________________
श्रङ्क १-२] जैनधर्मका महत्त्व। .
४३ किसीको ठगोंके यहाँ पैदा करके ठगीकी हमारे ख़यालमें हिन्दुओं तथा जैनियोंविद्या सिखाई, किसीको महामिथ्यावादी का सिद्धान्त ही इस विषयमें ठीक लागू और अधर्मी काफिरोके यहाँ जन्म देकर होता है जोकि यह सभाता है कि जन्मसे अधर्मकी शिक्षा दिलाई, किसीको धर्म ही जीवोंकी जो नाना रूप अवस्थाएँ देखी की तरफ लगनेका और किसीको अधर्म- जाती हैं वे स्पष्ट तौर पर उनके पूर्व जन्मकी तरफ झुकनेका अवसर दिया और का ही नतीजा हैं । कारणसे कार्यकी इस तरह प्रत्येक जीवके वास्ते भिन्न भिन्न उत्पत्तिका होना और भिन्न भिन्न कार्यों के रुपका सामान उपस्थित किया। तब यह कारण भी भिन्न भिन्न होना ये ऐसे अटल कैसे हो सकता है कि उन सबके कर्मोको सिद्धान्त हैं जो सभीको मानने पड़ते हैं। एक ही तराजूसे तौला जाय और एक ही इसलिये जन्मसे ही जीवोंकी भिन्न भिन्न कानूनसे उनका न्याय किया जाय । ऐसी अवस्थाका होना इस बातका स्पष्ट प्रमाण दशामें तो प्रत्येक जीवके वास्ते उसकी है कि इस जन्मसे पहले भी उनका अवस्था, योग्यता, शक्ति और परिस्थिति अस्तित्व अवश्य था जहाँसे उनके साथ आदिके अनुसार ही अलग अलग कानून ऐसे भिन्न भिन्न कारण लग गये हैं जिनसे बनाना चाहिए था और सब ही जीवोंको इस जन्ममें उनकी विभिन्न अवस्थाएँ हो उनका अलग अलग कानून सिखाया जाना गई हैं । अर्थात् इससे पहले जन्म में उन्होंने चाहिए था। परन्तु हो रहा है यह कि . भिन्न भिन्न रूपसे कर्म किये हैं जिनके एक ही धर्मपुस्तक सभी अवस्थाके जीवोंके फल-स्वरूप ही इस जन्ममें उनकी भिन्न वास्ते कानून स्वरूप बताई जाती है और भिन्न रूप अवस्थाएँ हुई हैं और उस पहले उसके वास्ते भी ईश्वरका कोई ऐसा जन्ममें भी उनकी भिन्न भिन्न रूप अवस्था प्रबन्ध नहीं दिखाई पड़ता जिससे उस रही होगी जिसके कारण वे भिन्न भिन्न एक ही कानूनकी भी सब आज्ञाएँ सबको प्रकारके कर्म कर सके होंगे। इसी तरह मालूम हो जायँ। किन्तु इस विषयमें और उनके पहले जन्मकी विभिन्न अवस्था भी ऐसा भारी अंधेर नज़र आता है कि उनके उससे पहले जन्मके कर्मोका फल संसारके बहुतसे मनुष्योंको तो इन धर्म- होगी; और इससे यही सिद्ध होता है कि पुस्तकोंका नाम भी मालूम नहीं होता; संसारके जीव जन्मजन्मान्तरसे अपने चुनाँचे गाँवके अनपढ़ हिन्दुओं और उन- अपने कर्मों के अनुसार ही भिन्न भिन्न की स्त्रियोंसे पूछनेसे यह बात आसानीसे अवस्था धारण करते चले आते हैं और जानी जा सकती है कि उनमेंसे बहुतोंने आगेको भी अपने कर्मों के अनुसार ही मुसलमानों और ईसाइयोंकी धर्म-पुस्तक- भिन्न भिन्न अवस्थारूप अनेक जन्म धारण का नाम तक नहीं सुना। तब उनके करते रहेंगे। सिद्धान्तों और आशाओंको तो वे कैसे हिन्दुओं और जैनियों का यह सिद्धान्त जान सकते हैं। ऐसी अवस्थामें यह कहनम ऐसा सीधा सादा और न्यायसङ्गत है कि कि उनको उनके कर्मानुसार दंड या इसमें कोई आपत्ति ही नहीं आती और इनाम दिया जायगा और सदाके लिये सभीको उत्तम कर्म करनेकी प्रेरणा हो नरक या स्वर्गमें डाल दिया जायगा, जाती है । इसके विपरीत, जीवोंके कर्मोंनिरी धींगा-धींगी और ज़बरदस्ती नहीं के बगैर अपनी स्वच्छन्द इच्छाके अनुतो क्या है?
सार ही उनको नानारूप सुखी दुखी
Jain Education International
. For Personal &Private Use Only
www.jainelibrary.org