक हमारो प्रार्थना है कि वे इस अंकको पाते ही नये वर्षका मूल्य मनीआर्डरसे भेज देनेकी कृपा करें। इससे उन्हें रजिस्टी खर्च के दो आनेका लाभ होगा और हम वी० पी० भेजनेकी बड़ी भारी झंझटसे बच जावेंगे।
पहले हमने वार्षिक मूल्य ३) तीन रुपया रखनेका निश्चय किया था, परन्तु अब इसका छपनेका इन्तजाम बनारसमें हो गया है जिससे काम कुछ किफायतसे होगा, इस कारण अब हम इस वर्षका मूल्य २॥) ही लेंगे। यह मूल्य ग्राहकों को कुछ भारी भी न पड़ेगा।
जो महाशय म० आ० न भेजेंगे, उन्हें आगामी तीसरा अंक २00) (मूल्य २॥), रजिस्टरी खर्च ) और म० आ. खर्च -)) के बी० पी० से भेजा जायगा। आशा है कि उसे वे सहर्ष स्वीकार कर लेंगे।
जो सजन इस वर्ष किसी कारणसे ग्राहक न रहना चाहें उन्हें कृपापूर्वक यह युग्म अंक तत्काल ही वापस कर देना चाहिए और एक कार्ड द्वारा हमें सचना दे देनी चाहिए।
जो सजन समझते हैं कि जैनहितैषी जैनसाहित्यकी और जैनसमाजकी शुद्ध अभिप्रायसे यथाशक्ति सेवा कर रहा है, वहीं इसके ग्राहक रहनेकी कृपा करें। जैनधर्मके ठेकेदारोंके आन्दोलनसे, जो इसके विपरीत समझते हैं, वे इसके कभी ग्राहक न रहें। हम अपने इस पापकार्य (१) में उनकी जरा भी सहायता नहीं चाहते।।
जैनहितैषीने अभीतक जो कुछ थोड़ी बहुत सेवा की है, उसकी ओर देखते हुए हमारा विश्वास है कि जैनहितैषीको शुभचिन्तकोंकी कमी न रहेगी और वह किसी भी विरुद्ध आन्दोलनको तर्जनी दिखलानेसे मुरझा जानेवाला कद्दूका फूल सिद्ध न होगा।
हमें अपने शुभचिन्तकोंसे यह आशा है कि इस वर्ष जैनहितैषीकी ग्राहक संख्या पहलेसे भी अधिक बढ़ जायगी। हमारे हितैषी ग्राहक इस बार बतला देंगे कि इसके हितशत्रु जितना जितना इसका विरोध करते हैं, उतना उतना इसका अधिक प्रचार होता है।
इस वर्ष पहलेसे भी अधिक महत्त्वपूर्ण और जैनधर्मकी असलियत पर अपूर्व प्रकाश डालनेवाले लेख प्रकाशित करनेका प्रबन्ध किया जा रहा है।
-प्रकाशक।
___ सम्पादक, बाबू जुगुलकिशोर मुख्तार ।
श्रीलक्ष्मीनारायण प्रेस, काशी,
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