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जैनहितैषी।
[भाग १५ सनाके तत्त्वको अच्छी तरहसे जानते रण, इस विषयमें, प्रायः लोक-रीतिका
और समझते हों। उन्हें यह बात प्रायः (रूढ़ियोंका) अनुसरण करनेवाला, सिखलाई ही नहीं जाती । अधिकांश एक दूसरेकी देखादेखी और ज़्यादातर माता-पिता स्वयं इस तत्त्वसे अनभिज्ञ लौकिक प्रयोजनोंको लिये हुए होता है। होते हैं-वे खुद ही अपनी क्रियाओंका उपास्य और उपासनाके स्वरूपपर उनकी रहस्य नहीं जानते अथवा कुछका कुछ दृष्टि ही नहीं होती और न वे उपासनाके जानते हैं और इसलिये उनकी समझ- विधिविधानोंमें कभी कोई भेद उपस्थित में जो बात जिस तरह पर कुलपरम्परा- होने पर सहजमें उसका आपसी (पारसे चली आती है उसे वे अपने बच्चोंके स्परिक) समझौता कर सकते हैं। उन्हें गले उतार देते हैं उन्हें रटा देते अथवा अपनी चिरप्रवृत्तिके विरुद्ध जरासा भी सिखला देते हैं। इससे अधिक शायद भेद असह्य हो उठता है और उसके वे अपना और कुछ कर्तव्य नहीं समझते। कारण वे अपने भाइयोसे ही लड़ने मरने. नतीजा इसका यह होता है कि हमारे तकको तैयार हो जाते हैं। ऐसे स्त्रीपुरुषोंअधिकांश भाई नित्य मन्दिरमें ज़रूर के द्वारा समाजमें सूखा क्रियाकांड बढ़ जाते हैं, भगवान्का दर्शन और पूजन जाता है, यान्त्रिक चारित्रकी-जड करते हैं, उन्हें कुछ भेट भी चढ़ाते हैं, मशीनों जैसे आचरणकी-वृद्धि हो जाती भगवान्के नामकी माला फेरते हैं, स्तुतियाँ है और भावशून्य क्रियाएँ फैल जाती हैं। पढ़ते हैं, संस्कृत प्राकृतके भी अनेक ऐसी हालतमें उपासना उपासना नहीं स्तोत्रोंका पाठ किया करते हैं, तीर्थयात्रा. रहती और न भक्तिको भक्ति ही कह को निकलते हैं, और और भी भक्ति सकते हैं। ऐसी प्राणरहित उपासनासे तथा उपासनाके नाम पर, बहुतसे काम यथेष्ट फलकी कुछ भी प्राप्ति नहीं हो तथा विधि-विधान करते हुए देखे जाते सकती । श्रीकुमुदचन्द्राचार्यने अपने हैं; परन्तु उन्हें प्रायः यह ख़बर नहीं 'कल्याणमन्दिर' स्तोत्रमें ठीक लिखा हैहोती कि यह सब कुछ क्यों किया जाता आकर्णितोऽपि माहितोऽपि निरीक्षितोऽपि, है, किसके लिये किया जाता है, क्या नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या । ज़रूरत है, इसका मूल उद्देश्य क्या है,
जातोऽस्मि तेन जगबान्धव दु:खपात्रं, हमारी इन क्रियाओंसे वह उद्देश्य पूरा
यस्मात् क्रियाः प्रतिफलंति न भावशून्याः ॥ होता है या नहीं और यदि नहीं होता तो हमें फिर किस प्रकारसे बर्तना अर्थात्-हे जगद्वान्धव जिनेन्द्रदेव ! चाहिये, इत्यादि । हाँ, वे इतना जरूर जन्मजन्मान्तरोंमें मैंने आपका चरित्र जानते हैं कि ये सब धर्मके काम हैं, सुना है, पूजन किया है और दर्शन भी पहलेसे होते आये हैं और इनके द्वारा किया है; यह सब कुछ किया, परन्तु पुण्योपार्जन किया जाता है। परन्तु धर्मके भक्तिपूर्वकाकभी आपको अपने हृदयमे काम क्योंकर हैं, किस तरह होते आए हैं धारण नहीं किया । नतीजा जिसका
और इनके द्वारा कैसे पुण्यका उपार्जन जिनेन्द्र भगवान्को भक्तिपूर्वक हृदयमें धारण करनेकिया
से जीवोंके दृढ़ कर्मबन्धन इस प्रकार ढीले पड़ जाते हैं नहीं होती और न वे जाँचकी कुछ ज़रू- जिस प्रकार कि चन्दनके वृक्ष पर मोरके आनेसे उस वृक्षको रतही समझते हैं। उनका संपूर्ण आच- लिपटे हुए साँप । अर्थात् मोरके सामीप्यसे जैसे सर्प घबराते
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