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________________ अङ्क १-२ ] जैनधर्मका महत्त्व। सकता है और परम वैराग्यको प्राप्त कर बनाकर और उनके अनन्तानन्त रूप सकता है। दिखाकर इस संसारचक्रको चलाता है; __ यद्यपि संसारके सभी धर्मों में वैराग्य- वही क्षण क्षण में लाखों और करोड़ो जीवोंको परम पूज्य माना है परन्तु यह महत्त्व को मृत्युका ग्रास बनाता है और लाखों जैनधर्मको ही प्राप्त है कि वह गृहस्थोके करोड़ोंको नवीन जीवन धारण कराता है, सब प्रकारके धर्मसाधनको भी वैराग्य- वही किसीको सुखी और किसीको दुःखी प्राप्तिके उद्देश्यसे अंकित करता है और बनाता है, हैज़ा, प्लेग और महामारी आदि ऐसे ऐसे नियम बताता है जो उसको फैलाकर महा हाहाकार मचवाता है, वैराग्यके ही मार्ग पर ले जायँ और वैराग्य लाखों और करोड़ों प्रकारके पौधे उगाता ही की प्राप्तिका उत्साह बढ़ावें । वह है, तरह तरह के फल फूल लगाता है और गृहस्थोंके सब प्रकारके जप, तप, पूजा, फिर नाश करके उनको मिट्टीमें मिला पाठ, नियम, धर्म, शील, संयम और दूसरी देता है; वही कहीं परवा और कहीं पछवा अनेक धर्म-क्रियाओंको वैराग्यमार्गकी ही हवा चलाता है, आकाशके अनन्तानन्त प्राप्तिका हेतु बनाता है और ऐसी रीति- तारोंको भिन्न भिन्न प्रकारकीचाल चलाकर से उनका साधन सिखाता है जिससे कहीं अँधेरा और कहीं चाँदनी कराता है, साधकके चित्तकी वृत्ति वैराग्यकी ही कहीं अधिक पानी बरसाकर गाँवके गाँव तरफ़ जाय और उसीके अभ्यासमें लगे। बहाता है और कहीं एक भी बूंद न बरसाजैनधर्म अपने परमात्माका स्वरूप भी कर त्राहि त्राहि कराता है। गरज़, परपरम वैरामी बताता है और परम वैरागी मेश्वरको इतने भारी बखेड़े में फँसा हुआ होने के कारण उसको पूज्य ठहराता है, बतलाते हैं कि संसारके सब जीव मिल. अर्थात् जैनधर्म परमात्माके परम वैराग्य कर भी इतने भारी बखेड़े में फंसे हुए न रूप गुणोंको ही पूज्य बताता है और पर- होंगे। जैनधर्मके सिवाय, संसार के अन्य मात्माके पूजने की प्रायः यही एक ग़रज़ सभी धर्मों में यह पूर्वापर विरोध और सिखाता है कि उनके पूजनेसे हमारे हृदय- आश्चर्यकी बात देखनेमें आती है कि में भी वैराग्यकी भावना उत्पन्न हो और संसारके सब जीवोंको वे इन सब बखेड़ोंउत्साहित होकर हम भी वैराग्यकी प्राप्ति- को त्यागकर एक ईश्वरमें ही लौ लगानेके मार्ग पर लगें, और संसारके मोह- का उपदेश देते हैं, परन्तु जब उस ईश्वरकी जालको तोड़कर उसके फंदेसे निकल स्तुति सुनाते हैं और उसके गुण गाते हैं भागनेका उपाय करें। तब प्रशंसारूपसे संसारके ये सब बखेड़े __ संसारके अन्य सभी धर्म, यद्यपि उसीके सिर मढ़ देते हैं और उसको महामनष्यके वास्ते इस संसारको मायाजाल दीर्घ संसारी बताकर ही कृतकृत्य होते और दुःखदायी बताकर उसके त्यागनेका हैं। ऐसे पूर्वापर विरोधकी हालतमें हम उपदेश देते हैं और एकमात्र परमेश्वरसे नहीं समझते कि किस प्रकार ये संसारी ही लौ लगानेकी आज्ञा देते हैं । परन्तु जीव परम संसारी ईश्वर से लौ लगाकर इसके विपरीत उस परमेश्वरका ऐसा संसारसे मुँह मोड़ सकते हैं और परम ही स्वरूप बताने लग जाते हैं कि वही वैराग्य धारण कर सकते हैं। . इस संसाररूपी मायाजालको रचता है; संसारके अन्य सब धर्मोकी अपेक्षा घही संसारकी अनन्तानन्त वस्तुओको जैनधर्ममें यही एक खास खूबी है और सायको Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522885
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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