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________________ ... जैनहितैषी। [भाग १५ N निर्मलता और उनके उत्कर्षसाधन पर भटकते हैं, अनेक रागी द्वेषी देवताओंकी तौरसे ध्यान रखना चाहिये और शरणमें प्राप्त होकर उनकी तरह तरहकी वह तभी बन सकता है जब कि परमात्मा- उपासना किया करते हैं और इस तरह की उपासना उपासनाके ठीक उद्देश्यको पर अपने जैनत्वको भी कलंकित करके समझकर की जाय और उसमें प्रायः जैनशासनकी अप्रभावनाके कारण बन लौकिक प्रयोजनों पर दृष्टि न रक्खी जाय। जाते हैं। जो लोग केवल लौकिक प्रयोजनोंकी दृष्टि- ऐसी कच्ची प्रकृति और ढीली श्रद्धाके से-सांसारिक विषयकषायोंको पुष्ट मनुष्योंकी दशा, निःसन्देह, बड़ी ही करनेकी ग़रज़से-परमात्माकी उपासना करुणाजनक होती है ! ऐसे लोगोंको ख़ास करते हैं, उसके नाम पर तरह तरहकी तौरसे उपासना-तत्त्वको जानने और समबोल-कबूलत बोलते हैं और फलप्राप्तिकी भनेकी ज़रूरत है। उन्हें ऊपरके इस शर्त पर पूजा-उपासनाका वचन निकालते सम्पूर्ण कथनसे खूब समझ लेना चाहिये हैं उनके सम्बन्धमें यह नहीं कहा जा कि, जैनदृष्टिसे परमात्माकी पूजा, भक्ति सकता कि वे परमात्माके गुणोंमें वास्त. और उपासना परमात्माकोप्रसन्न करनेविक अनुराग रखते हैं, बल्कि यदि यह खुशामद द्वारा उससे कुछ काम निका. कहा जाय कि वे परमात्माके स्वरूपसे ही लनेके लिये नहीं होती और न सांसारिक अनभिज्ञ हैं तो शायद कुछ ज्यादा अनु- विषयकषायोंका पुष्ट करना ही उसके चित न होगा । ऐसे लोगोंकी इस प्रवृत्ति- द्वारा अभीष्ट होता है। बल्कि, वह ख़ास से कभी कभी बड़ी हानि होती है। वे तौरसे परमात्माके उपकारका स्मरण सांसारिक किसी फलविशिष्टकी श्राशा- करने और परमात्माके गुणोंकी-आत्मसे-उसकी प्राप्तिके लिये-परमात्माकी स्वरूपकी-प्राप्तिके उद्देश्यसे की जाती पूजा करते हैं; परन्तु फलकी प्राप्ति अपने . है। परमात्माका भजन और चिन्तवन अधीन नहीं होती, वह कर्म-प्रकृतियों के करनेसे-उसके गुणों में अनुराग बढ़ानेसे उलट-फेरके अधीन है। दैवयोगसे यदि पापोंसे निवृत्ति होती है और साथ ही कर्म-प्रकृतियोंका उलट-फेर, योग्य भावोंको महत्पुण्योपार्जन भी होता है, जोकि स्वतः न पाकर, अपने अनुकूल नहीं होता और अनेक लौकिक प्रयोजनोंका साधक है। इसलिये अभीष्ट फलकी सिद्धिको अव- इसलिये जो लोग परमात्माकी पूजा, सर नहीं मिलता तो ऐसे लोगोंकी श्रद्धा भक्ति और उपासना नहीं करते वे अपने डगमगा जाती है अथवा यो कहिये कि आत्मीय गुणोंसे पराङ्मुख और अपने उस वृक्षकी तरह उखड़ जाती है जिसका प्रात्मलाभसे वंचित रहते हैं, इतना ही कुछ भी गहरा मूल नहीं होता । उन्हें यह नहीं, किन्तु कृतघ्नताके महान् दोषसे भी तो खबर नहीं पड़ती कि हमारी उपासना दूषित होते हैं। अतः ठीक उद्देश्यों के साथ भावशन्य थी, उसमें प्राण नहीं था और परमात्माकी पूजा, भक्ति, उपासना और इसलिये हमें सची उपासना करनी श्राराधना करनासबके लिये उपादेय और चाहिये; उलटावे परमात्माकी पूजो-भक्तिमें ज़रूरी है। हतोत्साह होकर उससे उपेक्षित हो बैठते हमारा विचार अभी इस विषय पर हैं। साथ ही, अपनी अभीष्ट सिद्धि के बहुत कुछ प्रकाश डालनेका है परन्तु इस लिये दूसरे देवी-देवताओंकी तलाशमें समय लेख अधिक बढ़ जानेके भयसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522885
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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