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हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः । OKBOEKBOOOKBOXKBOXXOOXKCE
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RRRRRRRRRRRRAAAR पन्द्रहवाँ भाग। अंक १-२
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कार्तिक, अगहन २४४७ अक्टूबर, नवम्बर १९२०
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न हो पक्षपाती बतावे सुमार्ग, डरे ना किसीसे कहे सत्यवाणी । बने है विनोदी भले आशयोंसे, सभी जैनियोंका हितैषी 'हितैषी' ॥ उपासना-तत्त्व।
दशामें, यदि मूर्तिको एक खिलौना
समझ कर उसके लेनेके लिये हाथ पसा. ... हमारी धार्मिक शिक्षा 'उपासना से रता है, ज़िह करता है, उसे 'भाई' कह प्रारम्भ होती है। पूजा, भक्ति और पारा- कर पुकारता है, उसको चढ़ा हुश्रा नैवेद्य धना ये सब उपासनाके ही नामान्तर उठा कर खाने लगता है अथवा उसके हैं। यही धर्मकी पहली सीढ़ी है जिसका सामने पीठ देकर खड़ा हो जाता या बैठ हमें बचपनसे ही अभ्यास कराया जाता जाता है तो उसकी इस प्रकारकी बातोंका है। बच्चा बोलना भी प्रारम्भ नहीं करता निषेध किया जाता है और कुछ गम्भीर कि उसे जिनमन्दिर श्रादिमें ले जाकर, स्वरके साथ कहा जाता है कि "नही मूर्ति श्रादिके सामने उसके हाथ जुड़वा ख़बरदार ! ऐसा नहीं किया करते; ये कर तथा मस्तक नमवा कर उसे उपासना- भगवान् हैं, इनके आगे हाथ जोड़ो।" का एक पाठ पढ़ाया जाता है; और ज्यों साथ ही, उसे प्रतिदिन भगवान्के दर्शही वह कुछ बोलने लगता है त्यों ही उससे नादिकके लिये मन्दिरमें जाने और इष्ट देवताओंके नामोंका उच्चारण-ॐ, किसी स्तुति पाठादिकका उच्चारण करने'जय' आदि शब्दोंका उच्चारण-कराया की प्रेरणा भी की जाती है। इस तरह जाता है, 'णमो अरहंताणं', 'णमोत्थुणं' पर शुरूसे ही परमात्माकी पूजा, भक्ति,
आदिके पाठ सिखलाए जाते हैं और, उपासना और आराधनाके संस्कार जितना शीघ्र बन सके उतना शीघ्र हमारे अन्दर डाले जाते हैं। परन्तु यह परमात्माकी कुछ स्तुतियाँ भी उसे सब कुछ होते हुए भी, समाजमें, ऐसे याद कराई जाती हैं । बञ्चा, अपनी प्रज्ञान बहुत ही कम व्यक्ति निकलेंगे जो उपा
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