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________________ अङ्क १-२] उपासना-तत्व। न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे, प्रकृतियोंमें रस बढ़नेसे अन्तराय कर्म न निन्दया नाथ विवान्तवेरे।। नामकी प्रकृति, जोकि एक मूल पाप तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः, प्रकृति है और हमारे दान, लाभ, भागोप भोग आदिको विघ्नस्वरूप रहा करती पुनात चित्तं दुरितां जनेभ्यः॥ है-उन्हें होने नहीं देती-वह भग्नरस -बृहत्स्वयमुस्तात्र। होकर निर्बल पड़ जाती है और हमारे इसमें स्वामी समन्तभद्र, परमात्माको इष्टको बाधा पहुँचानेमें समर्थ नहीं रहती। लक्ष्य करके उनके प्रति, अपना यह श्राशय तब, हमारे बहुतसे लौकिक प्रयोजन सिद्ध व्यक्त करते हैं कि "हे भगवन्, पूजा भक्ति- हो जाते हैं और उनका श्रेय उक्त उपासनासे आपका कोई प्रयोजन नहीं है, क्योंकि को ही प्राप्त होता है। जैसा कि एक आप वीतरागी हैं-रागका अंश भी प्राचार्य महोदयके निम्नवाक्यसे प्रकट है:आपके आत्मामें विद्यमान नहीं है जिसके । नेष्टं विहन्तुं शुभभावभग्नकारण किसीकी पूजा भक्तिसे आप प्रसन्न ___ • रसप्रकर्षः प्रभुरंतरायः । होते। इसी तरह निन्दासे भी आपका तत्कामचारेण गुणानुरागाकोई प्रयोजन नहीं है-कोई कितना ही आपको बुरा कहे, गालियाँ दे, परन्तु उस न्नुत्यादिरिष्टार्थकदाऽहंदादेः ॥ पर आपको ज़रा भी क्षोभ नहीं पा सकता; ऐसी हालतमें यह कहना कि परक्योंकि आपके आत्मासे बैरभाव, द्वेषांश, मात्माकी सच्ची पूजा, भक्ति औप उपाबिलकल निकल गया है-वह उसमें सनासे क प्रयोजनोंकी भी विद्यमान ही नहीं है जिससे क्षोभ तथा सिद्धि होती है, कुछ भी अनुचित न अप्रसन्नतादि कार्योंका उद्भव हो सकता। होगा। यह ठीक है कि, परमात्मा स्वयं ऐसी हालतमें निन्दो और स्तुति दोनों अपनी इच्छापूर्वक किसीको कुछ देता ही आपके लिये समान हैं-उनसे आपका दिलाता नहीं है और न स्वयं आकर कुछ बनता या बिगड़ता नहीं है तो भी अथवा अपने किसी सेवकको भेजकर आपके पुण्य गुणोंके स्मरणसे हमारा भक्तजनोंका कोई काम ही सुधारता है, तो वित्त पापोंसे पवित्र होता है-हमारी भी उसकी भक्तिका निमित्त पाकर हमारी पापपरिणति छूटती है-इसलिये हम कर्मप्रकृतियोंमें जो कुछ उलटफेर होता भक्तिके साथ आपका गुणानुवाद गाते है उससे हमें बहुत कुछ प्राप्त हो जाता है हैं-आपकी उपासना करते हैं ।" और हमारे अनेक बिगड़े हुए काम भी - जब परमात्माके गुणोंमें अनुराग सुधर जाते हैं । इसलिये परमात्माके बढ़ाने, उनके गुणोंका प्रेमपूर्वक स्मरण प्रसादसे हमारे लौकिक प्रयोजन भी और चिन्तवन करनेसे शुभ भावोंकी सिद्ध होते हैं अथवा अमुक कार्य सिद्धि उत्पत्ति द्वारा पापपरिणति छूटती और हो गया, इस कहने में, सिद्धान्तकी दृष्टिसे पुण्यपरिणति उसका स्थान लेती है तो कोई विरोध नहीं आता। परन्तु फलनतीजा इसका यही होता है कि हमारी प्राप्तिका यह सारा खेल उपासनाकी पाप प्रकृतियोंका रस सूखता और पुण्य प्रशस्तता, अप्रशस्तता और उसके द्वारा प्रकृतियोंका रस बढ़ता है । पाप प्रकृतियों- उत्पन्न हुए भावोंकी तरतमता पर निर्भर .. का रस (अनुभाग) सूखने और पुण्य है। अतः हमें अपने भावोंकी उज्ज्वलता, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522885
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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