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________________ अमाहितची। [भाग १५ इनमेंसे पहले पद्यका प्राशय पहले में इनका जिंकर है और इनकी बहुत ही लिखा जा चुका है। उससे यह स्पष्ट प्रशंसा की गई है। लिखा है-- होता है कि गुणनन्दिके शब्दावके लिए तत्र सर्वशरिरक्षाकृतमतिर्विजितेन्द्रियः । यह प्रक्रिया नावके समान है। और दूसरे सिद्धशासनवर्द्धनप्रतिलब्धकीर्तिकालापकः ॥२२॥ पद्यमें कहा है कि सिंहके समान गुणनन्दि विभुतश्रुतकीर्तिमष्टारकयतिस्समजायत । पृथ्वी पर सदा जयवन्त रहें। न मालूम प्रस्फरद्वचनामृतांशुविनाशिताखिलहत्तमाः॥२३॥ इन पोसे इस प्रक्रियाका कर्तृत्व गुण- प्रक्रियाके कर्ताने इन्हें भट्टारकोत्तंस मन्दिको कैसे प्राप्त होता है। यदि इसके पी और श्रुतकीर्तिदेवयतिप लिखा है और कर्ता स्वयं गुणनन्दि होते तो वे स्वयं ही इस लेखमें भी भट्टारकयति लिखा है। अपने लिए यह कैसे कहते कि वे गुण अतः ये दोनों एकमालूम होते हैं । आश्चर्य नान्द सदा जयवन्त रह। इससता साफ नहीं जो इनके पुत्र और शिष्य चारुकीर्ति प्रकट होता है कि गुणनन्दि ग्रन्थकर्तासे पण्डिताचार्य ही इस प्रक्रियाके कर्ता हो। कोई पृथक् ही व्यक्ति है जिसे वह श्रद्धास्पद समझता है। अर्थात् यह निस्सन्देह समय-निर्णय ।। है कि इसके कर्ता गुणनन्दिके अतिरिक्त १--शाकटायन व्याकरण और उसकी कोई दूसरे ही हैं। अमोघवृत्ति नामकी टीका दोनों हीके * तीसरे पद्य भट्टारकशिरोमणि श्रुत ‘कर्ता शाकटायन नामके प्राचार्य हैं, इस कीर्ति देवकी प्रशंसा करता हुआ कवि बातको प्रो० के. वी. पाठकने अनेक कहता है कि वे मेरे मनरूप मानससरो प्रमाण देकर सिद्ध किया है। और उन्होंने परमें राजहंसके समान चिरकाल तक यह भी बतलाया है कि अमोघवृत्ति राष्ट्रविराजमान रहें। इसमें भी ग्रन्थकर्ता कूट राजा अमोघवर्षके समयमें उसीके अपना नाम प्रकट नहीं करते हैं। परन्तु " नामसे बनाई गई है। इससे यह सिद्ध अनुमानसे ऐसा जान पड़ता है कि वे हाता है कि शाकटायन व्याकरण ( सूत्र) श्रुतिकीर्तिदेवके कोई शिष्य होगे और अमोघवर्षके समयमें अथवा उससे कुछ संभवतः उन श्रुतिकीर्तिके नहीं जो पंच- पहले बनाया गया होगा। अमोघवर्षने वस्तुके कर्ता हैं । ये श्रुतिकीर्ति पंचवस्तुके शक संवत् ७३७ से ८०० तक (वि० सं० कर्तासे पृथक् जान पड़ते हैं। क्योंकि उन्हें ८७२ से ६३५ तक) राज्य किया है। अतः प्रक्रिया कर्ताने 'कविपतिः बतलाया हैयदि हम शाकटायन सूत्रोके बननेका व्याकरणश नहीं। ये वे ही श्रतकीर्ति समय वि० सं० ८५० के लगभग मान लें. मालम होते है जिनका समय प्रोपाठक- तो वह वास्तविकताके निकट ही रहेगा। मे शक संवत् १०४५ या वि० सं० ११० : शाकटायन व्याकरणको बारीकीके बतलाया है। श्रवणवेल्गोलके जैन गुरुप्रो- साथ देखनेसे मालूम होता है कि वह ने 'चारुकीर्ति पंडिताचार्य का पद शक जैनेन्द्रसे पीछेका बना हुआ है। क्योंकि संवत् १०३६ के बाद धारण किया है और उसके अनेक सूत्र जैनेन्द्रका अनुकरण पहले चारुकीर्ति इन्हीं श्रुतकीर्तिके पत्र करके रचे गये हैं। उदाहरणके लिए थे। श्रवणवेल्गोलके १० वें शिलालेख देखो, जैनसिद्धान्तभास्कर, किरण २-३, पृष्ठ ११८ । •देखो 'सिस्टम्स भाफ संस्कृत ग्रामर' पृष्ठ ६७। +देखो, इंडियन एण्टिक्वेरी, जिल्द ४३, पृष्ठ २०५+देखो मेरा लिखा 'कर्नाटक जैन कवि' पृष्ठ २०। १२ में प्रो० पाठकका लेख। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522885
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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