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________________ जैनहितैषी। [भाग १५ यही उसकी उत्कृष्ट महिमा है कि उसमें हमारे हृदयमें प्रवेश कर जाय और हमें किंचित् मात्र भी पूर्वापर विरोध नहीं भी वैराग्य मार्ग पर चलनेकी प्रेरणा हो है। उसने जिस परम वैराग्यको धर्मका जाय। इसीसे जैनधर्म में अपने परमात्माकी उद्देश्य बताया है उसीको अव्वलसे मूर्ति भी परम वैराग्यरूप ही बताते हैं आखिर तक निबाहा है । उसीको और उसके दर्शनोंसे प्रायः वैराग्यका अपने परम पूज्य परमात्माका स्वरूप ही लाभ उठाना चाहते हैं। जैनधर्मके बताया है और वही एक मार्ग गृहस्थीको साधु सब प्रकार के परिग्रहोंसे रहित भी सिखाया है। जैनधर्ममें ऐसा नहीं है होते हैं और लँगोटीतक भी रखने नहीं कि साधुका मार्ग तो पूर्वको जाता हो पाते। वे आत्मध्यानमें लीन होकर देहऔर गृहस्थका पश्चिमको, साधुको तो से भी ममत्व त्याग देते हैं, यहाँतक कि वैराग्य सिखाया जाता हो और गृहस्थ- यदि कोई दुष्ट उनके शरीरको किसी को संसारके पकड़नेका पाठ पढ़ाया प्रकारकी पीड़ा पहुँचावे, काटे, छेदे, के, जाता हो, पूजकका धर्म तो वैराग्य ठह- जलावे तो भी वे कुछ पर्वाह नहीं करते राया जाता हो और पूज्यको महासंसारी और न अपने ध्यानसे डिगते हैं। ऐसी बताया जाता हो; दयाधर्मकी डींग मारी ही ध्यानारूढ़ परम वैराग्य अवस्थाकी जाती हो और साथ ही हिंसाके द्वारा नग्न दिगम्बर मूर्ति जैनी लोग बनाते हैं अपने पूज्य देवताओं तथा परमपिता पर- और उसके दर्शनोसे वैराग्यकी प्रेरणा मात्माका प्रसन्न होना माना जाता हो। अपने हृदयमें लाते हैं। ये सब पातें जैनधर्मकी प्रकृतिके विरुद्ध संसारके प्रायः सभी मनुष्योंका ऐसा हैं। जैनधर्म तो साफ और सीधा वैराग्य- कायदा है कि जिसको जो पसन्द होता धर्म है। धर्मका पक्ष मात्र करनेवाले सबसे है और जो स्वयं जैसा होना चाहता है, घटिया जैनी (पाक्षिक श्रावक) से वह वैसे ही मनुष्योंकी प्रशंसा अपने मुखलेकर सबसे ऊँचे दर्जेके साधु-संन्या- से किया करता है, उनकी जीवनी पढ़ा सियोतकको वह वैराग्यका ही पाठ पढ़ाता तथा सुना करता है, उन्हींके गुणानुवाद है और उनकी अवस्था तथा शक्तिके योग्य गा गाकर अपने जीको खुश किया करता थोड़ा थोड़ा वैराग्य सिखाकर उनको है और उन्हीं की मूर्तियोंसे अपने घरको ऊँचे चढ़ाता है, यहाँतक कि अन्तमें राग सजाता है। इसीलिये पोलिटिकल आन्दोद्वषसे सर्वथा रहित हो जाने पर उनको लनमें रुचि रखनेवाले मनुष्य लोकमान्य ही परमात्मा ठहराता है और उनके राग- तिलक, महात्मा गान्धी, और लाला द्वेषरहित होनेके कारण ही उन्हें पूज्य लाजपतराय आदि पोलिटिकल लीडरोंकी बताता है। मृतियां अपने कमरेमें लगाते है: युद्धके जैनधर्मकी स्तुति, भक्ति, पूजापाठ, इच्छुक बड़े बड़े योद्धाओंकी मूर्तियाँ जप करना और नाम लेना आदि सब खरीदकर लाते हैं और विषयी पुरुष ही धर्मक्रियायें इसी एक सिद्धान्त पर अपने कमरों में सुन्दर सुन्दर वेश्याओंकी अवलम्बित रहती हैं और उनका लक्ष्य मूर्तियाँ (चित्र) लटकाते हैं और नित्य यही होता है कि परम वैरागी महान् उन मूर्तियोंको देख देखकर वैसा ही भाव श्रात्माओंके गुणगान, पूजा, भक्ति और अपने हृदयमें पैदा किया करते हैं । इसी स्मरणसे उनका वह वैराग्यरूपी गुण प्रकार वैराग्यके इच्छुक भी परम वैराग्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522885
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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