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________________ ४२ 1 प्रकारकी भली बुरी अवस्थाका होना मानते हैं । परन्तु शोक है कि वे अपनी मान्यता पर दृढ़ता के साथ कायम नहीं रहते । वे श्रागे चलकर स्वयं यह कहने लगते हैं कि जीवोंके इस जन्मकी अवस्था उनके पिछले कर्मोंका फल नहीं है तो भी इस जन्म में वे जैसा कर्म करेंगे, आगामी जन्ममें उनको उसका वैसा फल अवश्य भोगना पड़ेगा । अर्थात्, इन जीवोंका दूसरा जन्म बनाते समय ईश्वर अपनी स्वच्छन्द इच्छाके अनुसार नहीं प्रवर्तेगा; किन्तु इन जीवोंके इस जन्म के कर्मानुसार ही उनको सुखी दुखो बनावेगा; और वह आगामी जन्म ऐसा विलक्षण होगा जो अनन्तानन्त काल तक एक ही समान रहेगा; अर्थात् उस दूसरे जन्मके पश्चात् फिर कोई जन्म ही न हो सकेगा। भावार्थ यह कि, न तो उस दूसरे जन्मका कोई अन्त ही होगा और न उस दूसरे जन्मके कमका कभी कोई फल ही मिलेगा; वहाँ तो उनको सदाके लिये एक ही अवस्था में पड़ा रहना होगा । जैनहितैषी । पाठक यह बात भली भाँति जानते हैं कि अपराधीको जो दंड दिया जाता है वह इसी कारण दिया जाता है कि जिससे फिर वह ऐसा अपराध न करे और अन्य मनुष्यों को भी वैसा अपराध करनेका हौसला न हो। और प्रशंसनीय कार्य करनेवालेको जो इनाम दिया जाता है वह भी इसी वास्ते दिया जाता है जिससे उसका उत्साह बढ़े और श्रागेको वह ऐसे प्रशंसनीय कार्य करता रहे। साथ ही दूसरों को भी ऐसे ही ऐसे कार्य करनेकी प्रेरणा होती रहे । परन्तु मुसलमान और ईसाई मतके अनुसार यदि जीवोंको आगामी जन्ममें अर्थात् स्वर्ग वा नरकमें सदाके लिये सुखी वा दुःखी रूप एक ही अवस्थामें रहना होगा तो वह किसी प्रकार भी दंड Jain Education International [ भाग १५ या इनाम नहीं माना जा सकता; क्योंकि दंड भुगतनेके बाद उसे ऐसा कोई अवसर नहीं दिया जायगा जिससे वह दंडसे भय खाकर श्रागेको बुरे कामोंसे बचने लग जाय और सीधी चाल चलकर दिखावे, किन्तु उसको तो अनन्तानन्त काल तक दंड ही भुगतना पड़ेगा और नरकमें ही पड़ा रहना होगा । इसी तरह इनाम पानेवालोंको भी ऐसा कोई अवसर नहीं मिलेगा जिसमें वे और भी अधिक अधिक प्रशंसनीय काम करके दिखावें; किन्तु उनको भी अनन्तानन्त काल तक इनाम ही भोगना होगा और स्वर्गमें ही रहना होगा । इसलिये मुसलमान और ईसाई मतका दंड विधान तथा कर्मफल सिद्धान्त भी ऐसा ही विलक्षण है जैसा कि पहले जन्मके कर्मोंके बगैर ही इस जन्मकी नानारूप अवस्थाका पाना । मालूम नहीं इन दोनों मतोंमें जीवोंके इस जन्मकी नाना रूप अवस्थाके वास्ते ईश्वर की स्वच्छन्द इच्छा और स्वतन्त्र अधिकार को वर्णन करके आगामी जन्मके वास्ते क्यों उसकी इस स्वच्छन्दता और स्वतंत्रताको छीन लिया है, क्यों जीवोंके इस जन्मके कर्मोंके अधीनं ही प्रवर्तनेके लिये उसे बाध्य कर दिया है और क्यों ऐसा अद्भुत सिद्धान्त बना दिया है जिसमें न तो ईश्वरकी स्वच्छन्द इच्छा ही रही और न दंडका ही विधान कायम रह सका । बल्कि एक बिल्कुल बेतुकी सी बात बन कर कहींकी ईंट कहीं का रोड़ावाली कहावत चरितार्थ हो गई । इसके सिवाय इनके इस कथनमें सबसे बड़ी आपत्ति यह श्राती है कि जब कि ईश्वरने जीवोंके कर्मोंके बगैर ही अपनी स्वच्छन्द इच्छासे उन्हें बुद्धिमान् या कुबुद्धि, धनवान् या दरिद्र, रोगी या निरोगी श्रादि नाना रूप बनाया है और For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522885
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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